Sholagarh @ 34 Kilometer - 17 books and stories free download online pdf in Hindi

शोलागढ़ @ 34 किलोमीटर - 17

हंगामा


उसे घूरता देख कर विक्रम खान की खोपड़ी उलट गई। उसने एक भरपूर पंच उसके मुंह पर मारा। पंच इतना नपा-तुला था कि वह आदमी किसी कटे हुए पेड़ की तरह जमीन पर धाराशाई हो गया। लपक कर विक्रम ने मेज की ड्रार से रिवाल्वर निकाल लिया। उसने सुबह गोली वाली घटना के बाद ही उसे बेडरूम से लाकर यहां रख लिया था।

उसके बाद वह बहुत जोर से चिंघाड़ा, “गार्ड! यह आदमी अंदर कैसे आया?”

उसकी आवाज सुनकर दोनों गार्ड भागते हुए अंदर आ गए। वह काफी डरे हुए थे। उनकी निगाह कभी जमीन पर पड़े आदमी पर जाती थी और कभी विक्रम के हाथ में थमी रिवाल्वर की तरफ।

“मैंने पूछा यह आदमी अंदर कैसे आया?” विक्रम की आवाज अभी भी तेज थी।

“सर.... इसने... इसने... कक्कहा था कि आपने.... उसे पप्पेंटिंग देने.... के लिए बुलाया है....।” गार्ड ने बमुश्किल हकलाते हुए कहा।

“गदहों! किसी को भी अंदर भेज दोगे!” विक्रम इतनी तेज आवाज में चीखा था कि दोनों गार्ड डर कर कांपने लगे।

“इसको उठाकर बाहर फेंक दो।” विक्रम खान ने खुद पर काबू पाते हुए कहा, “और हां, खबरदार कोई भी बिना मेरी इजाजत के अंदर नहीं आना चाहिए। अगर कोई जबरदस्ती करे तो गोली मार देना। तुम्हारे पास यह रायफल दिखाने के लिए नहीं है।”

दोनों गार्डों ने अपनी रायफल दीवार से टिका दी और उसे उठाकर बाहर ले जाने लगे। तभी वह आदमी बड़ी फुर्ती से उठा और गेट की तरफ भागा। विक्रम भी उसके पीछे हो लिया। उसने भागते आदमी पर दो फायर भी झोंक दिए, लेकिन निशाना चूक गया। वह आदमी काफी फुर्तीला साबित हुआ था और तेजी से पेड़ों की आड़ लेता हुआ गायब हो गया।

विक्रम काफी देर गेट पर खड़ा उस आदमी के भागने वाले रास्ते को देखता रहा। उसे उसकी कहीं झलक नहीं नजर आई। तब तक गार्ड भी उसके करीब आकर खड़े हो गए थे।

“कल से यहां दो गार्ड और चाहिए।” विक्रम ने कहा, “तीन गार्ड गेट पर रहेंगे और एक लॉन में।”

“ओके सर!” गार्ड ने धीमी आवाज में कहा।

इसके बाद विक्रम ड्राइंग रूम में आ गया। उसके मोबाइल फोन की घंटी बज रही थी। उसने लपक कर फोन उठा लिया।

फोन रिसीव करते ही उधर से आवाज आई, “आपने अच्छा नहीं किया विक्रम खान। मेरा आदमी वादे के मुताबिक तुम से पेंटिंग लेने गया था। तुम ने उसे बैरंग लौटा कर मुझे गुस्सा दिला....।”

“मैं किसी भी कीमत पर पेंटिंग नहीं दूंगा।” विक्रम ने उसकी बात काटते हुए कहा, “तुम्हें जो करना हो कर लो। और हां, अगर दोबारा तुम्हारा आदमी यहां दिखा तो मैं उसे गोली मार दूंगा।” यह कहने के बाद विक्रम ने फोन काट दिया।


शेयाली की पेंटिंग


हाशना इंस्पेक्टर सोहराब का अपनी कार से पीछा कर रही थी। दरअसल वह सोहराब से कोठी पर मिलने दो बार आ चुकी थी। पहली बार वह सुबह के वक्त आई थी। उसे गेट पर गार्ड ने ही बता दिया था कि साहब कोठी पर नहीं हैं। अब वह रात में दूसरी बार पहुंची थी। उसने कार गेट के बाहर ही पार्किंग में लगा दी थी।

उसने आते ही गार्ड से सोहराब के बारे में पूछा था, “साहब हैं क्या अंदर?”

“जी हां।” गार्ड ने कहा, “आप अपना नाम पता और मिलने की वजह बता दीजिए।”

“पर्सनल है।” हाशना ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।

वह गार्ड से बात कर ही रही थी कि उसे मजदूर के भेस में सोहराब जाता हुआ दिखा। वह उसका चेहरा नहीं देख सकी थी, क्योंकि उस वक्त वह गार्ड से बात कर रही थी। पीछे से उसे वह सोहराब ही लगा था, लेकिन चाल में अंतर था। वह थोड़ा लंगड़ा के चल रहा था। इसके बावजूद उसने तुरंत ही पुकार लिया, “सोहराब सर!”

लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिला। वह उसे जाते हुए एकटक देखती रही।

उसने गार्ड से पूछने की कोशिश की, लेकिन वह लैंडलाइन पर किसी से बातों में मशगूल था। उसके बाद वह टहलते हुए अंदर चली गई। वहां लान में ही उसे करीमा नजर आ गया। उसने हाशना को देखते ही पूछा, “जी बताइए?”

“सोहराब सर से मिलना है।” हाशना ने कहा।

“वह तो हैं नहीं।” करीमा ने कहा।

“कब तक लौटेंगे।”

“वह बताकर नहीं जाते।”

हाशना वापस लौट पड़ी। उसने गार्ड पर एक उचटती सी नजर डाली वह अब भी फोन पर लगा था। इसके बाद हाशना कार में बैठकर चल पड़ी। अचानक उसे सोहराब की कद-काठी वाले आदमी का ख्याल हो आया। उसे याद आया की वह पैदल ही गया था। उसने तुंरत कार को उसी दिशा में आगे बढ़ा दिया।

हाशना ने आगे जाकर एक स्ट्रीट लाइट के पास कार रोक दी और उस आदमी का इंतजार करने लगी। उसने बड़े ध्यान से उस आदमी को देखा। वह सोहराब को पहचान नहीं पाई। सोहराब बीड़ी बीते हुए चाल में थोड़ी लंगड़ाहट लिए हुए उसके सामने से गुजर गया।

वह वहीं खड़ी सोचती रही। उसके बाद कार स्टार्ट की और विजडम रोड की तरफ चल पड़ी। कुछ देर बाद वह शेयाली की बैंग्लो के सामने खड़ी थी। वह पहले भी कई बार यहां आ चुकी थी, लेकिन आज उसे अजीब लग रहा था। शेयाली से उसकी अच्छी बनती थी। आज पहली बार वह बिना शेयाली के उसके बैंग्लो के अंदर जाने वाली थी। इससे पहले वह एक बार सोहराब का पीछा करते हुए यहां तक आ चुकी थी, लेकिन अंदर नहीं गई। गेट से कुछ दूर ही कार रोक कर सोहराब का इंतजार करती रही थी।

उसने गार्ड से अंदर मैसेज भेजवा दिया और इंतजार करने लगी। कुछ देर बाद ही विक्रम ने उसे बुला लिया। वह कार लेकर सीधे अंदर चली गई। जब वह ड्राइंग रूम में पहुंची तो वहां विक्रम एक अधूरी पेंटिंग के सामने बैठा उसे निहार रहा था।

पेंटिंग स्टैंड पर टिकी हुई थी। यह किसी खूबसूरत लड़की की अधूरी पेंटिंग थी। लड़की ने सर पर ऊंची पोनी टेल बांध रखी थी। उसके घुंघराले बाल सामने की तरफ झूल रहे थे। कुछ बाल माथे पर भी थे।

“यह पेंटिंग शेयाली की है... लेकिन अब यह कभी पूरी नहीं हो पाएगी।” विक्रम ने गमगीन लहजे में कहा।

“मुझे अफसोस है।” हाशना ने कहा।

“शेयाली रोज एक घंटा इस पेंटिंग के लिए मॉडलिंग करती थी। अब जब मॉडल ही नहीं रही तो पेंटिंग कैसे पूरी होगी।” विक्रम ने एकटक पेंटिंग को देखते हुए कहा।

वह कुछ देर ऐसे ही टकटकी बांधे पेंटिंग को देखता रहा।

“रात में कहां निकल पड़ीं?” विक्रम ने हाशना की तरफ मुड़ते हुए पूछा।

“मैं परेशानी में पड़ गई हूं।” हाशना ने विक्रम की तरफ देखते हुए कहा।

“कैसी परेशानी... मुझे बताओ मैं पूरी मदद करूंगा।” विक्रम ने कहा।

“विक्रम! सिर्फ तुम ही मदद कर सकते हो।” हाशना ने उम्मीद भरी नजरों से उसे देखते हुए कहा।

“पूरी बात तो बताओ।” विक्रम ने कहा।

“मैं पेंटिंग के बारे में बात कर रही हूं।” हाशना यह कह कर गौर से विक्रम की तरफ देखने लगी। विक्रम के चेहरे पर उलझन के भाव उभर आए थे।

कुछ देर की खामोशी के बाद हाशना ने दोबारा कहा, “बाबा ने पेंटिंग के लिए आसमान सर पर उठा रखा है। वह इस बारे में खुफिया विभाग के सुप्रिटेंडेंट से मिलने को कह रहे हैं। वह उनके दोस्त हैं।”

विक्रम उठ कर टहलने लगा। कुछ देर की खामोशी के बाद हाशना ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “वह खानदान की बदनामी नहीं चाहते, इसलिए पुलिस में शिकायत नहीं करना चाहते हैं। बाबा चाहते हैं कि पेंटिंग खुफिया तरीके से उनके पास पहुंच जाए। अगर उन्होंने सुप्रिटेंडेंट से मदद मांगी तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगी.... और शायद तुम भी।”

“मैं कुछ हल निकालता हूं।” विक्रम ने उसके करीब रुकते हुए कहा।

“तुम्हें अगर वह पेंटिंग इतनी ही पसंद आई है तो तुम उसे रख लो... उसकी एक डुप्लीकेट कॉपी बना दो मैं दादा जी के बक्से में रख दूंगी।”

“ऐसा मुमकिन नहीं है... हाशना!” विक्रम की आवाज से परेशानी साफ झलक रही थी, “मुझे कुछ वक्त दो मैं कुछ सोचता हूं।”

“मैं अब जा रही हूं। मैं तुमसे दो दिन बाद मिलती हूं।” हाशना ने उठते हुए कहा।


घने जंगल में


सलीम पैर के बल ही कूदा था, क्योंकि अगर पानी गहरा न हुआ तो सर में चोट लग सकती थी। सलीम ने एक गोता लगाया और फिर ऊपर आ गया। नदी के पानी का बहाव उसकी उम्मीद के मुताबिक थोड़ा तेज था। उसने नीचे से दोनों हाथ हिलाकर श्रेया को इशारा किया।

इशारा पाते ही श्रेया ने भी पानी में छलांग लगा दी। उसके बाद जो हुआ वह सलीम के लिए काफी आश्चर्यजनक था। उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था। वह एक टक श्रेया की तरफ ही देख रहा था। श्रेया ने पानी में छलांग लगाने के बाद तैरना शुरू कर दिया था। वह बेहतरीन तैराक साबित हुई थी। इशारा पाते ही वह जिस तरह तुरंत ही कूद पड़ी थी, उससे भी सलीम को ताज्जुब हुआ था।

सार्जेंट सलीम तो अच्छा तैराक था ही। वह जल्द ही तैरते हुए श्रेया के करीब पहुंच गया। दोनों तैरते हुए दाहिनी तरफ जा रहे थे। बाईं तरफ दूर तक ऊंची चट्टानें नजर आ रही थीं। दोनों जल्द ही नदी के किनारे पहुंच गए। श्रेया निढाल होकर नदी किनारे रेत पर लेट गई। कुछ दूरी पर सार्जेंट सलीम भी लेट गया।

दूर-दूर तक शांति थी। चांद कुछ और नीचे उतर गया था। झींगुरों की हारमोनियम माहौल को संगीतमय बना रही थीं। आसमान पर तारे किसी जरी वाले दोपट्टे की मानिंद लहरा रहे थे। पूरा माहौल रहस्यमयी लग रहा था।

“सोना नहीं... हमें रात में ही इस इलाके से दूर निकल जाना होगा।” सलीम ने श्रेया से कहा।

“सो नहीं रही.... चलो चलते हैं।” श्रेया ने उठते हुए कहा।

“कुछ देर आराम करना चाहती हो तो कर सकती हो।” सलीम ने उसे रोकते हुए कहा।

श्रेया ने सार्जेंट सलीम के करीब आकर बैठते हुए कहा, “बस थोड़ा पैर में दर्द है। काफी खराब रास्ता था गुफा का।”

“तुम तो बहुत अच्छी तैराक हो!” सलीम ने कहा।

“तुम क्या समझे थे कि मैं निरी मूरख हूं?” श्रेया ने चिढ़ाने वाले भाव में कहा।

“नहीं मूरख तो मैं हूं। आप तो ज्ञानीचंद हैं।” सलीम ने मुंह बनाते हुए कहा।

“मैं अच्छी निशानेबाज भी हूं।” श्रेया ने कहा।

“चिड़ीमार हो!” सलीम ने चिढ़ाने वाले अंदाज में कहा।

“नहीं, शूटर हूं।” श्रेया ने उसकी बात को नजरअंदाज करते हुए कहा।

“वाकई!” सार्जेंट सलीम ने कहा।

“आपको इतना आश्चर्य क्यों हो रहा है?”

“कुछ नहीं।” सलीम ने कहा। वह कुछ सोचने लगा था।

“बहुत डरावना माहौल है यहां का!” श्रेया ने बात बदलते हुए कहा।

“सिर्फ नजरिये का फर्क है।” सलीम ने कहा।

“मतलब?”

“दिन में यहां का मंजर बहुत खूबसूरत होगा। जब हम दिन में इसे देखते हैं तो हमारा मन यहां बस जाने को होता है। तब हम सिर्फ उस लमहे को जी रहे होते हैं, जबकि वक्त के कई रूप होते हैं। हर रूप जुदा होता है।” सलीम ने समझाते हुए कहा।

“मैं समझी नहीं।” श्रेया ने पलकें झपकाते हुए कहा।

“चलो दूसरी तरह से समझाता हूं। जब हम कैलेंडर पर कोई सीनरी देखते हैं तो हम कहते हैं कि यहां रहने का मन करता है, लेकिन वह सिर्फ वक्त का एक लमहा है। वही जगह रात में बहुत अजीब हो सकती है। तूफान और बारिश में और भी खतरनाक।”

“बहादुर के साथ जीनियस भी हो।” श्रेया ने उसकी पीठ ठोंकते हुए कहा।

“तारीफ मत करो, बदहजमी हो जाती है।” सार्जेंट सलीम ने उठते हुए कहा, “चलो अब चलते हैं।”

श्रेया भी उसका हाथ पकड़कर तेजी से उठ खड़ी हुई। सार्जेंट सलीम कुछ देर खड़ा सोचता रहा कि उसे किस दिशा में जाना चाहिए। उसे नदी के किनारे-किनारे चलने में कोई फायदा नहीं लगा। उसने सीधा चलने का इरादा किया।

दोनों का सफर एक बार फिर शुरू हो गया। चांद अभी छुपा नहीं था। इसलिए उन्हें रास्ता समझने में दिक्कत नहीं हुई। कुछ देर बाद जंगल शुरू हो गए। जंगल में उनकी रफ्तार थोड़ा धीमी हो गई थी। सलीम बहुत एहतियात से चल रहा था।

धीरे-धीरे जंगल घना होता जा रहा था। जहां पेड़ गझिन थे, वहां चांदनी नीचे नहीं पहुंच रही थी। ऐसी हालत में अंधेरा गहरा हो जाता था। अचानक अंधेरे में उन्हें दो चमकती आंखें नजर आईं। श्रेया ने सार्जेंट सलीम को जोर से पकड़ लिया।


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जंगल में क्या होने वाला था?
पेंटिंग की तलाश हर किसी को क्यों थी?
इंस्पेक्टर सोहराब शोलागढ़ क्यों जा रहा था?

इन सवालों के जवाब पाने के लिए पढ़िए जासूसी उपन्यास ‘शोलागढ़ @ 34 किलोमीटर का अगला भाग...