Anmol Saugat - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

अनमोल सौगात - 7

भाग ७

नीता को जौनपुर पहुँचे एक हफ्ता बीत चुका था। नीता बहुत उदास थी। दिन रात रोती रहती थी। शशिकांतजी ने अपने माता पिता को सब बात बताकर हिदायत दी थी कि वे लैंडलाइन फ़ोन पर ताला लगा दे। अपने ट्रांसफर के लिए भी वे प्रयासरत थे।

आज किस्मत नीता के साथ थी। उर्मिला और नीता के दादा दादी मंदिर गए हुए थे। वह हॉल में अकेले बैठे हुए रवि के बारे में सोच रही थी। तभी फोन की घंटी बजी। नीता ने फ़ोन उठाया और बेमन से हैलो बोला।

"हैलो नीता! मैं रवि।" रवि की आवाज़ सुनकर नीता के आँखों से आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा।

"हैलो रवि ! रवि तुम कैसे हो?" नीता ने पूछा।

"तुम्हारे बिना कैसा हो सकता हूँ? उस दिन के बाद मैंने तुम्हारे यहाँ कई बार फोन लगाया। संध्या से पता चला कि तुम जौनपुर में हो। संध्या ने बड़ी मुश्किल से तुम्हारा नंबर लेकर मुझे दिया। मैं कई दिन से फोन लगा रहा था किन्तु तुमसे बात ही नहीं हो पा रही थी।" रवि ने एक साँस में सारी बातें कह डाली।

 

"हाँ रवि, पता नहीं पापा के मन में क्या चल रहा है? उन्होंने उसी दिन शाम की ट्रेन से मम्मी के साथ मुझे यहाँ भेज दिया। यहाँ भी फोन पर ताला लगा हुआ है। मैं अकेले बाहर भी नहीं जा सकती। मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। पता नहीं कब जबलपुर लौटना होगा? अभी घर पर कोई नहीं है इसलिए तुमसे बात कर पा रही हूँ।" नीता ने रवि को सब कुछ बताया।

 

"हाँ नीता, पता नहीं हमारे माता पिता क्यों नहीं समझ रहे कि हमारी खुशी एक दोनों के साथ है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा कि कैसे उन्हें मनायें। तुम्हारे लौटते ही तय करेंगे कि क्या करना है। तुम अपना ध्यान रखना।" रवि ने लाचार होते हुए कहा।

 

"हाँ मैं भी उस दिन का ही इंतज़ार कर रही हूँ कि कब वापस आऊँ और तुमसे मिल सकूँ। तब तक तुम कभी कभी फोन कर लेना ताकि एक दूसरे की आवाज़ ही सुन सके।" नीता ने भावुक होते हुए कहा।

 

रवि और नीता ने भारी मन से फोन रखा।

 

कुछ दिनों तक फोन पर एक दूसरे की आवाज़ सुनकर ही दोनों खुश होते रहे लेकिन ये सिलसिला भी एक दिन खत्म हो गया जब अचानक उर्मिला ने आकर नीता से कहा, "नीता! अपनी पैकिंग चालू कर दो। हमें कल रवाना होना है।"

 

नीता खुशी से उछल पड़ी, "सच मम्मी! हम जबलपुर वापस जा रहे हैं?"

 

"नहीं! हम अहमदाबाद जा रहे हैं। तुम्हारे पापा का ट्रांसफर और प्रमोशन भी हो गया है। वे वहाँ पहुँच गए हैं।" उर्मिला ने अलमारी से कपड़े निकालते हुए कहा।

 

"अहमदाबाद? अचानक प्रमोशन और ट्रांसफर? पापा ये सब जान बूझकर कर रहे हैं ताकि मैं रवि से नहीं मिल सकूँ ना? लेकिन आप लोग यह सब करके रवि के प्रति मेरे प्यार और मेरी भावनाओं को नहीं बदल सकेंगे।" नीता ने गुस्से में कहा।

 

तीसरे दिन शशिकांतजी अहमदाबाद स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे। जैसे ही उर्मिला नीता के साथ प्लेटफार्म पर उतरी, वे बहुत खुश हुए। नीता ने उनके पैर छुए पर वो क्रोध और उदासी से भरी थी।

 

"इस नए शहर में तुम दोनों का स्वागत है।" उन्होंने उत्साहित स्वर में कहा। नीता ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

 

उर्मिला ने परिस्थिति की नाजुकता को भाँपते हुए बात संभाली, "हम लोग इतने लम्बे सफर से थक गए हैं। घर चलकर आराम से बात करेंगे।"

 

सब लोग घर पहुँचे। सरकारी कॉलोनी में पहले से भी बड़ा क्वार्टर मिला था उन्हें। वे उर्मिला को पूरा घर दिखा रहे थे। गार्डन, गाड़ी, नौकर-चाकर दिखाकर शायद नीता को रवि के स्तर का एहसास करा रहे थे लेकिन नीता अपना बैग लेकर अपने कमरे में चली गयी। शशिकांतजी स्टेशन से लेकर अब तक नीता के तेवर को महसूस कर रहे थे।

 

"उर्मिला ! क्या ये अभी तक उस लड़के को भूली नहीं? उसके संपर्क में है क्या? शशिकांतजी ने पूछा।

 

उर्मिला ने आश्वस्त किया, "नहीं नहीं! उसके संपर्क का अब कोई साधन ही नहीं है। और अब यहाँ आकर तो धीरे धीरे भूल ही जाएगी।"

 

"जितना जल्दी हो सके उसे इन सब बातों से बाहर आना होगा। मेरे एक मित्र ने यहाँ पर अपने ही बिरादरी के एक लड़के के बारे में बताया है। बहुत बड़ा व्यापार है। घर परिवार सब बहुत अच्छा है।" शशिकांतजी ने उर्मिला को लड़के और परिवार के बारे में बताया।

 

"लेकिन इतनी जल्दी क्या है? अभी तो यह पहला ही रिश्ता है। हम और भी अच्छे रिश्ते की तलाश करेंगे।" उर्मिला को शशिकांतजी की यह जल्दबाजी अच्छी नहीं लगी।

 

"जल्दी? ये तुम कह रही हो? अपनी बेटी के तेवर नहीं देख रही हो? वह और कुछ उल्टे कदम उठाये इसके पहले उसकी शादी करना जरूरी है। और फिर घर, परिवार, लड़का, व्यापार सब अच्छा है तो फिर क्या देखना बचता है? तुम अब तैयारी में लग जाओ। मैं उन्हें जल्दी ही आमंत्रित करूँगा और अगर नीता उन्हें पसंद आती है तो शीघ्र ही सगाई कर देंगे।" शशिकांतजी ने उर्मिला की किसी भी बात को तवज्जो दिए बिना अपना निर्णय सुना दिया।

 

नीता इन सब बातों से बेखबर अपने कमरे में बैठे सोच रही थी कि कैसे रवि से संपर्क करे और उसे अपने अहमदाबाद आने की खबर करे। रवि के साथ अब तक बिताये सारे पल किसी फिल्म की भाँति उसकी आँखों के सामने घूम रहे थे।

 

उधर रवि ने तीन दिन में कई बार नीता को जौनपुर फोन लगाया किंतु हर बार निराशा ही हाथ लगी। उसे लगा शायद नीता लौट आयी हो इसलिए उसके घर पर फोन लगाया किंतु वह भी बंद आ रहा था। रवि उसके घर पर भी जाकर आया पर वहाँ भी गेट पर ताला लटका हुआ था। यह सब देखकर उसका माथा ठनका। जौनपुर और जबलपुर के अलावा वह कहाँ हो सकती है?

 

वह अपने पिता के ऑफिस पहुँचा। उसे अचानक वहाँ देखकर बृजभूषणजी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, "रवि तुम? क्या बात है? अचनाक ऑफिस में कैसे आना हुआ?"

 

"आप बताईये कि बात क्या है आखिर? नीता के घर पर ताला है। फोन भी बंद आ रहा है। मैं उसके पिताजी से मिलने आया हूँ। कहाँ हैं वो?" रवि ने अधीर होते हुए कहा।

 

बृजभूषणजी ने उसे शांत करते हुए कहा, "मैंने तुम्हें पहले ही कहा था कि ये रिश्ता संभव नहीं है। पांडेजी ने अहमदाबाद ट्रांसफर ले लिया है। अब तुम भी अपने काम पर ध्यान दो और उस लड़की को भूल जाओ।"

 

"अहमदाबाद! ये आप क्या कह रहे हैं?" रवि ने गुस्से से काँपते हुए कहा और ऑफिस से बाहर निकल गया।

 

दोनों के प्यार का चाँद बिरादरी और प्रतिष्ठा के काले बादलों में छुप गया।