Mission Sefer - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

मिशन सिफर - 2

2.

राशिद हमेशा की तरह उस दिन भी नमाज-ए मग़रिब अदा करने के लिए पास की मस्जिद में गया हुआ था। नमाज अदा करने के बाद उसने इमाम साहब की तकरीर बहुत ध्यान से सुनी। वही बातें थीं जो अल्फाज़ बदल-बदल कर लगभग रोजाना ही तकरीर का मजमून होती थीं। पर, हर बार ही उसे वे नई लगती थीं। कुरान शरीफ में आयद फर्जों के बारे में उसे सुनकर अच्छा लगता था। वह मन ही मन सारे मजहबी फर्जों को पूरी तरह निभाने के लिए खुद को तैयार करता। वतन और दुनिया भर में इस्लाम की हालत पर भी चर्चा होती। वह सारी बातों को जेहन में सहेजता जाता।

तकरीर में वह इतना मशगूल हो गया था कि उसे अपने पास बैठे शख्स का भी इल्म नहीं था। उठते-उठते उसने अपने बगल में बैठे शख्स पर नजर डाली तो उस दरमियानी उम्र के खूबसूरत शख्स को वह क्षणभर देखता रहा। इससे पहले उसने उसे यहां कभी नहीं देखा था। वह यह सोच ही रहा था कि वह शख्स उसे देख कर मुस्कराया। राशिद ने उसे आदाब अर्ज किया तो उसने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा – “बरखुरदार, आपकी नजरें कह रही हैं कि मुझमें आपको एक अजनबी दिख रहा है।“

“आप सही कह रहे हैं। पहले आपको कभी देखा नहीं। इस मस्जिद में मैं रोजाना आता हूं। अमूमन वही जाने-पहचाने चेहरे नजर आते हैं। आपको.......।“

“आप ठीक कह रहे हैं। मैं इस इलाके में किसी काम से आज पहली बार ही आया था। मग़रिब की नमाज का वक्त हुआ तो पास की इस मस्जिद में चला आया। आपका इस्मे-शरीफ जान सकता हूं?”

“जी, मैं राशिद हूं।“

“पांचों वक्त की नमाज के पाबंद हो?”

“जी बिलकुल।“

“अल्लाह आप पर मेहरबान रहे। आजकल के ज्यादातर नौजवान तो अपने मज़हब से वास्ता रखने में दिलचस्पी नहीं रखते। अंग्रेजीयत हावी होती जा रही है। बरखुरदार, एक आप हैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते हुए भी पांचों वक्त की नमाज के पाबंद हैं।“

“आपको कैसे पता चला चला मैं इंजीनियरी कर रहा हूं?”

.”हा...हा...हा..कोई नजूमी नहीं हूं मैं। जब मस्जिद आ रहा था तो आपको इंजीनियरिंग कॉलेज से निकलते देखा था।“

“अच्छा, आप....?”

“बताता हूं भाई, मैं मकबूल कादरी हूं। पाकिस्तानी फौज को खाने-पीने का सामान सप्लाई करता हूं। इस तरह भी वतन के लिए कुछ करने की हसरत पूरी कर लेता हूं।“

“बड़ी बात है, कादरी साहब। चाहता तो मैं भी हूं अपने वतन के लिए कुछ करूं।“

“पढ़ाई पूरी कर लो, यह हसरत भी पूरी हो जाएगी आपकी। मैं एक ऐसे इदारे को जानता हूं जहां नौजवान लोग मिलते हैं और इसी बात पर बहस करते हैं कि पाकिस्तान को सबसे अच्छा मुल्क बनाने के लिए क्या किया जा सकता है और अपने अंदर छुपे और बाहरी दुश्मनों से कैसे मुकाबला किया जा सकता है।“

“अरे वाह...।“

“यही नहीं वे नई सोच के साथ खुद को वतन-परस्ती के लिए तैयार करते हैं और अपने वतन के लिए कुछ भी कर गुजरने को हमेशा तैयार रहते हैं। मैं जानता हूं, आपको ऐसे नौजवानों से मिल कर अच्छा लगेगा।“

“वाकई अच्छा लगेगा। इंजीनियरिंग का यह मेरा आखिरी साल है। फिर देखता हूं...।“

“हां..हां, क्यों नहीं। पाकिस्तान को आला दर्जे के इंजीनियरों की भी जरूरत है। पहले पढ़ाई फिर सबकुछ, ठीक है। चलो, मैं अब चलता हूं।“

“आपसे मिलकर अच्छा लगा।“

“मुझे भी, फिर अब तो इस इलाके में मेरा आना-जाना लगा रहेगा। मस्जिद में तो आपसे मुलाकात होती ही रहेगी।“

“जी हां, जरूर। खुदा हाफिज.”

“अल्ला हाफिज।“

हॉस्टल पहुंचने के बाद राशिद आज अचानक कादरी साहब से हुई मुलाकात के बारे में सोचता रहा। कितने अच्छे और सुलझे हुए नजर आ रहे थे वो। अपने मज़हब और वतन को लेकर उनके ख्याल उसके ख्यालों से कितने मिलते-जुलते थे। उनसे फिर मिलने की बात उसके दिल को सुकून देने लगी। जब कोई हमख्याल मिल जाता है तो दिल को सुकून मिलना लाजिमी है।

उसे यह जानकर बहुत अच्छा लगा था कि उसी के शहर में नौजवानों का एक ऐसा इदारा भी था जो अपने वतन और मजहब को लेकर संजीदगी से सोचता है और उन पर अमल भी करता है। वरना तो कादरी साहब की इस बात में काफी सच्चाई भरी थी कि आजकल के नौजवानों पर अंग्रेजीयत हावी हो चुकी थी और वे दीन को भुलाकर बस दुनिया के सो-काल्ड मजे लेना ही अपना मकसद बना बैठे थे। इस्लाम में जिन चीजों की मुमानियत थी उन्हीं को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाने में उन्हें ना तो शर्म आती थी और ना ही खुदा के कहर का डर सताता था। उसने अपने सिर को झटका दिया, वे जानें और उनका काम। वह तो अल्लाह ताला का शुक्रगुजार है कि उसने उसे यतीम होते हुए और वालिदेन की परवरिश के साये से महरूम रखते हुए भी इन गंदगियों से दूर रखा है और अपने करीब रहने की सलाहियत बख्शी है। उसने दोनों हाथ उठाकर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया और खुद को पढ़ाई में मशगूल कर लिया।