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एक और दमयन्ती - 3

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 3

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

तीन

मानव समाज का ठुकराया हुआ प्राणी, जब एकान्त में होता है तो उसे एकान्त में दिखने वाले सभी दृश्य, उससे कुछ कहने के लिए सजीव हो उठते हैं पर वह ठण्डी आह लेकर उन्हें देखते हुए, अपने जीवन की विस्तृत हुई स्मृतियों को याद करने की कोशिश करने लगता है।

सुनीता आज खोई हुई अपने बिस्तर पर पड़ी हुई थी। उसे आज उसका वह कमरा अजीब-सा लग रहा था। वह बार-बार उसांसें लेकर उन चित्रों को देखने की कोशिश करने लगी, जो दीवार के सहारे टंगे थे।

अब चिन्तन की धारा बह निकली-भगवती, मैं तो सोच भी नहीं सकी कि यह वही हो सकता है। कितना बदल गया है? क्या स्वरुप के बदलने से आत्मा भी बदली होगी ? वह मुझे तो जान ही नहीं पाया है कि मैं कौन हूँ ? उस समय उसके चेहरे पर रेखें ही न थी। इकहरा शरीर और अब वह चेहरा ही बदल गया है। मैंने भी उसे उस समय कितना देख पाया था। जी भरकर भी उसके चहरे को नहीं देख सकी थी।

उसका यह चित्र अगर न होता तो शायद मैं उसे कभी न पहचान पाती। वह मनहूस दिन था जब भगवती ने अपने पिताजी की आज्ञा का पालन किया था। मेरे पिताजी, कहने के अनुसार दहेज नहीं दे पाएँ थे। बारात मुझे छोड़कर चली गई थी। आज की तरह हंसते-बोलते उसे कभी न देखा था।’

सुनीता सोच रही थी, बिस्तर पर निश्चल पड़ी थी। दरवाजा बन्द था ही। अब उसने खिड़की और बन्द कर ली जिससे उसे अचेतन अवस्था में कोई न देख ले।

वह समझ नहीं पा रही थी कि ऐसी स्थिति में वह क्या करे ? इसी का हल पाने के लिए वह गहरी चिन्ता में डूब गई-

‘कहीं मुझे बुलाने भगवती यहाँ न आ जाए। मैं उसे सब कुछ साफ-साफ बता दूँ कि मैं सुनीता नहीं हूँ, सुनीता तो मेरा बदला हुआ नाम है। मेरा नाम तो दमयन्ती है। कहीं पहचान गया और फिर वही.........।

भगवती से शादी का बदला चुकता करने का अवसर आ गया है। उसे कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है। उसे इतना नाटकीय प्यार दूँ कि वह मेरे प्यार में तड़पने लगे। बाद में उसे छोड़ दूँ जिससे वह जीवन भर तड़पता रहे। भगवती को कुछ भी नहीं बताया जाए बल्कि उसे प्यार देकर उसका हृदय जीता जाए। किन्तु जिस दिन महेन्द्रनाथ से भगवती का आमना-सामना हो गया। सब राज खुल जाएगा।’

वह एक अज्ञात भय से कांप गई। ‘मैं कांप क्यों गई। मैं उसे धोखा दे पाऊंगी। जीवन में कैसे-कैसे संयोग आकर खड़े हो जाते हैं। जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी वही मिल गया। क्या पता उस ऊपर वाले ने उससे मिलने के लिए ही मिलाया हो।’

आशंका उसका पीछा नहीं छोड़ रही है। दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंककर पीता है। एक ऐसी ही स्थिति ऊपर वाले ने ला दी है तो क्यों न बदला चुकता कर लूं। नहीं, नहीं, इस मामले में नारी को अपना रुप नहीं बदलना चाहिए।’

यह सोचते ही वह उछल पड़ी और सोचने लगी-नारी बदला लेने और प्रेम करने दोनों ही रुपों में पुरुष से अधिक सजीव होती है। भगवती मुझे जान भी जाए तो उस समय जाने, जब मेरे प्यार में वह तड़प उठे और मैं.........। पिताजी काश ! आज वह यह सब देख पाते तो कितने खुश होते। नहीं, नहीं, इस भगवती का खून ही पी जाते। उनका वह दुःख हमेशा-हमेशा के लिए दूर हो जाता।

इस प्रकार मन ही मन उसने जाने कितने निर्णय ले डाले। कुछ चेतना-सी हो आई तभी दरवाजे पर आहट हुई, सुनीता बोली-‘कौन ?’

‘अरे दरवाजा तो खोलो या अन्दर से ही कहेगी कौन ?’

भगवती की आवाज पहचानकर उठी और दरवाजा खोलकर बोली-‘अरे बुखार में आप यहाँ चलकर ! ’

भगवती ने उत्तर दिया -‘और तुम अच्छी-भली बन्द कमरे में।’

उसकी इस बात से सुनीता सहम गई। दरवाजे से बाहर निकली और बोली-‘चलिए आपके कमरे में ही चलते हैं।’

‘तुम्हारे कमरे में नहीं ।’

इस पर सुनीता ने झट उत्तर दिया-‘ये कमरा और वो कमरा ‘

भगवती ने कोई उत्तर नहीं दिया। दोनों ही भगवती के कमरे की ओर चल दिए। उसके कमरे में पहुँचकर बोली-‘आप लेट जाइए।’

‘आप, नहीं भगवती कहो।’

‘अच्छा भगवती जी आप लेट जाइए। मैं अपने कमरे के किवाड़ बन्द कर आती हूँ।’ यह कहते हुए वह कमरे से बाहर निकल गई।

भगवती ने आवाज दी-‘सुनीताऽऽऽ, ओ सुनीताऽऽऽ।’

‘अभी आईऽऽऽ।’ यह कहते हुए सुनीता अब तक अपने कमरे में पहुँच गई थी।

अब सुनीता ने एक दृष्टि में अपने कमरे का निरीक्षण किया। वहाँ कोई ऐसी चीज न रहने दी जिससे वह पहचानी जा सके। महेन्द्रनाथ ने उसके कमरे में अपना फोटो रख छोड़ा था। उसे उठाकर फाड़ डाला और कचरे की टोकरी में डाल दिया। उसने सारा कमरा दो-तीन मिनट में ही साफ कर दिया और दरवाजा बन्द कर भगवती के कमरे में आ गई।

उसे आया हुआ देखकर भगवती बोला-‘बहुत भाग रही हो, क्या बात है?’

‘अब कभी नहीं भागने के लिए भाग रही थी।’

भगवती ने फिर प्रश्न किया-‘सच।’

‘सच।’सच तो कह दिया पर सुनीता संभली।

उसने सोचा -इतनी‘ जल्दी प्यार प्रगट नहीं करना चाहिए था। अब वह संभलते हुए बोली-‘आप चुपचाप पड़े रहिए। बुखार में अधिक बोलना अच्छा नहीं होता।’

भगवती ने कहा-‘वह तो ठीक है, पर मन तो नहीं मानता है।’

अब सुनीता ने क्रोध व्यक्त करते हुए कहा-‘क्यों नहीं मानता है?मनाना पड़ता है।’

उसकी यह बात सुनकर वह चुपचाप लेट गया। सुनीता सोचने लगी-बीमारी में सेवा करने का अच्छा मौका है। इसे हाथ से नहीं गंवाना चाहिए। पर जैसे ही ये अच्छे हों, यहाँ से इसे छोड़कर भाग जाना चाहए तभी ।’

वह इतना ही सोच पाई कि भगवती बोले बिना न रहा-‘तुमने तो मुझे न बोलने की बहुत बड़ी सजा दे दी है।’

उसकी यह बात सुनकर सुनीता के मुँह से निकल गया- ‘अच्छा तो सजा से छुट्टी।’

छुट्टी की बात सुनकर वह मुस्कराते हुए सोचने लगा- मैं यहाँ दूसरों को सजा देने आया हूँ और मुझे यहाँ किसी की सजा से छुट्टी मांगनी पड़ रही है। कितना कायर और कमजोर होता है आदमी। बिना जीवन-साथी के जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। काश ! मेरी वह । ‘

सुनीता ने पूछा-‘अब क्यों चुप रह गए। क्या कुछ सोचने लगे ?’

‘सुनीता, सोच रहा हूँ- बन्धन मन के होते हैं। मन के बन्धनों को मानने वाले हम जैसे पता नहीं कितने लोग इस संसार में भटकते रहते हैं और सामाजिक बन्धनों को ठुकराकर जीवन के आनन्द के लिए तरसते रहते हैं।’

सुनीता बात को समझते हुए बोली-‘मैं समझी नहीं।’

यह बात सुनकर भगवती बोला-‘न समझो तो ही अच्छा है। अन्यथा मुझ जैसे प्राणी से घृणा करने लगोगी। किन्तु कभी-कभी आदमी जब यथार्थ को समझ जाता है तो भी उससे घृणा नहीं करता।’

‘आज आप, कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। अब हम जहाँ से मिल रहे हैं, हमारा कर्तव्य है कि भगवती हम एक-दूसरे के अतीत को न देखें। काश ! तुम्हारा अतीत मुझे दिख भी गया तो तुम पुरुष हो और मैं एक असहाय नारी।’

बात सुनकर भगवती बोला -‘मेरा सहारा पाकर भी अपने को असहाय समझ रही हो।’

‘जीवन में किस-किस का सहारा लिया फिर भी असहाय, भगवती यह किसी का दोष नहीं एक व्यवस्था का दोष है।’

‘व्यवस्था दोशी होते हुए भी तुम उसी अव्यवस्था को स्वीकार रही हो।’

अव्यवस्था को स्वीकारते रहना नारी का धर्म बन गया है।’

‘धर्म की दुहाई देकर चलने वाली व्यवस्था स्वीकारी जाती है यह भी अधर्म है।’

बात सुनकर सुनीता और अधिक दार्शनिक हो उठी-‘व्यवस्था अधर्म की है तब कोई स्वीकार नहीं करता, पर धर्म जानकार स्वीकारी जाने वाली व्यवस्था यदि अधर्म की निकली, बस यही व्यवस्था नारी को छल रही है।’

इस बात को सुनकर भगवती के विचारों को झटका लगा। सफाई देते हुए बोला-‘सुनीता मैं अब जान गया कि तुम्हारा चिन्तन बहुत गहरा है।’

‘जीवन भर जो काम किया हो उसमें थोड़ी बहुत सफलता मिलती ही है।’

बात सुनकर दोनों चुप रह गए थे। दोनों ओर प्यार पनपने लगा था। भगवती उसके प्यार को पाकर अपने को धन्य समझ बैठा था। वह मौन रहकर सोच रहा था-

‘कहीं सुनीता का ऐसा ही अधिकारपूर्ण प्यार वह पाता रहे। चाहे वह जीवन भर बीमार ही क्यों न पड़ा रहे, पर जब वह अच्छा हो जाएगा उसे सुनीता सुबह-शाम आते-जाते ही मिल पाया करेगी। हे भगवान इससे तो तू मुझे बीमार ही बनाए रख।’

इधर मौन साधे सुनीता अपने आराधक से उसके जल्दी ठीक हो जाने की कामना मन ही मन कर रही थी, जिससे दोनों यहाँ से भाग जाएं और दुनिया की कलुशित निगाहों से बच सकें। यही सोचकर वह बोली-‘कल से बुखार है, आप सभी दवाएं ले चुके अब तो डॉक्टर को फोन कर आऊं। जिससे वे आकर एक बार चैकर और कर जाएं।’

‘ठीक है तुम कहती हो तो चली जाओ।’

वह तुरन्त उठी और डॉक्टर को फोन करने चली गई।

तभी एक कार होटल के सामने आकर रुकी। महेन्द्रनाथ कार से उतरा और सुनीता के पास आ गया। यह इतना अकस्मात हुआ कि वह कुछ सोच ही नहीं पायी और बुत बनी खड़ी रह गई।

‘सुनीता।’ महेन्द्रनाथ ने पुकारा।

‘ओह ! आप आ गए।’ वह चौंककर बोली।

‘आई एम सॉरी सुनीता। मैं बहुत दिनों बाद आ सका।’

सुनीता ने तत्काल सोचा-अब इसे कैसे बहाना बनाकर वापिस किया जाए।

वह भावुक बनते हुए बोली-‘जब याद करते हैं तब आपके दर्शन नहीं होते और आज स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तब आप बोर होंगे। आप खड़े क्यों रह गए अन्दर आइए न अपने मित्र से नहीं मिलेंगे।’

‘क्यों नहीं, क्यों नहीं ? अवश्य, बिना मैनेजर प्रकाश से मिले, मेरा वापिस जाना असम्भव है।’

महेन्द्रनाथ आगे बढ़ा। चलते-चलते उसने ध्यान से सुनीता के उस लम्बे संवाद का अन्दाज लगाना चाहाँ भावों को पढ़ते हुए बोला-

‘मेरे आने से आज कुछ चिन्तित हो गईं, क्या बात है? कहो तो लौट जाऊं।’

‘अरे क्यों, मैं क्यों चिन्तित होने लगी।’

कहकर सुनीता सोचने लगी- मेरा बस चले तो इसको यहीं से बैरंग वापिस कर देती।

दोनों चलते-चलते मैनेजर के रुम के पास पहुँचे। सुनीता बाहर दरवाजे पर ठिठककर रह गई। वह अन्दर चला गया पर दूसरे ही क्षण वापिस चला आया।

देखते ही सुनीता ने पूछा-‘क्यों ?’

उसने चिन्तित से स्वर में उत्तर दिया-‘मैनेजर कहीं गए हैं शायद, एक बजे से पहले वे वापिस न आ पायें।’

‘तो इसमें चिन्ता की क्या बात है। क्या कहना हैं ? मैं कह दूँगी।’

‘नहीं, मैं ही रुकूंगा, चलो कहीं बैठें।’

‘चलो।’

‘कहाँ ?’

‘रुम नम्बर 17 खाली है। आइए।’

सुनीता ने अपने मन को मारकर कहा और उसके आगे-आगे चल दी। महेन्द्रनाथ ने सुनीता का अनुसरण किया।

सुनीता सोचती जा रही थी-‘भगवती को देर से जाने का जवाब देना पड़ेगा। यह महेन्द्रनाथ भगवती को पहचानता ही है। शायद अभी इसे यह पता नहीं कि भगवती भी यहाँ आ गया है। इसे पता चला कि वह मेरे बारे में उसे सब कुछ बतला देगा।’

इस भय से कांपते हुए वह रुम नम्बर 17 में सोचते हुए पहुँची, ‘काश ! यह मैनेजर से बिना मिले ही चला जाए तो ही अच्छा है, कुछ दिनों का संकट टल जाएगा। फिर जब यह आएगा इसे दर्शन ही न दूँगी।’ यह सोचते हुए वह सोफा पर बैठ गई। महेन्द्रनाथ ने उसके गले में हाथ डाला।

सुनीता हाथ हटाने का असफल प्रयास करते हुए बोली- ‘अब आप कब आएंगे ?’

उसने तपाक से प्रश्न किया-‘तुम जब कहो, बन्दा हाजिर हो जाएगा।’

‘फिर भी।’

‘समझ लो आठ-दस दिन बाद।’

वह बात को बदलते हुए बोली-मेरे लिए क्या लाएंगे ?’

‘जो तुम कहो।’ उसने उत्तर दिया।

अब मैं इसकी शिकार नहीं बनूंगी। ये भगवती के साथ विश्वासघात होगा। यही सोचकर वह बोली-‘आज मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं है।’

स्वास्थ्य की बात सुनकर वह रुक गया और बोला-‘बहाना कुछ जमा नहीं।’

‘मेरा सच कहना आपको बहाना लगा। आप हमेशा मेरे ऊपर सन्देह करते हैं। मैंने आप पर कभी अविश्वास नहीं किया।’

सुनीता की बात सुनकर वह बोला-‘मैं तो तुम्हारा दिल देख रहा था कि क्या कहती हो ?’

‘अब भी दिल देखने की इच्छा शेष रह गई है।’ ‘तुम तो सुनीता व्यर्थ सन्देह करती हो।’

बात आगे न बढ़े इसलिए वह बोली-‘मैं और आप पर सन्देह। आपके कारण ही शान की जिन्दगी जी रही हूँ। गाँव में रहती तो गोबर डालना पड़ता।’

‘अच्छा तो फिर चलते हैं और हाँ इन दिनों कुछ खर्च-पानी की बड़ी तंगी आ गई है। मुझे बस अपने तीन हजार में से केवल एक हजार रुपये दे दो। मैं तुम्हें एक माह बाद लौटा दूँगा।

सुनीता समझ गई उधार की बात मात्र धोखा है इस प्रकार पता नहीं कितनी बार धोखा खा चुकी हूँ। यह बात मन में आते ही बोली-‘तुम्हें हमेशा मेरे पैसों से ही अड़ी रहती है। जब देखो तब उधार मांगते रहते हो। फिर मैं कौन होती हूँ उधार देने वाली। मैनेजर से पूरे ही लिये जाओ, वह क्या तुमसे मना करेगा ?’

‘मैनेजर प्रकाश का यही अन्दाज करने तो मैं आया था पर वह मिला ही नहीं। इन दिनों उसके कुछ भाव बढ़ गए हैं।’

‘इससे मुझे क्या ? यदि मेरा पैसा है तो आज नहीं तो कल आपका ही है। मेरा और कौन है जो ।’

इस बात पर झट से वह बोला-‘हम तो हैं, किन्तु धोखा नहीं दे देना।’

अब वह बनावटी क्रोध प्रगट करते हुए बोली-‘कैसी बात करते हैं आप। नारी जिससे बंध जाती है, कष्ट सहन करके भी उसे निभाती है।’

‘यही तो नारी की महानता है।’

‘पुरुष की ये ही बात नारी को छलती रहती है।’

‘यहाँ रहते हुए तुम कितनी चतुर हो गई हो। अब तो तुम्हें कोई पहचान ही नहीं सकता कि तुम दमयन्ती हो।’

वह झट से बोली-‘रहने दो, रहने दो। जो पीछे छूट गया उसे याद मत दिलाया करो। इससे मेरा दिल दुखने लगता है।’ कहते हुए उसके आंसू लुढ़क आए।

महेन्द्रनाथ ने रुमाल निकाला और आंसू पोंछते हुए बोला- ‘अच्छा सुनीता अब चलता हूँ। वह जाने कब तक आएगा।’ कहते हुए उठ खड़ा हुआ।

सुनीता भी उठ खड़ी हुई और भगवान से दुआ मांगने लगी।

कहीं जाते वक्त मैनेजर न मिल जाए। उसे कार तक विदा करने उसके साथ-साथ चल दी।

महेन्द्रनाथ को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए सुनीता ने उससे पूछा-‘अरे आपने बताया नहीं, आप मेरे लिए क्या लाएंगे ।’

महेन्द्रनाथ ने फिर वही उत्तर दिया-‘जो तुम कहो।’

सुनीता समझ गई कि ये हर बार की तरह कुछ भी न लाने का बहाना है। इसलिए वह बोली-‘अच्छा तो आप जब भी यहाँ आएं अपने मन की चीज लेते आएं।’

बातों ही बातों में दोनों होटल के बाहर आ गए। कार के पास आकर सुनीता ने कार का दरवाजा खोला। महेन्द्रनाथ को बैठाया। अब महेन्द्रनाथ ने कार स्टार्ट कर दी। धीरे-धीरे कार आगे बढ़ी। सुनीता ने हाथ हिलाकर उसे विदा कर दिया। मन ही मन में उसे अलविदा भी कह दिया-‘देखना महेन्द्र अब तुम आओगे तो मैं मिलूंगी ही नहीं‘

सुनीता महेन्द्रनाथ रुपी संकट के टल जाने से ईश्वर से दुआएं मांगती हुई प्रफुल्ल मन से होटल में प्रवेश करने को आतुर हो गई।

जिससे वह शीघ्र भगवती के पास पहुँच सके तभी एक कार के रुकने की आवाज उसके कानों में पड़ी-‘कौन आया है?’ देखने की उत्कन्ठा से निगाहें उस कार की ओर स्वतः चली गई।

प्रकाश मैनेजर कार में से उतरते हुए दिखे। उनके लिए रुक जाना आवश्यक हो गया था।

मैनेजर प्रकाश पास आ गया था। उसने पास आते हुए कहा-‘आज तो मौज से घूम रही हो सुनीता ?’

सुनीता इस बात की चिन्ता न करते हुए बोली-‘आज आपके मित्र आए थे।’

‘फिर ?’

‘फिर क्या ? मेरे पैसों के बारे में आपसे मिलना चाहते थे।’

‘सुनीता वह तुम्हारे पैसों के बारे में कितनी बार नहीं मिल चुका है। अब कब आएगा ?’

‘आठ-दस दिन में।’

‘देखो तब तक तुम इन पैसों को बैंक में फिक्स कर दो। मैं मालिक से चर्चा करके तुम्हें दे दूँगा जिससे मेरा संकट टल जाएगा और तुम्हारा भी। फिक्स की बात पर वह तुमसे कुछ नहीं ले सकेगा।’

‘बाबू आप, देवता आदमी हैं।’

‘कहाँ हूँ देवता, हमेशा तो डाँटता रहता हूँ।’

‘डाँटने से क्या होता है बाबू ? पेट पर लात तो नहीं मारते।’

अब वह अपनी ऑफिस में चला गया। सुनीता बाहर ही रह गई, क्योंकि वह शीघ्र भगवती के पास पहुँचना चाहती थी पर मैनेजर प्रकाश की आवाज सुन पड़ी।

‘सुनीता रुक क्यों गई, अन्दर आओ न।’

अब सुनीता का दिल धड़कने लगा। अन्दर पहुँच गई। पुनः मैनेजर का वाक्य सुन पड़ा-‘अब तुम्हारे भगवती के क्या समाचार हैं ?’

सुनीता समझ गई कि ये सब जान गए हैं कि मैं उन्हें प्यार करने लगी हूँ इसीलिए उस विशय को छेड़ना नहीं चाहती थी। बोली- ‘ठीक ही है। मैं डॉक्टर को फोन करने आई थी। इधर महेन्द्रनाथ मिल गया।’

‘चिन्ता न कर, भगवती कुछ कहे तो मेरा नाम ले देना।’

‘ऐसी कोई बात नहीं जो उनसे कुछ छुपाऊं।’

‘क्या तुम्हें भगवती से सचमुच प्यार नहीं हुआ है?’

यह सुनकर सुनीता मौन रही, वह पुनः बोला-‘देखो मेरा अन्दाज गलत नहीं निकला। अच्छा जाओ उससे महेन्द्रनाथ का नाम न लेना। वैसे भगवती भी दिल का बुरा नहीं है।’

सुनीता को लगा ये व्यंग्य कर रहे हैं। वह वहीं चुपचाप खड़ी रही। वह पुनः बोला-

‘वह कुछ सनकी है। हाँ, डॉक्टर को फोन कर दिया या नहीं।’

‘जी अभी नहीं किया है।’

यह सुनकर प्रकाश डॉक्टर के लिए फोन डायल करने लगा। फोन करने के बाद वह बोला-

‘डॉक्टर भगवती के कमरे में ही पहुँच जाएगा। तुम वहीं रहो।’

अब सुनीता भगवती के कमरे में पहुँची। भगवती सुनीता की ही प्रतीक्षा कर रहा था। उसे देखकर बोला-‘मैं तुम्हें देखने ही आ रहा था, कहाँ खो गई ? बड़ी देर में छोड़ा उस फोन ने।’

सुनीता सोचने लगी-‘क्या कहे अपनी विवशता को? अपने को छिपाना विवशता है। उसे न छिपाना भी विवशता है। क्यों नहीं सब कुछ बता दूँ।’

उसके दूसरे मन ने कहा-‘क्या कर रही है, पगली ? किस्मत ने जो अपने आप संजो दिया वह सब चौपट हो जाएगा।’

भगवती ने पुनः प्रश्न किया-‘क्या सोचने लगी ? उत्तर नहीं दिया।’

‘सोच रही हूँ भगवती कि मैनेजर ने काम में लगा दिया तो आप अभी उस पर नाराज हो जाएंगे।’

‘तुमने कहा नहीं ?’

‘वे सब जानते हैं पर ।’

‘पर क्या ?’

‘अब आ तो गई ना। काश ! ये प्रतीक्षा जीवन-भर बनी रहे। एक क्षण के लिए दूर न होने दो तब न।’

‘तुम क्या समझती हो, तुम्हें दूर होने दूँगा।’

‘यही विश्वास नारी को पुरुष के निकट लाता है और जब नारी पास आती है तो और अधिक पास आना चाहती है और डरती भी है कहीं तुम भी ।’

‘सुनीता जब विश्वास दृढ़ हो जाए तभी चिर मिलन उचित रहेगा।’

अब तक डॉक्टर कमरे में आ चुका था। उसने उसका अच्छी तरह चेकअप किया। और बोला-‘मैं अपनी रिपोर्ट मैनेजर प्रकाश को दे जाऊंगा। वे दवाएं मंगा देंगे।’ यह कहकर वह चला गया था।

इसी समय भगवती को खांसी उठी। खांसी की दवा पहले से ही रखी थी। सुनीता उसे वही दवा पिलाने लगी। दवा पिलाने में एक-दूसरे का शरीर छू गया तो स्पर्श के सुख का आनन्द लेते हुए बोला-‘सुनीता इस स्पर्श के लिए ही तड़प रहा हूँ।’

यह सुनकर सुनीता मौन रह गई थी। सोचने लगी थी-भगवती काश तुम विवाह के बाद मुझे छोड़कर न आए होते तो यह स्पर्श तुम्हें बहुत पहले मिल गया होता। मैं भी भटकी नहीं होती। मेरे जीवन में भटकाव आया है उसके दोशी भी तुम्हीं हो।’

बड़ी देर तक गुमसुन न जाने क्या-क्या सोचती रही।

दूसरे दिन तक भगवती पूर्ण रुप से स्वस्थ हो गया। वह चाहता तो सुनीता को ड्यूटी पर भेज देता पर आज तो वह उससे कुछ बातें करना चाहता था। इसलिए उसने आज और बिस्तर पर पड़े रहना उचित समझा।

सुनीता भी उसकी यह चालाकी समझ गई इसलिए आज उसने स्वास्थ्य की बातें नहीं पूंछीं। भगवती से बातें करने का यह अच्छा अवसर था जिसे वह खोना नहीं चाहती थी। दोनों मौन धारण किए बैठ गए तब मिलन की घड़ी मूक बन, उनकी हंसी उड़ाने लगी तो सुनीता ने मौन तोड़ा-‘कुछ बात करो न। क्या इसीलिए ड्यूटी पर नहीं जाने दिया ?’

‘क्या बात करुं ? क्योंकि मौन में जितनी बातें हो रही थीं। शायद उतनी तो मौन तोड़ने पर नहीं हो सकेंगी।’

‘आप तो पहेलियां बुझाने लगे।’

‘नहीं सुनीता कुछ बातें चुप रहकर भी कही जाती हैं और कुछ बातें मन ही मन में सही जाती हैं।’

‘सही जाती होंगी। पहले यह बताओ आपकी शादी हुई या नहीं।’

‘सुनीता शादी मन की होती है। यदि उसे ने स्वीकार कर लिया तो हो गई शादी अन्यथा शादी होते हुए भी मन कंुवारा रह जाता है।’

बात सुनीता ने पूरी की- और फिर दरवाजे-दरवाजे भटकते फिरते हैं कहीं कोई रास्ता मिल जाए।’

भगवती ने उसकी बात छीनकर पूरी की-‘पर रास्ता नहीं मिलता, भटकना ही भटकना रह जाता है। पथ मिल भी गया तो भी हम उसे सन्देह की दृष्टि से देखते रहते हैं। सन्देह की दृष्टि से ही नहीं सुनीता। आशंकाओं की परछाइयों से डरते हैं कहीं ।’

बात का उत्तर सुनीता ने दिया-‘यह अपने आत्म-विश्वास की कमी के कारण होता है।’

‘आत्म-विश्वास में वृद्धि भी तो सुपथ पर चलने से होती है।’सुनीता ने बात फिर पूरी की-

‘विश्वास करने से होता है, न करने तो ढहता जाता है।’

‘यह विश्वास तुम्हारे संरक्षण में खूब पनप सकेगा।’

बात एकदम सामने आ गई तो वह लजाते हुए बोली-‘छोड़ो, यह बताइए कि क्या लेंगे ?’

‘चाय।’

यह सुनकर सुनीता चाय लेने चली गई।

भगवती सोचने लगा-न कहते हुए भी कितना कह गई। इसे कहते हैं कहना। जो दिल में समा जाए और फिर एकाकार के लिए तड़फाए, पर .........।

सोचने से कुछ रुका और फिर सोचने लगा-वह दिल की काली तो नहीं है, जान ही दिए दे रही है। मैं हूँ कि अपने मिजाज ही नहीं मिलने दे रहा हूँ। वह मुझे अपना सब कुछ समझ बैठी है तभी मेरा नाम लेकर सम्बोधित करती है। संकोच भी नहीं करती।’

इसी समय दरवाजे पर आहट हुई। सुनीता चाय ले आई थी। उसने ट्रे सामने रखी और कुर्सी पर बैठ गई। भगवती ने चाय पीते हुए कहा-‘यह गुम-सुम क्या सोच रही हो ?’

‘आपके बारे में।’

‘मेरे बारे में क्या ?’

‘एक बात पूछूँ।’

‘कहिए ।’

‘आप कैसे आदमी हैं ?’

भगवती कहने लगा-मैं-मैं अपने बारे में ............‘

भगवती कांप गया और उसके हाथ से चाय का प्याला गिरते-गिरते बचा पर गर्म चाय छलककर उसके कपड़ों के ऊपर गिर गई।

सुनीता ने झट से प्याला थामा और बोली-‘इसमें मैंने क्या पूछ लिया ? जो इतने घबड़ा गये?’

यह कहते हुए रुमाल से उसके कपड़े साथ करने लगी।

ऐसा करते समय भगवती ने सुनीता की कोमल हथेली देखी। उसे लगा कोई चांद उसके बहुत नजदीक आ गया है। उसने उसकी कलाई अपने हाथ में थाम ली। वह कलाई छुड़ाने का असफल प्रयास करने लगी।

भगवती बोला-‘छुड़ा सकोगी।’

सुनीता को अपनी बात कहने का अच्छा अवसर मिल गया। वह बोली-‘मैं हिन्दू नारी हूँ, कलाई पकड़ने का मतलब समझते हैं आप?’

कुछ रुकी पर उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर फिर बोली-‘आपने मेरी कलाई पकड़ी है, किसी की कलाई सोच-समझकर पकड़ें। मुझे इस दुनिया में किसी का भरोसा नहीं है।’

भगवती ने उसकी बात सुनते हुए कहा-‘समझता हूँ, सब समझता हूँ। आश्चर्य मेरा भरोसा नहीं है आपको! ’

सुनीता बात को अधिक नहीं कुरेदना चाहती थी इसलिए उसने गर्दन झुका ली।

अब भगवती ने उसे अपने आलिंगन में भींच लिया। वह छूटने का असफल प्रयास करती हुई उसकी बाहों में जकड़ गई।