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मानस के राम (रामकथा) - 54






मानस के राम

भाग 54



रावण की अंत्येष्टि

राम की उदारता पर माल्यवंत बहुत ही आदर के साथ हाथ जोड़कर बोले,
"हे रघुकुल के गौरव आप अत्यंत ही उदार हैं। आपके स्थान पर अन्य कोई होता तो लंका की इस अकूट संपदा पर अधिकार कर लंका के सिंहासन पर आरूढ़ हो जाता। परंतु आपमें लेशमात्र भी लोभ नहीं है। आपने सबकुछ विभीषण को सौंप दिया। आप धन्य हैं।"
राम ने कहा,
"मैं अपने पिता के वचन का सम्मान करने के लिए चौदह साल के वनवास पर आया था। मुझे राज्य या धन संपदा का लोभ नहीं है। लंका पर आक्रमण करने का उद्देश्य केवल अपनी पत्नी के सम्मान की रक्षा करना था।"
उसके बाद राम ने विभीषण से कहा,
"अब आप भावनाओं का त्याग कर अपने कर्तव्य का पालन कीजिए। अपने कुल की परंपराओं के अनुसार अपने भाई रावण के मृत शरीर का अंतिम संस्कार कीजिए। इस बात का विशेष ध्यान रखिएगा कि रावण का अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया जाए।"
उसके बाद राम ने सम्मानपूर्वक रावण के शव को नमन करते हुए कहा,
"आप अतुलित बल के स्वामी थे। अपने कुल और जाति के सम्मान के लिए आपने अंत तक साहस का परिचय दिया। ईश्वर आपकी आत्मा को शांति प्रदान करें।"
यह कहकर शोकाकुल परिवार को छोड़कर राम अपने दल के साथ शिविर में चले गए।
मंदोदरी और धन्यमालिनी एक बार फिर से विलाप करने लगीं। विभीषण भी अपने भाई के शव के पास बैठकर रो रहे थे। माल्यवंत का कलेजा भी फटा जा रहा था। परिवार के सबसे वृद्ध सदस्य को अपने कुल के सदस्यों का अंतिम संस्कार करना पड़ा था। अब एक और अंतिम संस्कार की तैयारी थी। परंतु वह जानते थे कि भावनाओं को कर्तव्य के मार्ग की बाधा नहीं बनने देना चाहिए। उन्होंने आगे बढ़कर विभीषण से कहा,
"पुत्र अब विलाप करने के स्थान पर अपने अग्रज की अंत्येष्टि करने का कर्तव्य निभाओ।"

लंका की वीथियो से रावण की शव यात्रा पूरे सम्मान के साथ निकाली गई। मार्ग के दोनों ओर लंका के शोकाकुल स्त्री पुरुष खड़े होकर अपने राजा को अंतिम श्रृद्धांजली दे रहे थे।
श्मशान घाट पहुँच कर विभीषण ने रावण को मुखाग्नि देकर उसका अंतिम संस्कार किया।

विभीषण का राज्याभिषेक

रावण का अंतिम क्रियाकर्म करने के बाद विभीषण को अपराधबोध हो रहा था। संसार की हर वस्तु से उनका मन उचाट हो गया था। अब उनके ह्रदय में वैराग्य की भावना जाग उठी थी। वह सबकुछ छोड़कर संन्यासी की भांति रहना चाहते थे। परंतु अब उनके ऊपर लंका का राज्य संभालने की ज़िम्मेदारी थी। वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। अपने मन की व्यथा के साथ वह राम के शिविर में पहुँचे।
राम के पास पहुँचकर उन्होंने अपनी दुविधा उनसे कहीं,
"प्रभु मैंने अपने कर्तव्य का पालन कर अपने भाई के शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया। परंतु उसी क्षण से मेरा ह्रदय व्यथित है। मैं अब किसी प्रकार के सांसारिक बंधन में नहीं बंधना चाहता हूँ। अतः लंका का राज्य मैं नहीं संभाल सकता हूँ।"
विभीषण की बात सुनकर राम ने उन्हें अपने पास बैठाया। उसके बाद गंभीर स्वर में बोले,
"आप जो कह रहे हैं वह स्थाई भाव नहीं है। अपने स्वजन का अंतिम संस्कार करने के बाद इस प्रकार के भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इसे श्मशान वैराग्य कहा जाता है। परंतु यह वैराग्य उचित नहीं है। यह आपके कर्तव्य पालन में बाधा बन रहा है। अतः इसका परित्याग कर अपने कर्तव्य का पालन करें। लंका निवासियों का पालन करना अब आपका कर्तव्य है। किसी भी राज्य का शासक विहीन रहना उचित नहीं है। अब आप लंका का शासन संभालिए।"
राम ने सुग्रीव, जांबवंत, हनुमान और लक्ष्मण को आदेश दिया कि वह विभीषण के साथ लंका जाकर उनका राजतिलक करें। राम का आदेश सुनकर विभीषण ने कहा,
"प्रभु कितना अच्छा होता यदि आप स्वयं लंका में चलकर इस कार्य को संपन्न करते।"
राम ने कहा,
"मित्र मैं नगर में प्रवेश नहीं कर सकता हूँ। किंतु मेरा अनुज लक्ष्मण मेरे स्थान पर यह कार्य करेगा।"
राम की आज्ञा पाकर सभी विभीषण के राज्याभिषेक के लिए लंका चले गए।

लंका पहुँच कर विभीषण के राज्याभिषेक की तैयारियां की गईं। लक्ष्मण ने सभी विधि विधानों का पालन करते हुए शास्त्रोचित तरीके से उनका राजतिलक कर उन्हें राजमुकुट पहनाया। सभी ने लंका नरेश के रूप में विभीषण को स्वीकार कर उनकी जय जयकार की।
लंका नरेश बनने के बाद विभीषण राम के पास उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आए। उनके चरणों में शीश नवाकर बोले,
"हे प्रभु आपकी कृपा से आज मैं लंका के सिंहासन पर आरूढ़ हो गया। अब मुझे आशीर्वाद दें कि मैं पूरी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य का पालन कर सकूँ।"
राम ने उन्हें उठाकर ह्रदय से लगाते हुए कहा,
"लंका का राजा बनने पर आपको बधाई हो मित्र। आप नीति निपुण, निश्चल और निर्मल ह्रदय हैं। आप सदैव ही लंका और उसके निवासियों के हित में कार्य करेंगे। अब राक्षस जाति की प्रतिष्ठा आपके हाथ में है। आप इस प्रकार की शासन व्यवस्था की स्थापना कीजिए जिसमें राक्षसों से बैर रखने वाले भी उनकी प्रशंसा करें।"
"प्रभु मैं पूरा प्रयास करूँगा कि स्वयं को एक योग्य शासक के रूप में स्थापित कर सकूँ।"
"ऐसा अवश्य होगा मित्र।"
विभीषण ने एक बार फिर राम के सामने हाथ जोड़ दिए।

सीता को विजय का समाचार मिलना

रावण मारा जा चुका था। विभीषण का राजतिलक भी हो गया था। लेकिन लक्ष्मण को एक बात परेशान कर रही थी। जिस उद्देश्य के लिए राम ने लंका पर चढ़ाई की थी वह तो अभी भी बाकी था। अभी तक सीता अशोक वाटिका में ही थीं। लक्ष्मण ने कहा,
"भ्राताश्री सबकुछ सही प्रकार से हो गया है पर अभी भी भाभी लंका में आपके आने की प्रतीक्षा कर रही हैं।‌"
राम ने कहा,
"लक्ष्मण एक पल के लिए भी मेरे ह्रदय से यह बात विस्मृत नहीं हुई है। परंतु मैं सही समय की प्रतीक्षा कर रहा था। अब वह समय आ गया है। लंका नरेश विभीषण से अनुमति लेकर अशोक वाटिका में जाकर सीता को यह शुभ समाचार सुनाओ कि युद्ध में मेरी विजय हुई है।"
अनुमति की बात सुनकर विभीषण ने कहा,
"आप अनुमति की बात क्यों कर रहे हैं ? आपकी इच्छा मेरे लिए आदेश है।"
राम ने हनुमान को आदेश दिया कि वह अशोक वाटिका जाकर सीता को सारी बात बताएं।
हनुमान सीता से भेंट करने के लिए लंका पहुँचे। अशोक वाटिका में जाते समय उन्हें मार्ग में लंका के निवासी मिले। उन्होंने जय श्रीराम कहकर हनुमान का अभिवादन किया।

अशोक वाटिका में बैठी सीता राम की तरफ से कोई शुभ समाचार आने की प्रतीक्षा कर रही थीं। अब उनसे और अधिक धीरज नहीं रखा जा रहा था। वह चाह रही थीं कि अब शीघ्र ही राम से उनकी भेंट हो। वह अशोक के वृक्ष के नीचे उदास बैठी थीं। तभी हनुमान ने जाकर उन्हें प्रणाम किया। हनुमान को देखकर सीता प्रसन्न हो गईं। हनुमान ने कहा,
"माता मैं आपके समक्ष एक शुभ समाचार लेकर प्रस्तुत हुआ हूँ। प्रभु श्री राम ने रावण का वध कर युद्ध जीत लिया है। रावण के साथ उनका युद्ध बहुत भयानक था। किंतु प्रभु श्री राम के शौर्य और सत्य के समक्ष रावण टिक नहीं सका।"
सीता की आँखों में खुशी के आंसू आ गए। वह बोलीं,
"हे पुत्र तुम बहुत ही सुखद समाचार लेकर आए हो। परंतु मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई भेंट भी नहीं है।"
हनुमान ने हाथ जोड़कर कहा,
"माता आपकी प्रसन्नता से बढ़कर मेरे लिए कोई भेंट नहीं हो सकती है।"
सीता की आँखों से आंसू बह रहे थे। उन्होंने कहा,
"पुत्र प्रभु से जाकर कहो कि मेरे नेत्र उनके दर्शन के लिए अधीर हो रहे हैं। अब प्रभु मेरी और अधिक परीक्षा ना लें। बिना किसी विलंब के मुझे अपने पास बुला लें।"
हनुमान ने कहा,
"माता अब और अधिक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। मैं जाकर प्रभु से विनती करूंँगा कि वह महाराज विभीषण से कहें कि आपको सुरक्षित सम्मान पूर्वक उनके पास पहुंँचा दें।"
यह कहकर हनुमान सीता की आज्ञा देखकर राम के पास वापस चले गए।

राम हनुमान के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनका मन सीता के बारे में जानने के लिए व्याकुल थे। जब हनुमान सीता से भेंट कर उनके पास पहुँचे तो राम ने उनसे पूँछा,
"हनुमान तुम जानकी से मिलकर आए हो। जानकी कैसी है ?"
हनुमान ने भावुक होकर कहा,
"प्रभु माता आपके दर्शनों के लिए अधीर हैं। अपनी आँखों में आंसू भरकर उन्होंने मुझसे कहा कि आपको उनका संदेश दे दूँ कि अब वह और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर पा रही हैं। उन्होंने पूँछा है कि अब विलंब का क्या कारण है ? क्यों नहीं आप उन्हें अपने पास बुला लेते ?"
हनुमान की बात सुनकर राम भावुक हो गए। उन्होंने कहा,
"हनुमान तुम अभी महाराज सुग्रीव और अंगद के साथ लंका नरेश विभीषण के पास जाओ और उनसे कहो कि वह सीता को अशोक वाटिका से मुक्त कर मेरे शिविर में भिजवा दें।"

हनुमान आज्ञा का पालन करने चले गए। उनके जाने के बाद राम गंभीर हो गए। लक्ष्मण भी यह सोचकर परेशान थे कि राम ने सीता को लाने का कार्य सुग्रीव अंगद और हनुमान पर क्यों डाला। यदि वह प्रतिज्ञा में बंधे हुए नगर में प्रवेश नहीं कर सकते थे तो उन्हें भेज देते। उन्होंने अपने मन की शंका राम के सामाने रखी,
"भ्राताश्री मुझे एक बात समझ में नहीं आई। भाभीश्री सीता को लाने के लिए आपने मुझे क्यों नहीं भेजा ?"
राम ने गंभीरता से कहा,
"क्योंकी तुम्हें कुछ तैयारियां करनी हैं।"
उनकी बात सुनकर लक्ष्मण को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूँछा,
"कैसी तैयारियां भ्राताश्री ?"
"जाकर कुछ लकड़ियों का प्रबंध करो।"
यह सुनकर लक्ष्मण को और भी अधिक अचरज हुआ। उन्होंने कहा,
"लकड़ियों का क्या काम है ?"
राम ने कहा,
"सीता को अग्नि द्वार लांघ कर मेरे पास आना है।"
राम की यह बात सुनकर लक्ष्मण को आघात लगा। पहली बार अपने बड़े भाई की बात उन्हें अप्रिय लगी थी।