Manas Ke Ram - 50 books and stories free download online pdf in Hindi

मानस के राम (रामकथा) - 50





मानस के राम

भाग 50



इंद्रजीत की मृत्यु पर शोक

जब इंद्रजीत की मित्र का समाचार लंका पहुँचा तो लंका वासियों में हलचल मच गई। एक तरफ तो उनमें अपने युवराज की मृत्यु का शोक था तो दूसरी ओर इस बात का भय था कि राक्षस जाति का विनाश अब निकट है। जिसने इंद्रजीत जैसे वीर योद्धा का वध कर दिया वह साधारण नर नहीं हो सकते हैं।
रावण ने जब यह समाचार सुना तो वह अंदर से हिल गया। परंतु अभी भी उसका अहंकार सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता था। वह अपने आप को झूठे दिलासे देकर यह मनाने का प्रयास कर रहा था कि जो कुछ उसने सुना है वह सच नहीं हो सकता है। परंतु अपनी आप को भुलावे में रखना उसके लिए कठिन था। उसकी पटरानी मंदोदरी का विलाप और पुत्रवधू सुलोचना का आंसुओं से भींगा चेहरा सच्चाई को उसके सामने रख रहा था।
रावण ने इस युद्ध में अपने कई पुत्रों और वीर योद्धाओं की बलि दी थी। पर आज उसे ऐसा लग रहा था कि उसकी एक भुजा ही कट गई हो। उसका ह्रदय वेदना से फटा जा रहा था। अब उसे इस बात का अनुभव हो रहा था कि उससे भूल हो गई है। परंतु अब बहुत देर हो गई थी। अब युद्ध को अंत तक ले जाने के अतिरिक्त कोई और उपाय नहीं बचा था।

लक्ष्मण की विजय से वानर सेना का उत्साह कई गुना बढ़ गया था। सभी वानर इस बड़ी जीत की खुशियां मना रहे थे। लक्ष्मण ने राम के सामने प्रकट होकर उन्हें प्रणाम करके कहा,
"भ्राताश्री आपके आशीर्वाद से मैंने इंद्रजीत का वध कर दिया। परंतु यह एक वीर योद्धा था। शत्रु होते हुए भी इसके प्रति मेरे मन में आदर का भाव है।"
राम ने अपने अनुज लक्ष्मण को प्रशंसा भरी दृष्टि से देखकर कहा,
"लक्ष्मण एक सच्चे वीर की यही पहचान है कि वह अपने शत्रु को भी पूरा आदर देता है।"
सुग्रीव ने कहा,
"इस विजय ने युद्ध को बहुत ही निर्णायक मोड़ पर खड़ा कर दिया है।"
राम ने कहा,
"मित्र यह आपके सहयोग के कारण ही संभव हो सका है।"
सुग्रीव ने विनीत भाव से उनके सामने हाथ जोड़ दिए। राम ने पास खड़े विभीषण से कहा,
"आपने भी बहुत सहायता की है। अब हमारी बारी है आपको दिए गए वचन को पूरा करने की। हम अपना वचन अवश्य पूरा करेंगे।"
विभीषण ने कहा,
"मुझे आपकी सफलता पर कोई भी संदेह नहीं है। इंद्रजीत की मृत्यु से रावण को बहुत धक्का लगा होगा। परंतु अपने अहंकार के कारण वह अभी भी अपनी भूल को स्वीकार नहीं करेगा।"
जांबवंत ने आकर कहा,
"इंद्रजीत का पार्थिव शरीर हमारे पास है। उसका क्या करना है ? वानर उसे देखकर बहुत क्रोध में हैं। वह चाहते हैं कि शव उन्हें सौंप दिया जाए। ताकि वह उसे क्षत विक्षित कर अपने क्रोध को शांत कर सकें।"
राम ने कहा,
"ऐसा नहीं होना चाहिए। यह एक वीर का शव है। इसके शव को उचित सम्मान मिलना चाहिए। इंद्रजीत के शव को पूरे सम्मान के साथ लंका के द्वार पर रख दिया जाए जिससे वह उसके परिजनों तक पहुँच सके।"
राम की आज्ञा के अनुसार हनुमान इंद्रजीत के शव को लंका के प्रवेशद्वार पर रख आए।

इंद्रजीत का शव लंका पहुँचने पर एक बार फिर शोक की लहर दौड़ गई। सभी की आँखें नम थीं। इंद्रजीत की पितृभक्ति के लिए सम्मान था। लंका की वीथियों से होता हुआ रावण के पास पहुँचा।
अपने पुत्र के शव को देखकर रावण का मन क्रोध की अग्नि में जल उठा। उसने मन ही मन शपथ ली कि वह इंद्रजीत के वध का प्रतिशोध लेकर ही रहेगा।
रावण ने तय कर लिया कि युद्धभूमि में जाने से पहले वह तांत्रिक क्रियाओं द्वारा अपनी सोई हुई तांत्रिक शक्ति को जगाएगा।

अगस्त्य ऋषि द्वारा आदित्य ह्रदय स्त्रोत का ज्ञान देना

अगस्त्य ऋषि ध्यान में मग्न थे। तब उन्हें देवताओं द्वारा आदेश मिला कि वह राम के पास जाकर उन्हें आदित्य ह्रदय स्तोत्र की शिक्षा दें। ऋषि अगस्त्य देवताओं के आदेश पर राम के पास पहुँचे।
राम ने ऋषि अगस्त्य का उचित सत्कार कर उन्हें आसन दिया। उसके बाद हाथ जोड़कर नम्रता से पूँछा,
"ऋषिवर युद्ध क्षेत्र में आपका आगमन अवश्य ही किसी विशेष प्रयोजन से हुआ होगा ? कृपया अपने आने का कारण बताएं।"
ऋषि अगस्त्य ने कहा,
"हे राम अब युद्ध अपने अंतिम चरण में पहुँच गया है। अब आपका सामना त्रिलोक विजयी रावण से होगा। अतः मैं आपको आदित्य ह्रदय स्तोत्र का ज्ञान प्रदान करने के लिए आया हूँ। यह एक सनातन ज्ञान है। आदित्य ह्रदय स्तोत्र आपको शक्ति व शौर्य प्रदान करेगा। यह सुरक्षा कवच बनकर सभी सभी मायावी आसुरी शक्तियों से आपकी रक्षा करेगा। यह युद्ध मानव कल्याण हेतु धर्म की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा है। आदित्य ह्रदय स्तोत्र आपको आपके उद्देश्य में सफल बनाएगा।"
राम ने हाथ जोड़कर कहा,
"ऋषिवर कृपया मुझे वह परम ज्ञान प्रदान करने की कृपा करें।"
राम ऋषि अगस्त्य के सामने भूमि पर बैठ गए। ऋषि अगस्त्य ने उनसे कहा कि वह उनके साथ साथ आदित्य ह्रदय स्तोत्र का उच्चारण करें। ऋषि अगस्त्य आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ कर रहे थे। राम उनके साथ उसे दोहरा रहे थे।
आदित्य ह्रदय स्तोत्र का ज्ञान प्राप्त कर राम अपने ह्रदय में एक नई स्फूर्ति का अनुभव कर रहे थे।

रावण भी युद्धभूमि में जाने से पहले अपने आराध्य देव शिव की आराधना कर रहा था।

रावण का युद्धभूमि में जाना

रावण युद्धभूमि में जाने के लिए तैयार हो रहा था। इस युद्ध में अपने वंश की संतानों और कई वीर योद्धाओं के वीरगति को प्राप्त करने का दुख उसके मन को परेशान कर रहा था। उसी समय मंदोदरी अपने अंतिम प्रयास के लिए उसके पास आकर बोली,
"हे नाथ लंका का आधार अब आप ही बचे हैं। आप भी युद्धभूमि में जा रहे हैं। आपकी वीरता पर मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। परंतु अब तक जो घटित हुआ है उसके कारण ह्रदय व्याकुल हो रहा है। इसलिए एक बार फिर आपसे निवेदन करने आई हूँ कि अभी भी समय है। सीता को सम्मानपूर्वक श्री राम को वापस कर युद्ध को समाप्त कर दीजिए।"
मंदोदरी की बात सुनकर रावण हंसकर बोला,
"महारानी मंदोदरी आप कहती हैं कि आपको मेरी वीरता पर संदेह नहीं है। फिर भी आप मुझे वह सुझाव दे रही हैं जो मेरे सम्मान को मिट्टी में मिला दे। महारानी मंदोदरी अब यह युद्ध किसी भी कीमत पर नहीं रुक सकता है। इस युद्ध के लिए मेरे पुत्रों और कई महाभट योद्धाओं ने प्राण निछावर किए हैं। मैं उनके बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने दे सकता। आप मुझसे यह अपेक्षा ना रखें।"
रावण के नाना माल्यवंत ने भी अंतिम प्रयास करते हुए समझाया,
"जो बीत गया है उसे तो नहीं बदला जा सकता है। परंतु समझदारी दिखाकर आने वाले भविष्य के बारे में सोचा जा सकता है। तुम आने वाले भविष्य के विषय में सोचो। सुलह करके अपने तथा राक्षस जाति के भविष्य की रक्षा करो।"
रावण ने कहा,
"नानाजी मैं कायरता दिखाकर अपने भविष्य की रक्षा नहीं करना चाहता हूँ। अब या तो मैं राम का वध करूंँगा। अन्यथा रणभूमि में वीरगति को प्राप्त होऊँगा। यदि राम सचमुच नारायण का अवतार है तो उसके हाथों मृत्यु पाकर मैं मोक्ष को प्राप्त करूँगा।"
अपना अंतिम निर्णय सुनाकर रावण दृढ़ संकल्प के साथ युद्धभूमि के लिए अग्रसर हुआ।
रावण के लिए अब एक ही चीज़ का महत्व रह गया था। अपने तथा अपनी मातृभूमि लंका के सम्मान की रक्षा करना। वह किसी भी कीमत पर अब युद्ध से पीछे नहीं हट सकता था। उसके सामने विशाल सेना खड़ी थी। रण में जाने से पहले वह अपने सिपाहियों में एक नई स्फूर्ति एक नया उत्साह भर देना चाहता था। वह उनके हृदय में लंका के सम्मान की रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने की भावना का संचार करना चाहता था। इसलिए युद्धभूमि में जाने से पहले उसने अपनी सेना को संबोधित करते हुए कहा,
"लंका के वीर योद्धाओं यह समय हमारी मातृभूमि के लिए अत्यंत कठिन है। यह हमारे धैर्य और राष्ट्रप्रेम की परीक्षा की घड़ी है। शत्रुपक्ष आज अपनी सफलताओं पर फूला नहीं समा रहा है। उन्होंने इस महान राक्षस जाति के कई महान योद्धाओं का संहार किया है। इंद्र को भी जीत लेने वाले मेरे वीर पुत्र इंद्रजीत का भी वध कर दिया। इस समय हमारी सेना का मनोबल कमजोर है। परंतु यही परीक्षा की घड़ी है। जब परिस्थिति विपरीत हो तो साहस दिखाना ही एक वीर योद्धा की निशानी होता है। आप सभी वीर योद्धा हैं। आज आप रावण के लिए युद्ध करने नहीं जा रहे हैं। अपितु अपनी जाति अपने राष्ट्र के सम्मान की रक्षा के लिए युद्ध करने जा रहे हैं। आज का दिन स्वयं का बलिदान देने का ही दिन है। किंतु जो इस बलिदान से डर रहा हो वह इस सेना के साथ युद्ध भूमि में ना जाए। मेरी तरफ से उसे इस सेना से अलग हो जाने की पूरी छूट है। मेरे साथ आज जो भी योद्धा युद्ध भूमि में जाएगा उसका एक ही लक्ष्य होगा। अपने आत्म सम्मान अपने राष्ट्र के सम्मान की रक्षा करना।"
रावण के इस संबोधन ने उसकी सेना में राष्ट्र स्वाभिमान की ज्वाला जगा दी थी। सैनिकों के मन में एक नए उत्साह का संचार कर दिया था।
सैनिक जय लंकेश के नारे लगा रहे थे। उन नारों की गूंज वानर सेना के शिविर तक पहुंँच रही थी। उन्हें इस बात का समाचार मिल गया था कि रावण युद्ध का निर्णय करने आ रहा है।

वानर सेना में भी उत्साह की कोई कमी नहीं थी। सभी उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे जब राम रावण का संहार कर सीता माता को उसकी कैद से मुक्त कराएंगे।
राम सदैव की भांति सौम्य व शांत थे। वह महापराक्रमी रावण के साथ युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार थे।
राम के सामने वानर और रीछों की सेना एक विशाल सागर की भांति खड़ी थी। उनके उत्साह से राम को भी ऊर्जा मिल रही थी। वह जानते थे कि जो भी सफलता मिली है उसमें वानर और रीछों का महत्वपूर्ण योगदान है। राम के हृदय में उनके प्रति कृतज्ञता का भाव था। उन्होंने अपने सम्मुख खड़ी सेना को संबोधित करते हुए कहा,
"वानर और रीछ वीरों मैं आपके योगदान के लिए आभार व्यक्त करता हूँ। आप सभी का शौर्य था जिसने विशाल सागर को बांधकर सेतु का निर्माण किया। जिसके कारण हम अपनी पत्नी सीता को मुक्त कराने के लिए लंका पर आक्रमण कर सके। अब तक आप सभी ने अद्वितीय साहस का परिचय दिया है। लंका को बहुत हानि उठानी पड़ी है। लंकापति रावण के भाई, पुत्र और योद्धाओं को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी है। लंकेश के पास अब कोई भी नहीं बचा है। इसलिए अब वह स्वयं इस युद्ध की समाप्ति के लिए आ रहा है। आप सभी अपने उत्साह को इसी प्रकार बनाए रखें। लंका पर विजय प्राप्त कर यहांँ धर्म की पताका फहराएं।"
वानरों तथा रीछों ने हर हर महादेव के नारों से बता दिया कि वह पूरी तरह तैयार है।