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बैंगन - 22

वह ज़ोर से हंसा, पर और किसी को हंसी से नहीं आई।
तब किसी ने कहा- तेरा जोक बेकार गया बे!
वह खिसिया कर रह गया।
उसने तो टीवी में देखा था कि "दाग अच्छे हैं" सो उसी धुन में उसने भी कह दिया "गड्ढे अच्छे हैं"!
किसी के न हंसने पर वो मायूस होकर खड़ा था कि पीछे से आकर साहब ने उसकी पीठ पर एक ज़ोर की धौल जमाई। कुछ धूल उड़ कर रह गई उसके कपड़ों से।
ये सारा मज़ाक चल रहा था पुलिस थाने में। हवलदार दिनराज अपनी सफ़लता पर ख़ुश था, साहब का धौल इसी का तो इनाम था।
दिनराज ने गुत्थी सुलझा ली थी।
तांगा मंदिर वाले पुजारी जी का ही निकला। पूरे डेढ़ दिन से सारा महकमा परेशान था इस बात को लेकर।
मेन रोड पर दिन भर लावारिस पड़े तांगे को देख कर किसी ने फ़ोन कर दिया था थाने में।
क्या पता, चोरी का हो, किसी वारदात का हो, किसी टोने - टोटके का हो, आखिर पता तो चले। अपनी स्कूटी से कॉलेज से लौटी लड़की ने जब घर आकर मम्मी को झुंझलाते हुए बताया कि सुबह जब मैं गई थी तब भी ये ख़ाली तांगा यहीं खड़ा था, और अब शाम तक भी यहीं पड़ा है, तो उसकी मम्मी ने ही पुलिस स्टेशन में फ़ोन घुमा दिया। पता तो चले किसका है। डगमगाती स्कूटी तो उसने जैसे- तैसे निकाल ली पर किसी ट्रक - लॉरी ने टक्कर मार दी तो लेने के देने पड़ जाएंगे। कौन मालिक है इसका जो यहां इस तरह पड़ा छोड़ गया। अब घोड़ा तो बोल कर बताने से रहा अपने मालिक का नाम।
ये भी गनीमत थी कि सड़क किनारे की इस जगह पर एक बड़ा सा गड्ढा था जिसमें तांगे का पहिया फंस गया था। घोड़े के ख़ूब ज़ोर लगाने पर भी तांगा इससे आगे नहीं बढ़ा। वरना सुबह से भूखा घोड़ा घास- पात के लालच में तांगे को न जाने कहां तक खींच ले जाता। अब मालिक न आए तो बेचारा बेजुबान जानवर क्या करे, किसी तरह अपना पेट तो भरे। भला हो सड़क किनारे उगी घास- पत्तियों का जिनकी जुगाली में घोड़ा भूखा नहीं मरा।
दिनराज के मोहल्ले में उसका एक दोस्त रहता था जिसका बाप कभी जवानी के दिनों में तांगा ही चलाता था। उसे एकाएक ख्याल आया कि जाकर उस प्योर खां को ही क्यों न बुला लाए। तांगा और किसी से तो वहां से टस से मस नहीं हो रहा था।
प्योर खां ने ही उन पुलिस महकमे के मुलाजिमों को बताया था कि जिनावर में बड़ी समझ होती है। अगर वो समझ जाए कि मुझे ले जाने वाले लोग मेरे मालिक के नहीं हैं तो वो अड़ जाता है। धकेल कर पहिए को गड्ढे से निकाल देने के बावजूद घोड़ा बार- बार बिदक रहा था और उन लोगों की बताई दिशा में जाने को तैयार नहीं था जो उसे थाने ले जा रहे थे।
अनुभवी प्योर खां ने पुचकार कर उसे साधा। जब घोड़ा चल पड़ा तो दौड़ कर सारे एक- एक कर उस पर लद गए। बाइक पर अकेला आदमी रह गया जबकि चारों उसी पर लद कर आए थे।
प्योर खां ने बताया कि जानवर के बदन में एक्सीलेटर, गियर, रिवर्स नहीं होते पर जिगर में इतनी समझ तो होती है कि अगर उसे कोई ये समझा सके कि कोई खतरा नहीं है तो वो साथ देता है।
प्योर खां उसे थाने तक हांक लाया।
साहब ने तांगे को देखते ही प्योर खां को पचास का नोट दिया और बदले में प्योर खां ने ज़मीन तोड़ सैल्यूट मारा।
एक नई उमर के लड़के ने थाने से निकलते- निकलते भी प्योर खां से पूछ ही लिया- खां साहब, ये तुम्हारे नाम का क्या सीन है? लोग प्यारे तो होते हैं, प्योर तो कभी सुना नहीं।
साहब से इनाम पाते ही प्योर खां से "खां साहब" हुए
प्योर खां किसी किशोर की तरह झेंपते हुए सकुचा कर लाल हो गए। बोले - अरे भाई, बचपन में लड़के छेड़ते थे कि प्यारे, तुम हिंदू हो या मुस्लिम?
मैं कहता था कि हिंदू न मुस्लिम, मैं तो प्योर आदमी हूं! बस, भाई लोगों ने यही नाम रख छोड़ा। मैंने भी सोचा, चलो अंग्रेज़ सही!
हिंदू और मुसलमान लड़ कर ही तो "अंग्रेज़" को लाते हैं!