Manas Ke Ram - 36 books and stories free download online pdf in Hindi

मानस के राम (रामकथा) - 36





मानस के राम
भाग 36


शुक व सारण द्वारा राम का संदेश लेकर जाना

दोनों गुप्तचर बार बार अपने किए की क्षमा मांग रहे थे। राम ने उन्हें समझाते हुए कहा,
"तुमने जो कुछ भी किया वह तुम्हारा कर्तव्य था। तुम लंका के राजा रावण के आधीन हो। अतः उनकी आज्ञा का पालन करना ही तुम्हारा धर्म है। तुमने अपने धर्म का पालन किया है। अब यहांँ से जाओ और अपने कर्तव्य को पूरा करो। यहांँ तुमने जो भी जानकारियां एकत्रित की हैं वह सब अपने स्वामी रावण को जाकर बता दो।"
शुक व सारण सहित वहाँ उपस्थित सभी लोग राम को बड़े आश्चर्य से देख रहे थे। राम के चेहरे पर एक मुस्कान थी। उसके पश्चात वह मुस्कान गायब हो गई। उनके चेहरे पर कठोरता आ गई। उन्होंने कहा,
"अपना कर्तव्य पूरा कर लेने के बाद लंकापति रावण को मेरा एक संदेश भी सुना देना। उससे कहना कि युद्ध मात्र छल बल से नहीं जीते जाते। युद्ध में सेनापति का कौशल ही काम नहीं आता है। क्योंकी विजय सदा उस पक्ष को मिलती है जो सत्य और धर्म पर अडिग रहकर युद्ध करता है। वह चाहे जितना भी छल कर ले किंतु पराजित होगा। क्योंकी वह अधर्म के साथ है।"
राम के चेहरे पर कठोरता थी। यह कठोरता उनके दृढ़संकल्प को दर्शा रही थी। उनकी वाणी में ओज था। उन्होंने कहा,
"रावण को मेरी यह चेतावनी भी दे देना कि मैं यह युद्ध केवल अपनी पत्नी के मान सम्मान के लिए नहीं लड़ रहा हूँ। अपनी पत्नी के साथ साथ विश्व की समस्त नारियों के सम्मान के लिए मैं उस आतातायी रावण का अंत करने आया हूँ। जिससे आने वाले युगों में यह संदेश मिल सके कि नारी की गरिमा के साथ खेल करने वालों का अंत ‌बुरा होता है।"
रावण को दी गई चेतावनी से राम ने युद्ध का शंखनाद कर दिया था। वहांँ उपस्थित सभी लोग जीत के लिए आश्वस्त हो गए थे।
राम को प्रणाम कर शुक व सारण वहाँ से चले गए।

रावण के सामने प्रस्तुत होकर शुक ने रावण को बताया कि किस प्रकार वह और सारण विभीषण की दृष्टि में आ गए। वानरों ने उन्हें बांधकर राम के समक्ष प्रस्तुत किया। सभी उन लोगों को मृत्युदंड दिए जाने के पक्ष में थे। किंतु राम ने उन पर दया दिखाएं और उन्हें क्षमादान दिया। शुक व सारण बार बार राम की प्रशंसा कर रहे थे कि वह कितने दयालु हैं। यदि उनके स्थान पर कोई और होता तो अवश्य ही उन दोनों के प्राण हर लेता।
अपने मंत्रियों के मुख से राम की प्रशंसा सुनकर रावण क्रोध में चिल्लाकर बोला,
"चुप करो कायरों। निर्लज्जों की भांति शत्रु का गुणगान कर रहे हो। ऐसा दिखा रहे हो जैसे कि बड़ी वीरता दिखाकर लौटे हो। इससे तो अच्छा होता कि तुम लोग वहीं अपने प्राण त्याग देते। मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उस द्रोही विभीषण की भांति तुम लोग भी उस वनवासी से मिल गए हो।"
रावण द्वारा लगाया गया लांछन सुनकर दोनों बहुत आहत हुए। उन दोनों के मन में राम के लिए प्रशंसा के भाव अवश्य थे। परंतु अभी भी अपनी मातृभूमि के लिए उनके मन में बहुत प्रेम था। शुक ने कहा,
"महाराज आप कृपया हम पर यह लांछन ना लगाएं। श्री राम ने हम पर उदारता दिखाई। इसके लिए हमारा मन उनके प्रति सम्मान से भरा है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम लंका के द्रोही हो गए हैं। हम अपने प्राण दे सकते थे। परंतु श्री राम ने ही हमें समझाया कि हमें आपके आदेश का पूर्ण पालन करना चाहिए। इसलिए हमने वानर सेना के बारे में जो कुछ भी पता किया है वह बताने हेतु आपके समक्ष प्रस्तुत हुए हैं।"
रावण को उनके द्वारा राम के लिए सम्मान सूचक शब्दों का प्रयोग अच्छा नहीं लग रहा था। उसने उन्हें डांटते हुए कहा,
"राम की प्रशंसा बंद कर यह बताओ कि तुम लोगों ने उनकी सेना के बारे में क्या पता किया ?"
शुक ने रावण को वानर सेना के बल और बुद्धि के बारे में बताया। उसने कहा कि वानर सेना में एक से बढ़कर एक वीर योद्धा हैं। सभी युद्धनीति व व्यूह रचना में सक्षम हैं। उसने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा,
"महाराज सबसे बड़ी बात तो यह है कि वानर सेना में हर योद्धा आत्मविश्वास से भरा हुआ था। मैंने उनके बीच किसी भी ऐसे वानर को नहीं देखा जिसके मन में विजय के लिए लेशमात्र भी संशय हो।"
शुक की हर एक बात रावण को चुभ रही थी। उसे वानर सेना की प्रशंसा तनिक भी नहीं सुहाई।‌ उसने कहा,
"तुम पुनः शत्रुदल की प्रशंसा करने लगे। सीधे सीधे सेना के बारे में उनके संगठन के बारे में बताओ।"
शुक ने रावण को विस्तार से वानर सेना और उसके बलशाली योद्धाओं के बारे में बताया।


रावण द्वारा युद्ध की तैयारी का आरंभ

शुक से वानर सेना के विषय में जानकारी प्राप्त करने के बाद रावण ने फिर से सभा बुलाई। दरबार में उसके सारे मंत्री उपस्थित हुए। उन सबको संबोधित करते हुए रावण ने कहा,
"आप सब जानते हैं कि आज इस सभा को बुलाने का हमारा उद्देश्य क्या है। शत्रु अपनी सेना के साथ लंका तक आ पहुंँचा है। अब हमें आगे की रणनीति के बारे में विचार करना होगा।"
कोई मंत्री कुछ बोलता उससे पहले ही माल्यवंत ने कहा,
"मैं एक बार फिर वही बात कहूँगा। युद्ध की रणनीति बनाने से पहले आवश्यक है कि उस कारण को ही समाप्त कर दिया जाए जिससे युद्ध की नौबत आई है। मेरा आग्रह है कि अभी भी सीता को वापस करके इस युद्ध को आरंभ होने से रोकने की व्यवस्था की जाए।"
माल्यवंत की बात सुनकर इंद्रजीत पुनः क्रोधित हो उठा। उसने कहा,
"महाराज मेरा आपसे निवेदन है कि यह समय व्यर्थ की बातों का नहीं है। इस समय आवश्यक है कि हम शत्रु को पराजित करने की योजना बनाने में अपनी शक्ति का व्यय करें। यदि कोई ऐसी बात करता है जो इस कार्य में बाधा उत्पन्न करे तो उसे राजद्रोही माना जाए। हम पहले भी व्यर्थ की बातों में बहुत सा समय गंवा चुके हैं। अतः अब केवल शत्रु को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई जाए।"
माल्यवंत ने अपने आसन से उठकर कहा,
"लंकापति रावण मैंने कभी भी अपने राज्य के साथ द्रोह करने के बारे में नहीं सोचा। किंतु आपका एक मंत्री होने के नाते और आपसे पारिवारिक संबंध होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है कि आपको जानते हुए भी विपत्ति के मुंह में ना जाने दूँ। इसलिए मैंने कई बार इस बात का प्रयास किया है कि आप मेरी बात को समझ कर आने वाली विपत्ति को टाल दें। परंतु यदि मेरी निष्ठा पर संदेह किया जाएगा तो मेरा यहांँ रहना उचित नहीं है।"
माल्यवंत ने रावण को प्रणाम किया और दरबार से चले गए। उनके जाने के बाद रावण अपने शेष मंत्रियों के साथ युद्ध की रणनीति पर विचार करने लगा। उसने कहा,
"मेरा मानना है कि हमें प्रथम आक्रमण नहीं करना चाहिए। हम उनकी तरफ से आक्रमण की प्रतीक्षा करेंगे। इससे हमें यह लाभ होगा कि हम उनकी युद्ध नीति के बारे में और भी अच्छी तरह से पता लगा सकेंगे।"
इंद्रजीत को यह सुझाव अच्छा नहीं लगा। उसने आपत्ति जताते हुए कहा,
"महाराज क्षमा चाहता हूंँ किंतु मुझे समझ नहीं आ रहा है कि हम क्यों चुपचाप बैठकर प्रतीक्षा करें। मुझे तो लगता है कि हमारी तरफ से प्रथम आक्रमण होना ही अच्छा होगा। हम उन पर आक्रमण कर उनकी सेना का नाश कर दें।"
रावण ने कहा,
"पुत्र मेघनाद हमारी सेना के प्रधान अध्यक्ष होने के नाते तुमने उसी के अनुकूल बात की है। परंतु मुझे लगता है कि लंका के परकोटे के भीतर रहने में ही हमारी स्थिति अधिक सुरक्षित होगी। वैसे भी हम लंका के अंदर अपना कार्य जैसे चला रहे हैं वैसे चलाते रहेंगे। उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। वह समुद्र तट के किनारे छावनी बनाकर रहे रहे हैं। उनके पीछे हिलोरें मारता हुआ विशाल सागर है। वह पीछे नहीं जा सकते हैं। आगे लंका का अभेद्य परकोटा है। उनके लिए हम पर आक्रमण करना आवश्यक होगा। यदि वह ऐसा करेंगे तो हम आसानी से अपनी रक्षा करते हुए उनकी सेना का नाश कर सकते हैं। हांँ हमें अपनी तरफ से युद्ध की तैयारी रखनी चाहिए।"
इंद्रजीत ने कहा,
"परंतु हम उन्हें अधिक समय क्यों दें। अपनी शक्ति से उन्हें कुचल कर उनके अस्तित्व को समाप्त कर दें। उसके पश्चात आराम से अपनी लंका में निवास करें।"
प्रहस्त अपने आसन से उठ कर बोला,
"मुझे तो महाराज का सुझाव अच्छा लगा। वह अधिक दिन तक प्रतीक्षा नहीं कर सकेंगे। यदि हम पर आक्रमण का प्रयास करेंगे तो सिर्फ लंका नगरी की प्रचीर से सर पटकने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगे।"
रावण ने कहा,
"जिस प्रकार शरीर कवच के अंदर सुरक्षित होता है। शरीर को नुकसान पहुंँचाने के लिए शत्रु को पहले कवच बेधना होता है। उसी प्रकार लंका नगरी का परकोटा हमारा कवच है। इसे तोड़ पाना शत्रु के लिए कठिन है। इसलिए उन्हें ही इस कठिन काम को करने देना चाहिए। हम क्यों अपने कवच से बाहर निकल कर जाएं।"
प्रहस्त ने रावण की बात सुनकर कहा,
"आपने अपनी बात बहुत सुंदर तरीके से समझाई है। हम अपने कवच के भीतर ही रहेंगे। परंतु लंका में प्रवेश के हर द्वार की रक्षा करते रहेंगे। जिससे शत्रु चाहे जिस दिशा से आए उसका सामना किया जा सके।"
शुक ने अपने स्थान पर खड़े होकर कहा,
"महाराज वानरों की छावनी में मौजूद हमारे गुप्तचर ने सूचना भिजवाई है कि उन लोगों ने अभेद्य गरुण व्यूह की रचना की है। आप तो जानते ही हैं कि गरुण को तोड़ पाना कितना कठिन है।"
रावण ने एक बार फिर उसे डांटते हुए कहा,
"जबसे उस वनवासी नर ने तुम्हें प्रान दान दिया है तुम उससे अधिक ही प्रभावित हो गए हो। वह मूर्ख चाहे कितने भी व्यूह रच डाले। परंतु उसने अपने विरुद्ध जिस व्यूह की रचना की है वह उसमें बुरी तरह फंस चुका है। वह और उसकी विशाल वानर सेना समुद्र के किनारे पड़े हैं। पीछे जाने के लिए उन्हें विशाल समुद्र को दोबारा पार करना होगा। आगे बढ़ने के लिए उन्हें लंका के प्रवेश द्वारों को तोड़ना होगा। और यह जी दोनों ही नहीं किए तो कितने दिन बिना रसद के उनकी सेना यहांँ छावनी डालकर रह पाएगी। उनके लिए तो ना अब पीछे हटने का रास्ता है और ना ही बैठकर प्रतीक्षा करने का। उन्हें तो हर हाल में लंका पर आक्रमण करना पड़ेगा।‌ उस समय जब वह लंका की प्राचीर तोड़ कर आने का प्रयास करेंगे हम उन्हें घेरकर उन पर आक्रमण कर उनकी कमर तोड़ देंगे।"
इंद्रजीत सहित सभी मंत्रियों को रावण की यह योजना अच्छी लगी। उसके बाद रावण अपने मंत्रियों के साथ इस बात पर विचार करने लगा कि उन्हें अपनी आंतरिक सुरक्षा किस प्रकार करनी है। किस द्वार की सुरक्षा में किसे लगाया जाए। युद्ध की स्थिति उत्पन्न होने पर उन्हें किस प्रकार की रणनीति अपनानी है। कुछ देर के विचार विमर्श के पश्चात सारी बात तय हो गई। रावण ने सबको उनका उत्तरदायित्व सौंपते हुए कहा,
"लंका के प्रमुख सेनाध्यक्ष का पद इंद्रजीत के पास ही बना रहेगा। इंद्रजीत ने अपने बल से कई बार देवताओं को परास्त किया है। इंद्रजीत के रहते हुए हमारी सेना की विजय सुनिश्चित हो जाएगी।"
इंद्रजीत ने अपने स्थान पर खड़े होकर कहा,
"धन्यवाद महाराज, मैं यह प्रण लेता हूँ कि मेरे जीते जी शत्रु कभी भी लंका पर विजय प्राप्त नहीं कर पाएगा।"
रावण ने कहा,
"मुझे इस बात का पूर्ण विश्वास है। अब सभी द्वारों की सुरक्षा के लिए जो तय हुआ है उसके अनुसार पूर्व दिशा की ओर के प्रमुख प्रवेश द्वार पर राजकुमार प्रहस्त अपने सैनिकों के साथ तैनात रहेंगे। पश्चिमी द्वार की सुरक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसे इंद्रजीत संभालेंगे। दक्षिण द्वार की सुरक्षा के लिए माहापार्श्व और महोदर तैनात रहेंगे। उत्तर के द्वार पर मैं स्वयं तैनात रहूंँगा। विरुप्क्ष को नगर की आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा सौंपा जाता है।"
इस प्रकार सब अपने अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए लंका की रक्षा करने लगे।