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बागी आत्मा 12

बागी आत्मा 12

बारह

पुलिस से मुठभेड़ के बाद माधव ने सभी बागियों के यहां कुशलता की सूचना भिजवा दी थी। लेकिन माधव अपने घर यह सूचना नहीं भेज पाया था। अखबारों में बड़े-बड़े अक्षरों में यह खबर छप चुकी थी। ‘आशा को भी यह खबर लग ही गई होगी। चिन्ता मंे होगी। मैं ‘कैसा हूँ ?‘

यह बात माधव के मन में आयी तो माधव घर जाने को व्याकुल हो उठा।

मधव बोला -‘वीरू मैं चाहता हूँ सारा दल मेरे घर की तरफ चले। मैं अपने घर पर कुशलता की अभी खबर भी नहीं भेज पाया। घर पर चिन्ता होगी।‘

‘हां सरदार खबर तो भेजनी है। चलो सब उधर ही चले चलते हैं।‘ वीरू ने यह बात सारे बागियों से कह तो सभी उस ओर चलने को तैयार हो गये। यात्रा शुरू हो गई।

अब तो माधव की आंखों में आशा की तस्वीर आकर बैठ गई थी। उसे लगने लगा- वह कह रही है मैं यहां आपकी चिन्ता में मरी जा रही हूँ। आप इतने बड़े एनकाउन्टर की खबर भी नहीं भेज सकते।

माधव के कस्बे के निकट एक काशीपुर नाम का छोटा-सा गांव है। सभी उस गांव में पहुंच गये। माधव ने साथियों को यहीं रूकने का आदेश दे दिया।

उस गांव मंे एक पुरानी हवेली सूनी पड़ी थी। डाकुआंे के डर से मकान मालिक घर छोड़कर शहर चला गया था। माधव ने उसी हबेली का उपयोग करना उचित समझा। सभी उसमें ठहरा दिये गए। भोजन की व्यवस्था कर दी गई। अब माधव उन्हें छोड़कर अपने गांव की ओर चल दिया। रात्रि में चांदनी रास्ता दिखाने का काम कर रही थी।

जैसे ही माधव अपने कस्बे में पहुंचा। पहिले वह अपनी चाची के यहां गया। माधव को पुलिस जैसी ड्रेस में देखकर चाची डर गयी। जब माधव ने उसके पैर छुये तब कहीं उसने उसे पहचान पाया, छाती से चिपका लिया। बोली-

‘आ गया है उस दिन से आज सुध ली है। तू चाची को भूल ही गया था। अब माधव ने दस-दस के नोटों की एक गड्डी निकाली और बोला -‘ये ले चाची अब तो चैन से जीवन व्यतीत कर।‘

‘नहीं-नहीं बेटा, मैं तो मेहनत-मजदूरी करके पेट भर लेती हूँ।‘

‘अरे ले ना कहते हुए नोटों की गड्डी, चाची के हाथ पर रख दी और बोला -‘अरे हां चाचाजी कहां हैं ?‘

बेटा, वे तो तेरी याद करते-करते भगवान के दरवार को पहुंच गये। उन्हें मरे तो बेटा तीन महीने व्यतीत हो गए। यह कहकर चाची रोने लगी।

माधव बोला -‘तू चाची चिन्ता न कर। अरे कोई बात हो तो ये आशा है ना ! उससे कह दिया कर, समझी। वह तेरी सेवा में कमी न रखेगी, और हां तुझे कोई सताता तो नहीं है।

‘नहीं बेटा ! कोई नहीं सताता। इस गांव में तो बस वही एक था अब तो सारा गांव चैन में है।

‘ठीक है चाचीजी, मैं अब चलता हूँ जल्दी में हूँ।‘

‘कुछ तो खा लेता है।‘

‘नहीं चाची, भूख नहीं है, एक जगह जल्दी में पहुंचना है।‘ कहते हुए घर से निकल आया। चाची देखती रह गई।

माधव आशा के घर पहुंचा। रात्री के 11 बज चुके थे। आशा अपने बिस्तर पर पड़ी सो रही थी। घर के सभी सदस्य सो चुके थे। माधव ने धीरे से दरवाजा खटखटाया। आवाज देकर बुला सकना सम्भव न था।

उसने अपने फारमूले का उपयोग लिया और मकान के अन्दर दाखिल हो गया। उसने अन्दाज किया आशा कहां सोई होगी। वह उसी ओर बढ़ा। आशा के मां-बाप को इस वक्त जगाना उचित नहीं समझा। अब माधव आशा के बिस्तर पर जाकर चुपचाप बैठ गया। उसने अपने कपड़े उतारे। और उसके पास बैठकर उसके चेहरे की सुन्दरता का आनन्द लेने लगा।

चांद की स्वच्छ किरणें घर के द्वार से आशा के मुख पर पड़ रहीं थीं। जिससे उसका मुरझाया हुआ चेहरा भी सुन्दर लग रहा था। माधव ने उसका चेहरा देखकर अन्दाज लगाया कि निराश होकर सोई है। उसे जगाने के लिए उसका मन व्याकुल हो उठा। उसने धीरे से आवाज दी -‘आशा ं ं ं ं ।‘

आशा जैसे सब कुछ सुन रही हा,े एकदम उठकर बैठ गई जैसे स्वप्न में उसे बुलाया गया हो। कुछ क्षणों तक तो उसे बात का यकीन नहीं हुआ, पर माधव को सामने देखकर बोली -‘कितने दिन हो गयें ?‘ चाहे यहां किसी के प्राण ही निकल जायें। आपको क्या है ? जब से अखबार की खबर सुनी है आज तक नींद नहीं आई है।‘ कहते हुए शरमा गई। स्वप्न के इस तरह साकार होते वह पहली बार देख रही थी। दोनों के चुप्पी के बाद वह बोली, ‘आप दीवार फांदकर आये हैं ?‘

‘हां तुम्हें कैसे मालूम ?‘

अरे किवाड़ खुलवाकर अन्दर आये होते तो मांजी और पिताजी न जाग जाते।

‘मैंने सोचा आशा ! उन्हें क्यों तंग करूं। मेंने उन्हें इतनी रात में कश्ट देना उचित नहीं समझा,लेकिन अब कुछ खिलाओगी पिलाओ भी। बहुत तेज भूख लगी है।‘

‘अभी खाना बना देती हूँ।‘

‘अरे नहीं खाना बनाओगी तो मांजी व पिताजी जाग जायेंगे। अभी घर में रूखी-सूखी जैसी हो ले आओ।‘

‘आप आये हैं और ऐसा खाना, अभी आपको सोने की क्या जल्दी है ? बागियों की रातें तो जागने के लिये होती हैं।‘

‘लेकिन शरीफों की रातें तो सोने के लिए होती हैं। उन्हंे क्यों जगाती हो कम से कम आज की रात ं ं ं।‘ आशा समझ गई। धीरे से रसोई में गई और रोटियां और अचार ले आई। माधव खाना खाने बैठ गया। खाना खा चुकने के बाद वह आशा के बिस्तर पर ही लेट गया। यह देखकर मजाक में आशा बोली -‘अब मैं कहां सोऊं‘

‘यहां ।‘

‘बड़े बेशर्म हो गये हो। सुबह आपको मांजी देखेंगी तो क्या कहेंगी ?‘

‘कहेंगी क्या ? हालचाल पूछने लगेंगी।‘ खाना खाया कि भूखे सोये।‘

‘आप क्या कहेंगे ?‘

‘कह दूंगा रात के बचे-खुचे ससुराल के टुकड़े खा पीकर सो गया था।‘

‘हाय राम ! आप तो बहुत खराब आदमी हैं।‘

‘यह अब जान पाई हो, अरे! कोई बागी कभी अच्छा हुआ है।

‘माधव क्या जिन्दगी भर हमारा मिलन इसी तरह चुपके-चुपके होगा और मैं विवाहित होकर भी सौभाग्य के चिन्ह धारण न कर पाऊंगी।‘

‘क्यों कौन रोकता है? तुम्हें ये धारण करने के लिये?‘

‘आपने ही तो मना कर दिया था कि किसी से कहना नहीं। मैं न भी कहती लेकिन सुहाग देखकर तो सभी जान जाते। इसलिए मैंने अपना सुहाग राधा जी को पहिना दिया है।‘

‘अरे वाह वाह ! तभी तो मैं कहूँ, कैसी खाली-खाली दिख रही हैं।‘

‘मेरी इच्छा तो राधा जी पूरी करेंगी।‘

‘राधा जी देर भी कर सकती हैं। हम तो आर्डरदानी हैं तत्काल इच्छा पूरी कर देते हैं। यह कहते हुए माधव ने आशा के सुर्ख कपोलों पर चुम्बन अंकित कर दिया। आशा ने पूछा -आज‘आप मेरे लिये क्या लाये हैं ?‘

‘तुम तो कह रही थीं कि गरीबों का धन गरीबों की सेवा में लगा दोगी।

‘आज भी यही कह रही हूँ।‘

‘तुम्हारे मन में यह विचार क्यों दृढ़ हो गया है।‘

‘तुम्हें बागी, तुम्हारी गरीबी ने ही बनाया है। उस दिन तुम्हारे पास पैसे होते तो क्यों दर-दर की ठोकरें खानी पड़तीं। डाकुओं से रूपये न लेते तो ं ं ं।‘

‘बिना इलाज के बापू को मर जाने देता।‘

‘इसीलिये तो सोचती हूँ कि गरीबों का पैसा गरीबों तक कैसे पहुंचे। विकल्प में एक ही बात मेरे मन में आती है कि इस कस्बे में एक अस्पताल बनवा दिया जाये।‘

‘अरे वाह ! आशा तुमने तो यह बातें मेरे मुंह की छीन ली । मेरे बापू इलाज के अभाव में ही मरे हैं। उनकी आत्मा को शान्ति तभी मिल सकेगी।‘

‘आज मुझे कुछ उपहार देना चाहते हैं तो यही दीजिए न।‘

‘लेकिन यह तो बहुत कीमती उपहार है।‘

‘इसके अलावा मुझे चाहिए ही क्या ? तुम्हें याद होगा जब हम साथ-साथ पढ़ते थे तो मैं कहा करती थी मुझे नर्स बनना अच्छा लगता है।‘

‘और मैं कहता था तुम्हें नर्स न बनने दूंगा।‘

‘तो क्या आप सच में मुझे नर्स न बनने देंगे।‘

‘देखो आशा नर्स क्या होती है तुम तो उस अस्पताल की मालिक होंगी और हां तुम यह सब कैसे करोगी।

‘आपकी मदद से किसी ठेकेदार से पहिले बिल्डिंग बनवानी पड़ेगी उसके बाद एक कमेटी बनाकर व्यवस्था कर देंगे।-

‘यह सब कर सकोगी ?‘

‘क्यों न कर सकेंगे । जब आदमी बागी बन सकता है। किसी अच्छे काम के लिए तो इस कस्बे के सभी लोग मदद करेंगे।‘

‘अरे वाह ! ये तो आपने बहुत अच्छी बात सोचकर रखी है।‘

‘उस समय माधव मैं गर्व से कह सकूंगी कि मैं बागी माधव की पत्नी हूँ। जो दीन-दुखियों का सेवक है। मुझसे हीनता की भावना कोसों दूर रहगी।

‘आशा मैं भी भाग्यशाली हूँ जो मुझे तुम जैसी भाग्यशाली पत्नी मिली है।‘

‘आप तो बहुत मक्खन लगाते हैं।‘ यह बात कहते हुए वह लजा गई। जिसे देख माधव के संयम का बांध टूट गया। दो प्रेमी दिलों की धड़कनें इतने पास आ गईं कि दोनों एक-दूसरे की धड़कनें सुन सकें।

सारी रात्री दोनों न सो सके। जीवन के बारे में नये-नये स्वप्न सजाते रहे। कुछ मिटाते रहे। कुछ बनाते रहे। अस्पताल की योजना पर गहराई से सोचते रहे। योजना बनाते-बनाते सुबह होने का इन्तजार करने लगे।

मुर्गे ने बांग दी। सुबह के सूचक इशारों ने बातों के क्रम में व्यग्रता ला दी। आशा कह रही थी -

‘माधव ! काश ं ं ं ये सपना पूरा हो जाये तो ं ं ं।‘

‘तो क्या ?‘

‘मेला के दिन देवी पर प्रसाद चढ़ाऊंगी।‘

‘तब तो यह शुभ कार्य पूरा ही समझो।‘ कहते हुये माधव ने कलाई में बंधी घड़ी पर नजर डाली सुबह के साढ़े चार बज चुके थे। माधव वहां से जाने की तैयारी करने लगा। यह देख आशा पूछ बैठी-

‘कहां जाने की तैयारी है ?‘

‘दिन कहीं और गुजारेंगे।‘

‘अब कब आओगे ?‘

‘रात को ही आ पाऊंगा।‘

‘मेरा दिन कैसे कटेगा ?‘

‘रात के स्वप्न देंखकर।‘

‘अस्पताल का काम कब से प्रारम्भ करोगे ?‘

‘आज ही शहर जा रहा हूँ। किसी इन्जीनियर से उसका नक्शा बनवाना है। इस्टीमेट तैयार कराना है।‘

‘यदि पकड़े गये तो ं ं ं।‘

‘देखना कहीं ऐसा न हो।‘

‘चिन्ता न करो आशा, तुम्हारी आशाओं पर पानी नहीं फिरने दिया जायेगा। यह कहते हुए वह आशा के माता जी-पिताजी से मिलने कमरे से निकला। वे दोनों जान गये थे। माधव उनके कमरे में पहुंच गया। बोला -‘मांजी मैं रात में ही आ गया था। जल्दी जाना चाहता हूँ। रात फिर आऊंगा तब बातें होंगीं।‘ माधव यह कह कर दरवाजे से बाहर निकल आया।

सारे दिन इधर-उधर घूमा-फिरा। शाम के समय काशीपुर गांव में साथियों से मिलने पहुंचा। उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया। अपनी योेजना बताई। सभी उसके कार्य में सहयोग करने तैयार हो गये।

छूसर दिन वह अपने साथ अस्पताल का नक्शा एवं इस्टीमेट साथ लेकर आया। उसे सभी साथियों के सामने रख दिया। इस शुभ कार्य में खर्च की चिन्ता किसी को भी नहीं थी। सभी कहने लगे सरदार आप यहीं कहीं रहकर इस काम की व्यवस्था करें। इसके लिये पैसा की व्यवस्था हम करेंगे।’

‘लेकिन कोई गरीब न सताया जाये।‘

‘आप ऐसी कोई बात सुन लें तब कहना। ‘आश्वासन को पाकर माधव लौट आया था। दल के सारे लोग पैसा कमाने की दृश्टि से चले गये।

माधव का समय अस्पताल के कामों में व्यतीत होने लगा था। दिन कहीं भी गुजारता, पर रात में वह घर पर ही आ जाता। आशा के माता-पिता अत्यधिक रूश्ट इसलिये रहने लगे थे कि वह अपनी सारी कमाई अस्पताल के लिए बर्बाद कर रहा था। इसी कारण माधव की अस्पताल की योजना में कभी सरीख न होते । कस्बे में यह अफवाह फैल गई थी कि एक महात्मा जी इस कस्बे में अस्पताल खुलवाना चाहते हैं।

अफवाह के बाद से लोग महात्मा जी को देखने व्यग्र रहने लगे थे। अभी तक किसी ने उन महात्मा जी के दर्शन नही किये थे। महात्मा जी के सम्बन्ध में नई-नई अफवाहें सुनने को मिलने लगीं। कुछ लोगों का कहना था महात्मा जी एकदम लोप हो जाते हैं। किसी को दर्शन नहीं देते। कुछ अस्पताल वाली बातों को कोरी कल्पना ही मान रहे थे।

लोगों को तो उस दिन इस बात पर विश्वास हुआ जब अस्पताल बनाने वाला ठेकेदार ही गांव में आ गया।

बिल्डिंग बनाने का कार्य प्रारम्भ हो गया। इस शुभ कार्य को माधव के नाम से जोड़ने की कल्पना किसी के मन में नहीं आई। सभी लोग महात्मा जी का चमत्कार ही समझ रहे थे। अस्पताल में लगभग पचास लाख रूपये की लागत आ रही थी। अब तो लोगों की भीड़ अस्पताल पर आने लगी। लोग महात्मा जी के बारे में चर्चा करते थे तो सोचते किसी न किसी दिन तो उस सन्त के दर्शन होंगे ही।

अस्पताल पर आशा प्रतिदिन सुबह ही पहुंच जाती। ठेकेदार से बातें करती। ठेकेदार आशा की रूचि देखकर बड़ा प्रभावित हुआ। वह इसके निर्माण के बारे में आशा से चर्चा करने लगा। आशा सभी के समाने उस ठेकेदार से पूछती-‘कौन बनवा रहा है इसे?’

‘ठेकेदार बस इतना ही कहता, मेरे पास तो दो आदमी आये थे वे कह रहे थे एक महात्मा जी हैं वे बनवा रहे हैं।

मैं क्यों पूछने लगा कौन महात्मा हैं? मुझे तो ठेके के पैसयों से मतलब है, तो पैसे उन्होंने बैंक में जमा कर दिये हैं।‘ कभी-कभी ठेकेदार कहता, जो भी इसे बनवा रहा है, वह कम से कम अपना पचास लाख रूपये इस काम में खसर्च कर रहा है। तुम्हारे गांव के लिये तो वह महात्मा ही है। उसकी बात सुनकर सभी स्वीकार करते हैं, भईया इस गांव के लिए तो वह महात्मा ही हैं।

सारा गांव आश्चर्य में था। इस गांव में कोई अच्छा महात्मा आ गया है जो इतना धन गांव के लिये लुटा रहा है।

माधव का कार्य क्षेत्र यहीं बन गया था। माधव के साथी समय समय पर माधव के गांव में आते। जो भी धन इकट्ठा हो जाता था। माधव को दे जाते थे। माधव उनके पास प्रगति की सूचना भेजता रहता था। कार्य के बारे में आवश्यक निर्देश भी भेज देता। बीच-बीच में माधव पैसों की व्यवस्था करने अपने साथियों के साथ चला जाता, लेकिन उसे शीघ्र ही लौट आना पड़ता था।

माधव कहीं भी जाता, हर बार अलग भेश बनाकर जाता था। अपने कस्बे में माधव रात को ही आता था। आशा के परिवार के अलावा उसके बारे में कोई कुछ न जान पाया था। इसी क्रम में काम चलते एक वर्श व्यतीत होने को जा रहा था। बिल्डिंग बन कर तैयार हो चुकी थी।

आशा लोगों को बुलाती फिर रही थी। सभी को अस्पताल पर बुलाया जा रहा था। आशा राव वीरेन्द्र सिंह की पत्नी को बुला लायी।

आशा लोगों से पूछने लगी -‘अस्पताल के काम को चलाने के लिए एक कमेटी बनाना है।‘ लोग कहने लगे - तुम्हें क्या हक है ? महात्मा जी का काम है जैसा वे कहेंगे होगा।

आशा बोली- ‘रात महात्मा जी मुझे अस्पताल पर मिले थे। उन्होंने ही मुझ से इस काम के लिये कहा है। इसलिए मैंने सभी को यहां बुलाया है। नहीं तो मेरी क्या अटकी थी ?‘

रात्री का समय हो गया। मीटिंग की कार्यवाही अन्धेरे में ही चलती रही। प्रकाश की व्यवस्था कौन करे। कुछ लोगों ने प्रकाश के लिए कहा तो आशा बोली -‘प्रकाश की क्या जरूरत है ? वैसे ही काम चल रहा है।‘ तभी एक महात्मा सभा में उपस्थित हो गये। उन्हें देख सभी खड़े हो गये। सभी बोले- महाराज आ गये हैं तो प्रकाश ले आओ।

महात्मा जी बोले- ‘नहीं प्रकाश की आवश्यकता नहीं है आप सभी लोग चुपचाप बैठ जायें। महात्मा जी अलग एक पत्थर की पटिया पर बैठ गये। सभी का मुंह उस ओर मुड़ गया। कमेटी का चुनाव किया जाने लगा।

अध्यक्ष पद पर राव वीरेन्द्र सिंह की पत्नी कमला देवी का नाम महात्मा जी की ओर से आया। सभी ने इसका स्वागत किया। कोशाध्यक्ष के पद के लिए आशा का नाम महात्मा जी ने रखा तो सब दंग रह गये। शेश पदों पर पुरूश प्रत्याशी चुने गये। अधिकांश लोग गरीबों में से चुने गये। लोग आश्चर्य कर रहे थे महात्मा जी सभीका नाम कैसे जानते हैं। लोगों में आशा के नाम पर काना-फूसी हुई।

माधव समझ गया बोला -‘मैं जानता आप लोग आशाजी के बारे में सोच रहे होंगे। इनकी ईमानदारी पर मुझे पूरा विश्वावस है। इसी कारण मैं घोशित करता हूँ-धन के मामलों में आशाजी को निर्णय लेने के सभी से अधिकार होंगे। ‘ एक विधान मैंने बनाया है उसमें यह बात साफ-साफ लिख दी है।

कुछ लोग बोले -‘महाराज कहीं आशा ने धोखा दे दिया तो ं ं ं ?‘

‘यह मेरा जुम्मा रहा। आप लोग विश्वास करें।‘ उनकी बात सुनकर सभी चुप रह गये। चुपचाप सारी बात मान ली गईं। विधान में परिवर्तन का अधिकार नहीं दिया गया। संविधान में संशोधन दीन-दुखी हिताय की दृश्टि से आशा की सहमति एवं अध्यक्षा की सहमति से किये जा सकते हैं।

मैंने पचास लाख रूपया अस्पताल के नाम पर एफ0 डी0 रिजर्व बैंक में जमा करा दी है जिसके सूद से अस्पताल का खर्च चलेगा। गरीबों को दवाएं मुफ्त दी जाएं। मैं कोशिश कर रहा हूँ डॉक्टर की व्यवस्था सरकार कर दे। दान-पात्र रखा जाये। कमेटी के सामने उसे खोला जाये। उसकी आमदनी गरीबों के लिए खर्च की जाये।‘

कमेटी में यह चर्चा जोर पकड़ गई कि अस्पताल का नाम क्या रखा जाये ?

महात्मा जी बोले -‘अध्यक्षा महोदया एवं कोशाध्यक्ष कोई नाम सुझावें।‘

आशा झट से बोली -‘भगवान माधव के नाम पर अस्पताल का नाम रखा जाये।‘

कमला देवी को बोलना पड़ा। हां यह नाम भी ठीक है महात्मा जी के धन से इस प्रकार निर्माण हुआ है। माधव आशा औशधालय नाम रखना चाहता था पर आशा के प्रस्ताव से सहमत होना पड़ रहा था। अध्यक्षा महोदया ने जो बात का समर्थन कर दिया था। सर्व सम्मति से ‘माधव चिकित्सालय‘ अस्पताल का नाम रख दिया गया। अब महात्मा जी उठ खड़े हुये बोले -

‘भाई ! अब सारी बातें अपनी कमेटी में निपटाओ। हम तो चलते हैं। सभी उनके चरण छूने को बढ़े तो महात्मा जी ने रोक दिया और जिस रास्ते से वे आये थे उसी रास्ते से पुनः चले गये।

कुछ चर्चाओं के बाद मीटिंग समाप्त हो गई।

कुछ ही दिनों में सरकार ने एक डॉक्टर की नियुक्ति माधव डिस्पेन्सरी के नाम से कर दी। उद्घाटन जिला कलेक्टर से कराने का निश्चय किया गया। सभी तैयारियां की जाने लगीं। अस्पताल के लिये आवश्यक उपकरण खरीद लिये गये।

उद्घाटन का दिन आ गया। कमेटी के सभी लोग कार्य में व्यस्त थे। सभी की निगाहें महात्मा जी को ढूंढने में लगीं थीं। आशा निराश मन से काम में व्यस्त थी। पर सब बातें जानती थी। इसीलिए चुपचाप अपने काम में लगी हुई थी। शाम के पांच बज गये। कलेक्टर साहब आये। उद्घाटन किया। सारा गांव कलेक्टर साहब का भाशण सुनता रहा महात्मा जी के बारे में भी कलेक्टर साहब ने चर्चा की। सभी महात्मा जी के कृतज्ञ थे।

रात्री के दस बजे आशा वहां से निवृत्त होकर लौटी। माधव को बिस्तरे पर सोते हुये पाया। माधव को देखकर बोली -‘आपकी सब लोग वहां प्रतीक्षा करते रहे।‘

‘आशा मुझे डर लगने लगा है कि कहीं पहिचान न लिया जाऊं। आते-आते डर लगने लगा तो इधर चला आया।‘

‘आज आपने ये बागियों की ड्रेस क्यों पहन रखी है।‘

‘बागी बनने के लिए।‘

‘क्यों ? बिना बागी बने काम नहीं चल सकता।‘

‘आशा मेरा यहां का काम समाप्त हो गया। अस्पताल की जुम्मेदारी तुम्हारी हो गई। अब तो आज की अर्द्धरात्री के बाद से मेरी उन्हीं बीहड़ों के लिए पुनः यात्रा प्रारम्भ हो जायेगी।‘

‘तो क्या वहां जाकर वही सब कुछ करोगे ?‘

‘आशा, इतना अच्छा कार्य करने के बाद, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।‘

‘अब कब आओगे?‘

‘सोचता हूँ आत्म-शुद्धी के लिए शीतला देवी के मेले में अवश्य आऊंगा। कहते हुए झट खड़ा हुआ। माताजी पिताजी भी पास आ गये बोले -‘बेटे हम क्या सुन रहे हैं ?‘

‘तुम जा रहे हो।‘

‘ जी, यहां अधिक दिन हो गये हैं , पकड़ा गया तो ं ं ं ।‘

बात सुनकर वे कुछ न बोले अब माधव ही बोला -

‘मांजी मेरे पास जो धन शेश बचा था। वह आशा के खर्च के लिए दे दिया और हां अब मेरे से आशा की ये सादगी देखी नहीं जाती अब तो सारा रहस्य खोल देना चाहिए।

आशा अब तुम्हें यह बताने में गर्व होगा कि तुम माधव की पत्नी हो।

‘पर ?‘

‘पर क्या ? अब सारे श्रृंगार करो। मुझे तुम्हारा यह सादा जीवन अच्छा नहीं लगता।‘ यह सुनकर आशा पूजा के कमरे में गई। राधा जी से कहने लगी-

‘राधाजी मैं सुहागिन बन गई। अब मैं पहने लेती हूँ सारा सुहाग। कहकर सुहाग के सारे उपकरण एक-एक करके धारण करने लगी।‘

माधव समझ गया इसलिए उसके पीछे चला आया था। आशा को श्रृंगार करते देख रहा था। श्रृंगार करके जैसे ही आशा मुड़ी सामने माधव खड़ा था। आशा को श्रृंगार में सजी देख माधव से रहा न गया। आशा को आलिंगन में भर लिया। फिर दोनों सहमे हुए से कमरे से बाहर निकले। चौक में आशा के माता-पिता दोनों ही खड़े थे।

माधव बोला -‘अच्छा अब मैं चलता हूँ।‘ कहकर बाहर निगल गया। सभी सजल नेत्रों से उसे जाते हुए देखते रहे।

दूसरे दिन यह खबर सारे गांव में बिजली के करन्ट की तरह फैल गई। आशा सभी से साफ-साफ कह रही थी। मैं माधव बागी की पत्नी हूँ। उसी ने यह अस्पताल बनवाया है। जब यह बात राव वीरेन्द्र सिंह की पत्नी कमला देवी को पता चली तो वह आशा के घर लड़ने पहुंच गई। तमाम खरी-खोटी सुनाने लगी। आशा चुपचाप सुनती रही। जब वे सुना सुनाकर थक गईं तब बोली-

‘मैं क्या करूं? चाचीजी उसने जंगल में बुलाकर ब्याह कर लिया।‘

‘तो अभी तक यह बा क्यों छिपा कर रखी?‘

‘और क्या करती ?‘ पुलिस के डर से, फिर अस्पताल का सपना ं ं ं। कुछ कहती तो ं ं ं। माधव का डर।

आशा के माता-पिता द्वारा समझाने बुझाने पर वह चली गई। कमला देवी का गुस्सा शायद कभी शान्त न होता पर वे जान रहीं थी कि माधव अभी जिन्दा है। उस के डर से कोई भी जुबान न खोल पा रहा था। वे सोचे जा रही थीं।

महात्मा की अफवाह मात्र अफवाह थी। उस दिन रात में माधव ही था। मैं भी समझ तो रही थी पर ं ं ।ं मुझे अस्पताल की कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया है। जिससे मेरा क्रोध शान्त हो जाये। वह दिल से इतना खराब नहीं है। वैसे तो मेरे पति ही कुछ कम न थे।

गांव के कुछ लोग ‘माधव डिस्पेन्सरी‘ अस्पताल का नाम सुनकर चौंक गये थे तभी आशा ने यह नाम रखवाया था और महात्मा जी आशा की बात मान गये थे। बात कितनी गहरी निकली। सभी को साफ-साफ समझ में आ गया था, लेकिन कुछ भी हो। वीरेन्द्र सिंह अच्छा आदमी न था। माधव ने तो इस गांव में अस्पताल बनवा डाला। वह बहुत अच्छा आदमी है। मन ही मन यह सभी सोचे जा रहे थे। मुंह बाहर कुछ बातें निकल रहीं थीं तो अस्पताल के बारे में हीं।

कस्बे भर में तरह-तरह की चर्चायें रंग पर थीं। पर आशा को इन सब बातों की बिलकुल परवाह न थी। गांव के लोग आशा के मुंह पर तो आशा की प्रशंसा करते सुन जाते। ‘वह तो आशा दीदी की महरबानी है जो इस गांव में अस्पताल बन गया।‘

‘वह कहती -

‘मेरी क्यों ? पैसा तो माधव ने लगाया है सब उसी की मेहरबानी है।‘

पुलिस के पास भी खबर पहुंच गई। खबर सुनते ही दरोगा जी का दौरा हो गया। वे सीधे आशा के घर पहुंचे। दरवाजे पर जाकर गालियां बकने लगे। यह सुनकर आशा बाहर निकल आई, ‘दरोगाजी आप ही बताइये इसमें मेरा क्या दोश है ? अरे उसने जबरदस्ती ब्याह कर लिया तो मैं क्या करती ?‘

पुलिस इन्सपेक्टर गुस्से में आकर बोला -‘तुमने पुलिस को सूचना क्यों नहीं दीं ?‘

‘माधव ने मारने की धमकी दे दी थी तो डर गई। अब तो आप सूचित हो ही गये हैं। अब आप कुछ करिये न।‘

‘यह तो बताओ कि वह इस समय कहां है ?‘

‘कहीं जंगलों में पुलिस के मारे इधर-उधर भागता फिर रहा होगा। आप भी पीछा कीजिये। कहीं ऐसी जगह न छिप जाये कि आप उसे जिन्दगी भर ढूंढते रहें और वह न मिले।‘

‘सुना है अस्पताल बनना शुरू हुआ था तभी वह यही है।‘

‘यही तो देखिए दरोगा जी, वह आपके क्षेत्र में इतने समय रहकर एक अस्पताल बनवा गया। आपको तथा गांव वालों को भी पता भी नहीं चला और जब आज वह चला गया तो आप लोग पूंछने आये हैं।‘

‘तुम्हें बात करने का तमीज नहीं है। तुम जिस तरह व्यंग्य में भरी बातें कर रही हो, हम सब जानते हैं।‘

‘सच्चाई आपको व्यंग्य लगी है तो मैं चुप हो जाती हूँ।‘

यह बात सुनकर दरोगाज आशा के पास जाकर फुसफुसाये।

आशा बोली-‘ नहीं, मेरे से यह नहीं हो सकता। मैं तो अपना सारा धन अस्पताल के लिये दे चुकी हूँ। फिर दरोगा जी आपका हिस्सा तो आपके पास पहुंच ही चुका होगा।‘

‘तो क्या चाय भी नहीं पिलाओगी ?‘ आशा उठी चाय बनाने चली गई। थोड़ी देर बाद चाय लेकर आई।

अकेली चाय देखकर दरोगा जी बोले -‘अरे अकेली चाय ं ं ं?‘

‘और तो कुछ है नहीं।‘

दरोगा जी ने यह सुनकर चुपचाप चाय पी और चले गये।

घटना के चार छै दिन बाद वातावरण सामान्य हो गया। आशा का जब घर मन न लगता तो अस्पताल पहुंच जाती। मरीजों की सेवा करने में लग जाती। इस काम में उसे बेहद शान्ति मिलती थी। एक दिन अस्पताल में नर्स का काम करने की अनुमति भी उसने डॉक्टर से प्राप्त कर ली। उसके बाद उसका जीवन मरीजों की सेवा में ही व्यतीत होने लगा था।