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एलओसी- लव अपोज क्राइम - 2



" दीदी, आज सुबह....!"
दीपक कुछ और बोलता कि इतने में नंदिनी के मोबाइल की घण्टी बज उठी।
" दीपक, एक जरुरी कॉल है। मैं बात करके आती हूँ। तब तक तुम इसे खाओ।" यह कहकर नंदिनी ने फल व ड्राईफ्रूट की प्लेट उसकी तरफ बढ़ा दी।
" ठीक है दीदी। आप बात करके आओ। मैं आपका इंतजार करता हूं।"
"ओके, भाई।" नंदिनी ने दीपक के सर पर प्यार से हाथ रखा और कमरे से बाहर निकलकर वह बालकनी पहुंची।
" हां, नितिन! बोलो। कुछ पता चला उसका? कहां है वो?"
" नंदिनी, हर जगह खोजा। उसके गांव भी। पर कोई पता नहीं चला। सिर्फ इतना मालूम पड़ा है कि उसने शादी कर ली है। लेकिन, किससे की, कब की? यह सब नहीं पता चल पाया। नंदिनी...मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर क्या हो रहा है? नितिन की आवाज तनाव से भरी थी। उसमें कुछ न कर पाने की बेचारगी के भाव को नंदिनी ने साफ महसूस किया।
" नितिन, प्लीज! कैसे भी करके पता लगाओ। यह काम तुम्हीं कर सकते हो! मैं तुम पर ही भरोसा कर सकती हूं। तुम समझ रहे हो न मेरी बात!"
" हां, नंदिनी! मैं समझ रहा हूं। मैं पुलिस इंस्पेक्टर बाद में हूं। पहले तुम्हारा दोस्त हूं। स्कूल टाइम का। तभी से जनता हूं तुम्हें। मैं नहीं समझूंगा तो कौन समझेगा तुम्हे...?.. नंदिनी, तुम टेंशन मत लो। मैं लगा हुआ हूं। जल्दी ही उस धोखेबाज को खोजकर तुम्हारे सामने खड़ा कर दूंगा। ये मेरा वादा है तुमसे। वो दुनिया के किसी भी कोने में छुपा रहे, एक न एक दिन उसे पकड़ ही लूंगा मैं।.... बकरे की माँ आखिर कब तक खैर मनाएगी?"
" सही है, नितिन। एक तुम्हीं मेरी मदद कर सकते हो। हर बार तुमने ही मेरी मदद की है। बचपन से लेकर आज तक हर बार तुम्हें मैंने अपने साथ पाया है। नितिन, दोस्त हो तो तुम्हारे जैसा!" नंदिनी का स्वर भर्रा गया।
" बस कर पगली! बस। तुमने तारीफ का पुल कुछ ज्यादा ही बांध दिया। तुम हिम्मत न हारो। मैं हूँ तुम्हारे साथ। हमेशा।" नितिन की आवाज की गंभीरता नंदिनी को गहरे तक छू गई।
" तुम साथ हो तो क्यों हिम्मत हारना... ।" तब तक नंदिनी को किसी की आहट सुनाई दी। शायद कोई बालकनी की ओर आ रहा था। नंदिनी ने पीछे मुड़कर देखा तो उसका डॉगी था।
नंदिनी की सांस में सांस आई। तब तक डॉगी उसके पास आ गया । डॉगी को सहलाते हुए उसने अपनी बात फिर से शुरू की- " नितिन, कुछ भी करो। प्लीज, उसका पता लगाओ।"
" जरूर, नंदिनी। मैं उसी काम में लगा हुआ हूं। चलो, अब तुम आराम करो। रात बहुत हो चुकी है।....टेक केयर।" कहकर नितिन ने फोन काट दिया।
नंदिनी दीपक के कमरे में गई। वह इन्तजार कर रहा था। नंदिनी बेड पर बैठ गई और पूछा- "फल खा लिया न तुमने?"
" हां, दीदी। खा लिया।" कहकर दीपक खिड़की की ओर देखने लगा।
नंदिनी ने दीपक का हाथ सहलाते हुए कहा, "अब बताओ, क्या हुआ था?"
" दीदी, आज सुबह मां कमरे में आई थीं। उनको लगा कि मैं सो रहा हूं। उस समय मां के फोन की घण्टी बजी। मां ने फोन उठाया........।"
" नंदिनी बेटा....।" दीपक इस आवाज को सुनते ही चौंक पड़ा। उसकी जबान बंद हो गई। दरवाजे पर मां खड़ी थी। नंदिनी भी पल भर के लिए घबरा सी गई पर उसने जल्दी ही बात को संभालते हुए कहा-" बस, इतनी सी बात भाई! मैं कल ही तुम्हारे लिए वाइट शर्ट ला दूंगी।"
" थैंक यू सो मच दीदी।" दीपक भी तब तक संयत हो चुका था।
मां बेड तक चली आई...." दीपक बेटा, इसके लिए नंदिनी को परेशान करने की क्या जरूरत थी? मुझे बोलता तो मैं मंगवा देती।... खैर, बहुत रात हो गई है। अब तुम सो जाओ।" फिर वे नंदिनी के कंधे पर हाथ रखकर बोली, " नंदिनी, आओ मेरे साथ। तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है।" मां ने नंदिनी का हाथ पकड़ा और उसे अपने साथ ले जाने लगी कि नंदिनी अपना हाथ झटके से छुड़ाते हुए बोल पड़ी- " आप चलो, मैं आ रही हूं।" नंदिनी के हाव भाव में गुस्से की छाया थी।
मां बेटी दोनों ड्राइंग रूम में आए। मेहमान कभी के जा चुके थे। सोफे के सामने की टेबल पर एक फाइल पड़ी थी। शायद उसमें नंदिनी के लिए एड फ़िल्म व पार्टनरशिप के ऑफर थे। वहां की सारी लाइटें बंद थी, सिर्फ एक छोटा सा बल्ब जल रहा था। उसकी रोशनी में वो फाइल अपनी मौजूदगी का सुबूत दे रही थी।
मां बेटी दोनों सोफे पर बैठ गई। उस फाइल की मौजूदगी नंदिनी को परेशान कर रही थी। उसका मन फाइल को उठाकर फेंक देने को कह रहा था, पर वह शांत बैठी रही।इंसान कहां सब कुछ अपने मन का कर पाता है। वह तो परिस्थितियों का गुलाम होता है। कई बार उसे अपने मन को मार देना पड़ता है। कई काम उसे बेमन से करने पड़ते हैं।
खामोशी व गुस्से के साथ नंदिनी यही सोचकर बेबसी से अपनी उंगलियां चटका रही थी।मां ने लाइट चालू कर दिया। पूरा हॉल रोशनी से नहा उठा। रोशनी में नंदिनी के चेहरे के गुस्से व बेबसी को साफ पढा जा सकता था। उसे अशोक आनन की ग़ज़ल के कुछ शेर याद आ रहे थे-
' जो बचा न सकी आज तक हमें
तार-तार शॉल सी लगती है जिंदगी।
भाग्य के किवाड़ सभी हैं जड़े- जड़े
बाढ़ और अकाल सी लगती है जिंदगी।'
नंदिनी का विचार क्रम मां ने भंग किया।
" नंदिनी बेटा! बहुत अच्छा ऑफर है। एक बार देख तो लो। यह प्रोजेक्ट हो गया तो हमारी सारी प्रॉब्लम्स साल्व हो जाएंगी।" कहते हुए मां ने टेबल से फाइल उठाकर नंदिनी के हाथ में पकड़ा दिया।
" हूं...।" नंदिनी सिर्फ इतना ही कह पाई।
" बेटा, इस ऑफर पर सीरियसली सोचो। अपने पिता जी को तो तुम जानती ही हो।"
" बहुत अच्छी तरह से जानती हूं। इस घर में सिर्फ उनकी ही अच्छाइयां मुझे मोटिवेट करती हैं।"
" मैं भी तो तुम्हारा भला चाहती हूं बेटा।"
" मुझे पता नहीं, आप मेरा कैसा भला चाहती हो? आप तो नहीं चाहती भला।" नंदिनी का आक्रोश फूट पड़ा। उसने फाइल टेबल पर फेंक दी।
" बेटा, ये क्या कर रही हो तुम!" ये आवाज नंदिनी के पिता की थी। नंदिनी की गुस्से भरी आवाज सुनकर वे भी ड्राइंगरूम पहुंच गए थे। उन्होंने फाइल उठाया और उसे नंदिनी को देते हुए बोले- " बेटा, इतना बढ़िया ऑफि ठुकराया नहीं करते। उस पर साइन करते हैं। साइन।"
राजमल ने मेज पर पड़ी हुई एक पेन उठाकर नंदिनी को पकड़ा दी- " चलो साइन करो इस पर।"
नंदिनी मूर्तिवत शून्य में देखती रही।
" जल्दी साइन करो, बेटा!" उनकी आवाज स्नेह से पगी थी।
नंदिनी ने मां की तरफ देखा। उनके चेहरे पर सहमतिनुमा धमकी के भाव थे- ' साइन तो तुम्हें करना ही होगा, नंदिनी।' मां की भावशून्य आंखों में नजर आ रही इस इस चेतावनी को नंदिनी ने साफ महसूस किया। उसने यंत्रवत फ़ाइल खोली, उस पर साइन कर दिया।

* * *
राजमल और ममता ने एक दूसरे की ओर मुस्कुराते हुए देखा। उनकी मुस्कान में जीत का संकेत था। राजमल फाइल लेकर चले गए। उनकी चाल में बेटी के प्रति स्नेह व गर्व नंदिनी को साफ साफ दिख रहा था। नंदिनी ने मां की तरफ देखा। वह समझ नहीं पा रही थी कि 'ऐसा क्यों हो रहा है? कब तक ऐसा चलेगा?' मां नंदिनी की तेज नजरों का सामना न कर सकी। वे उठ खड़ी हुई। वहां से जाते हुए उन्होंने कहा-
" जा बेटा, अब सो जा। रात बहुत हो चुकी। सुबह फाइल देने भी जाना है।"
नंदिनी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ममता वहां से चली गई। जाते समय उन्होंने ड्राइंगरूम की लाइट बंद कर दी। नंदिनी वहीं बैठी रह गई।
अंधेरे में। अपने अकेलेपन के अहसास के साथ।

* * *

कुछ समय बाद नंदिनी ने दीपक के कमरे में जाकर देखा।.. तब तक वी भी नींद के आगोश में समा चुका था। मन तो नंदिनी का बहुत हुआ कि उसे उठाए, उससे बातें करे। पर भाई को सुकून से सोते देखकर नंदिनी ने अपने मन पर काबू पाया। वह अपने कमरे में जाने की बजाय टैरेस पर चली गई।
तारों भरा आकाश, अंधेरी रात और नंदिनी का अकेलापन उस समय एकाकार होने लगे। काफी देर तक वह टैरेस पर टहलती रही। उसकी सोचने- विचारने की शक्ति खत्म हो गई। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। वह निरुद्देश्य टहलती रही। ठंडी- ठंडी हवाएं उसके एकांतिक सोचों की दुनिया को डिस्टर्ब न कर सकीं। वह कुछ देर के लिए झूले पर बैठकर उसमें लगी नकली पत्तों वाली बेल को देखती रही। उससे खेलती रही। उसके पत्तों को छूती रही। छूते छूते उसे पता नहीं क्या हो गया। उसने पूरी बेल को खींचकर तोड़ डाला। उसने बेल को फेंक दिया।
शायद इसी तरह से अभी ने उसकी जिंदगी के साथ खेलकर, मसलकर, उसे तोड़कर फेंक दिया था।
'पर ऐसा क्यों किया अभिनव ने, क्यों?'
* * *