Manas Ke Ram - 25 books and stories free download online pdf in Hindi

मानस के राम (रामकथा) - 25







मानस के राम
भाग 25



वानर दलों का सीता की खोज में जाना


सुग्रीव की योजना सुनकर राम प्रसन्न होकर बोले,
"आपने एक सच्चे मित्र का कर्तव्य निभाया है। मैं सीता के विषय में सोंच कर बहुत चिंतित था। किंतु आपने मेरी समस्त चिंता को इस प्रकार हर लिया जैसे सूर्य अंधकार को निगल जाता है। अब मुझे पूर्ण विश्वास है कि रावण का विनाश होकर रहेगा।"
जब राम सुग्रीव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे तभी वानरों का एक विशाल दल वहाँ पहुँचा। सुग्रीव ने वानरों के दल को संबोधित कर उन्हें सीता की खोज के विषय में जानकारी दी। उसने उस बड़े से दल को आठ छोटे छोटे दलों में बांट कर आठ अलग अलग दिशाओं जाने का निर्देश दिया। वानर दल को संबोधित करने के बाद सुग्रीव राम से बोला,
"ये सभी वानर बुद्धि व बल में श्रेष्ठ हैं। ये सभी आपकी सेवा मे उपस्थित हैं। सीता की खोज में यह अपनी समस्त शक्ति लगाने को तैयार हैं।"
राम उस विशाल वानर दल को देख कर बहुत खुश थे। उन्होंने एक बार फिर सुग्रीव के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा,
"पहली प्राथमिकता सीता के विषय में पता कर यह जानने की है कि वह कहाँ और किस अवस्था में है। उसके बाद रावण को उसके कर्मों का दंड देना है।"
सुग्रीव ने वानरों को आदेश दिया कि जहाँ कहीं भी सीता हों उनके बारे में पता कर शीघ्र सूचना दें। सभी दल अपनी अपनी तय दिशा की तरफ जाने को तैयार खड़े थे। किंतु सुग्रीव के मन में एक दुविधा थी। वह जानता था कि सभी वानर बल व बुद्धि में श्रेष्ठ हैं। पर उसे लग रहा था कि यह काम हनुमान ही कर सकते हैं। हनुमान बल व बुद्धि में सर्वश्रेष्ठ थे। राम के प्रति उनके ह्रदय में विशेष आदर व भक्ति थी। अतः सीता की खोज के लिए वह सबसे योग्य थे।
सुग्रीव ने हनुमान को अपने पास बुला कर अपने ह्रदय की बात उन्हें बता दी। हनुमान यह बात सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। राम के किसी भी तरह काम आ सकना उनके लिए गौरव की बात थी। राम को जब पता चला कि हनुमान को भी एक दल के साथ सीता की खोज के अभियान में भेजा जा रहा है तो वह भी बहुत प्रसन्न हुए। हनुमान से अपनी पहली भेंट के बाद से ही वह उनसे बहुत प्रभावित थे। पहली भेंट में ही उन लोगों के ह्रदय एक दूसरे से जुड़ गए थे। उन्हें पूरा यकीन था कि हनुमान सीता के विषय में कोई शुभ समाचार लाएंगे। उन्होंने अपनी मुद्रिका हनुमान को देते हुए कहा,
"प्रिय हनुमान जब तुम्हारी भेंट सीता से हो तो उसे यह मुद्रिका भेंट करना। वह समझ जाएगी कि तुम मेरे भेजे हुए दूत हो। मुद्रिका दे कर कहना कि मैं उसके वियोग में तड़प रहा हूँ। जैसे ही मुझे उसका कोई समाचार मिलेगा मैं उसे लेने अवश्य आऊँगा।"
सभी दलों को विदा करने से पहले सुग्रीव ने उनमें उत्साह भरते हुए कहा,
"हे वीर वानरों तुम सभी इस अभियान में जाने के सर्वथा योग्य हो। वह दुष्ट राक्षस सीता को चाहें धरती के किसी भी कोने में ले गया हो तुम लोग उन्हें खोज कर सूचना दो। यह तुम सभी के धैर्य, बुद्धि व साहस की परीक्षा है। सफल होकर लौटो।"
सभी वानर उत्साहित हो गए। सीता की खोज में वह अपनी सारी शक्ति लगाने को तत्पर थे। जोश में भरे सभी दल अपने नेता की अगुवाई में अपनी अपनी दिशा में चल दिए। सतबाली का दल उत्तर दिशा में गया। विनता अपने दल को लेकर पूर्व की तरफ गया। सुशेन पश्चिम दिशा में सीता को खोजने के लिए गया।
हनुमान अंगद जांबवंत तथा नल नील दक्षिण की ओर बढ़ चले।


चमत्कारी गुफा का मिलना

सभी दलों के सीता की खोज में जाने के बाद राम सीता के विषय में सूचना पाने के लिए बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे। पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर दिशा में गए दल एक माह के बाद निराश होकर वापस आ गए। उन्होंने राम के समक्ष उपस्थित होकर कहा,
"हमने देवी सीता की खोज में अपनी सामर्थ्य के अनुसार पूरा प्रयास किया। किंतु हमें देवी सीता की कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई।"
राम ने उनकी बात धैर्य से सुनी। उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि वानरों ने अपना पूरा प्रयास किया है। हनुमान दक्षिण दिशा में गए थे। जटायू ने भी बताया था कि रावण सीता को लेकर दक्षिण दिशा में गया था। हनुमान और उनका दल अभी तक नहीं लौटे थे। राम को पूरा विश्वास था कि हनुमान सफल होकर ही लौटेंगे।
अपने खोजी अभियान में हनुमान और उनका दल सर्वप्रथम विंध्य पर्वत पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने जंगलों तथा गुफाओं को अच्छी तरह से खंगाल कर देखा। वहाँ सफलता ना मिलने पर वह आगे बढ़ते हुए ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ रेगिस्तान था। इस स्थान पर एक ऋषि तपस्या कर रहे थे। उनके श्राप के कारण इस स्थान पर कोई भी पेड़ पौधा व जीव जंतु नहीं था।
दक्षिण दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्हें एक राक्षस मिला। वानरों को देख कर वह उनकी तरफ लपका। अंगद ने मुक्का मार कर उसे भूमि पर गिरा दिया।
सीता को खोजते हुए वानर दक्षिण दिशा की ओर बढ़ रहे थे। कई बार उन्हें बिना कुछ खाए पिए लंबी यात्रा करनी पड़ती थी। किंतु सीता की कोई सूचना नहीं मिल रही थी। अतः कई बार वानर निराश हो जाते थे। तब हनुमान तथा अंगद उन्हें उत्साहित करते थे।
चलते चलते वह दक्षिण दिशा में बहुत आगे निकल आए थे। वह एक ऐसे स्थान से गुजर रहे थे जहाँ भोजन तथा पानी उपलब्ध नहीं था। वह भूख प्यास व थकान से बेहाल थे। तभी उनकी दृष्टि एक गुफा के मुख पर पड़ी। उस गुफा से भांति भांति के सुंदर पक्षी मधुर आवाज़ करते हुए निकल रहे थे। गुफा से कमल पुष्पों से सुगंधित शीतल हवा आ रही थी। वानरों को लगा कि पक्षी तथा कमल पुष्पों की सुगंध इस बात का संकेत है कि गुफा में अवश्य ही कोई जलाशय है। वह सब बहुत प्रसन्न हुए। एक दूसरे का हाथ पकड़ कर वह सावधानी से गुफा में प्रवेश कर गए।
गुफा में बहुत अंदर जाने पर उन्हें एक स्थान से प्रकाश आता हुआ दिखाई दिया। उस दिशा में आगे बढ़ने पर उन्हें स्वच्छ व शीतल पानी के निर्झर, फलों से लदे हुए वृक्षों के झुरमुट मिले। कुछ और आगे जाने पर उन्हें एक सुंदर नगरी दिखाई पड़ी। जिसकी सड़कें स्वर्ण की बनी तथा रत्नजड़ित थीं। दोनों तरफ विशाल सुंदर भवन थे।
आश्चर्यचकित सभी उस सुंदर नगरी को देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। उन्हें व सब सुखद स्वप्न की भांति लग रहा था। उस नगरी की सुंदरता को निहारते हुए वह एक स्थान पर पहुँचे जहाँ एक वृद्ध तपस्विनी तपस्या कर रही थीं। तपस्विनी के चेहरे की कांति देख सभी वानर हतप्रभ रह गए। उस तपस्विनी का नाम स्वयंप्रभा था। हनुमान ने आदर के साथ उस तपस्विनी से पूँछा,
"माता आप कौन हैं ? भूख व प्यास से परेशान हम जल की तलाश में इस गुफा के भीतर आ गए। यहाँ हमें यह सुंदर नगरी दिखाई दी। किंतु यहाँ आपके अतिरिक्त कोई अन्य व्सक्ति नहीं है। हम समझ नहीं पा रहे हैं कि यह वास्तविक है या हमारा भ्रम।"
तपस्विनी ने उत्तर दिया,
"इस जगह का निर्माण असुरों के शिल्पकार माया ने किया था। वह शुक्राचार्य का शिष्य था। माया इस सुंदर नगरी में सुखपूर्वक रह रहा था। किंतु इंद्र से उसकी शत्रुता हो गई। इंद्र ने माया का वध कर यह नगरी मेरी सखी हेमा को भेंट में दे दी। यह सारी संपदा अब हेमा की है। वह इस समय देवलोक गई हुई है।"
हनुमान के प्रश्न का उत्तर देने के बाद तपस्विनी ने कहा,
"तुम लोग पहले यहाँ के फल खाकर व शीतल जल पीकर स्वयं को तृप्त करो। तत्पश्चात मुझे बताना कि तुम्हारे यहाँ आने का प्रयोजन क्या है ?"
स्वयंप्रभा से अनुमति लेकर सभी वानरों ने जी भर कर फल खाए व अपनी प्यास बुझाई। तृप्त होने के पश्चात हनुमान ने तपस्विनी को उन लोगों के वहाँ आने का प्रयोजन बताया,
"माता मेरा नाम हनुमान है। मैं किषकिंधा नरेश सुग्रीव का मुख्यमंत्री हूँ। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम अपने अनुज लक्ष्मण व पत्नी सीता के साथ अपने पिता का वचन निभाने के लिए वनवास पर आए हैं। राम की पत्नी सीता को एक राक्षस हरण कर दक्षिण दिशा में ले गया है। राम ने हमारे महाराज सुग्रीव से उनकी खोज करने में सहायता मांगी है। अपने महाराज की आज्ञा पर हम सीता की खोज में निकले हैं। किंतु अभी तक हमें कोई सफलता नहीं मिली। अब हम इस गुफा में भटक गए हैं। बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।"
तपस्विनी स्वयंप्रभा ने कहा,
"जो भी इस गुफा में एक बार प्रवेश कर जाता है वह अपनी इच्छा से बाहर नहीं जा सकता है। किंतु तुम लोग एक आदर्श कार्य के लिए निकले हो तो मैं अपनी तपस्या से अर्जित शक्ति से तुम लोगों को बाहर निकाल सकती हूँ। तुम सभी अपने नेत्र बंद कर लो।"
सबने अपनी आँखें मूंद लीं। जब उन लोगों ने अपनी आँखें खोलीं तो स्वयं को समुद्र के किनारे पाया। उन्होंने अपने चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई तो पाया कि बसंत ऋतु का आगमन हो चुका था।

वानरों का हताश होना

यह जानकर कि बसंत ऋतु का आगमन हो चुका है अंगद बोला,
"अब तो बसंत ऋतु भी आ गई। किंतु हमें अपने अभियान में कोई सफलता नहीं मिली। यदि हम सीता माता की सूचना के बिना वापस लौटे तो महाराज सुग्रीव हमें अवश्य दंड देंगे। इससे तो अच्छा है कि हम भूखे प्यासे रह कर यहीं प्राण त्याग दें।"
वानरों के सेनापति तारा ने सुझाव दिया,
"इससे तो अच्छा है कि हम सब उसी तपस्विनी स्वयंप्रभा की गुफा में वापस चले जाएं। वहाँ सब कुछ प्रचुर मात्रा में हैं। वहाँ हम अपना जीवन सुख से बिता सकते हैं। कोई ढूंढ़ता हुआ वहाँ नहीं आ सकेगा।"
उन लोगों की बात सुन कर हनुमान ने कहा,
"यह कैसी बातें कर रहे हो तुम लोग। ना तो आत्महत्या कर लेना उचित है और ना ही मुंह छिपा कर गुफा में सुख का जीवन बिताना कोई आदर्श स्थिति है। मेरी सलाह है कि हम महाराज सुग्रीव के पास लौट चलें और उन्हें सब बता दें। महाराज हमारी विवशता को अवश्य समझेंगे।"
हनुमान की बात सुन कर अंगद ने कहा,
"मुझे नहीं लगता है कि महाराज सुग्रीव हमारी विवशता समझेंगे। वह हमें इस असफलता के लिए दंड देंगे। उन्होंने मेरे पिता से उनका राज्य छीनने के लिए उनका वध करवा दिया। वह मुझे भी पसंद नहीं करते हैं। राम तथा लक्ष्मण के दबाव में ही उन्होंने मुझे युवराज बनाया है। मैं अब वापस नहीं जाऊँगा। यहीं पर भोजन तथा पानी छोड़ कर अपने प्राण त्याग दूँगा।"
यह कह कर अंगद एक निश्चय के साथ भूमि पर बैठ गया। अपने युवराज को इस प्रकार हिम्मत हार कर बैठे देख कर वानरों के हौंसले ने भी जवाब दे दिया। वह भी अपने प्राण त्याग देने के इरादे से बैठ गए।