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विनाशकाले.. - भाग 1

प्रथम अध्याय
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लाल जोड़े में सजी रेवती हाथों में जयमाल लेकर जब स्टेज पर आई तो बाराती-घराती उसके अप्सरा जैसे रूप को देखकर दूल्हे के भाग्य की सराहना करने लगे।शर्म से झुकी रेवती की पलकें जब जयमाल डालने के लिए ऊपर उठीं तो दूल्हे मनोहर को देखकर हक्की-बक्की रह गई, उसके हाथ जहां के तहां रुक गए।बगल में खड़ी बड़ी बहन तथा भाभी उसके सफेद पड़े चेहरे को देखकर सारा माजरा समझ गईं।रेवती कोई गलती न कर दे,इस डर से झट मजाक करते हुए उसका हाथ थामकर वर के गले में जयमाल डलवा दिया।धीमें स्वर में दीदी की चेतावनी भरी आवाज उसके कानों में पड़ी कि कोई बखेड़ा मत खड़ा करना,तेरी और सबकी भलाई इसी में है, अतः चुपचाप शादी हो जाने दे।रेवती के सपनों पर मनों पत्थर पड़ चुके थे, उसने यंत्रचालित सा समस्त रस्मों को कब पूर्ण किया,कब विदाई हो गई, उसे कहाँ होश था।मां, दीदी के उपदेश कानों ने सुन लिए कि तेरी किस्मत अच्छी थी,तू इस गरीबी से बाहर आ गई, मनोहर तुझे पलकों पर बिठा कर रखेगा,पल्लू से बांधकर रखना।धन-सम्पन्न परिवार है, तेरी दोनों छोटी बहनों का भी बेड़ा पार करा देगा।
रेवती घर में छः भाई-बहनों के मध्य तीसरे नंबर पर थी।माता-पिता एवं बड़ा भाई फूलों की माला बनाकर बेचते थे।बस जैसे-तैसे गुजारा चल जाता था।रँग-रूप तो सभी भाई-बहनों का ठीक था, परन्तु रेवती को जैसे ईश्वर ने फुर्सत के क्षणों में गढ़ा था।ऐसा प्रतीत होता था कि स्वर्ग की कोई अप्सरा किसी त्रुटि के प्रायश्चित हेतु पदच्युत होकर इस गरीब परिवार में अवतरित हो गई थी।गोरा रँग कि छूने भर से मैला हो जाय,उसपर घने-काले केश काली घटा को भी मात करते थे।इतनी रूपवती होने के कारण मां उसे पलकों पर बिठाकर रखतीं, अतः किशोरी रेवती घर के कार्यों में विशेष कुशल नहीं थी।मां अक्सर कहतीं कि इसे तो कोई राजकुमार मांग कर ले जाएगा।वो तो पिता, चाचा तगड़े पहलवान थे,जिससे डरकर कोई उसकी तरफ कुदृष्टि नहीं डाल सकता था, वरना इतनी रूपवती निर्धन घर की कन्या का तो जीना ही दूभर हो जाय।
अभी कुल 16 वर्ष की ही तो हुई थी रेवती, गाँव में किसी विवाह में आए मनोहर ने उसे देख लिया और उसके अतुल सौंदर्य पर मोहित होकर तुरंत रिश्ता भेज दिया।वैसे उन दिनों 16-17 वर्ष की युवतियों का विवाह आम था।अतः घर बैठे धनाड्य परिवार के रिश्ते को अस्वीकार करने का प्रश्न ही कहाँ उठता था।मनोहर का अच्छा-बड़ा व्यवसाय था फूलों का।पुष्तैनी ढेरों खेत-बगीचे थे,गांव में बड़ा सा मकान था,कुल दो भाइयों में वह छोटा था, बड़ी दो बहनों का विवाह हो चुका था।पिता के ही व्यवसाय को दोनों भाइयों ने और अच्छे स्तर तक बढ़ा लिया था, कई शहरों में वे फूलों का निर्यात करते थे।
बस रूप-रंग देने में ईश्वर ने बेहद कृपणता कर दी थी, लम्बा-चौड़ा शरीर, उसपर स्याह रँग।माता-पिता ने क्या सोचकर मनोहर नाम रख दिया था लेकिन वो कहते हैं न कि घी के लड्डू टेढ़े भी भले।वैसे भी माता पिता को अपनी संतान सदैव सुंदर ही प्रतीत होती है।मनोहर की भाभी अपनी छोटी बहन का विवाह उससे करवाना चाहती थीं, मनोहर को कोई आपत्ति थी भी नहीं।दैवयोग से उसकी निगाह रेवती पर पड़ गई और मनोहर का विवाह रेवती से सम्पन्न हो गया।
रेवती ने अपने परिवार की स्थिति के अनुसार ही सपने देखे थे कि हमउम्र सलोना सा दूल्हा उसे ब्याहकर ले जाएगा, दोनों मेहनत कर अपनी गृहस्थी चला लेंगे।पर मनोहर बिल्कुल उसके उलट,उसपर उम्र में भी उससे 8-9 साल बड़ा, और कहाँ रेवती छुई-मुई सी नाजुक कली।खैर, मुँह-दिखाई की रस्म प्रारंभ हुई।सास तो थीं नहीं, जिठानी ही सर्वेसर्वा थीं, जो रेवती से वैसे ही जली-भुनी बैठी थीं, एक तो रेवती की अतुलनीय रूप-राशि, उसपर मनोहर हाथ से निकल गया सो अलग।यदि बहन से विवाह हो जाता तो सबकुछ उसके ही हाथ में आ जाता,क्योंकि छोटी बहन थी भी बड़ी सीधी-सादी,दीदी के ही कहे में चलने वाली।अब तो सबकुछ हाथ से निकल गया।
सब रिश्तेदार, पास-पड़ोसी मौजूद थे, सबके बीच में ताना मार ही दिया,कि मनोहर भैया ने खूब हाथ मारा, जोड़ी ऐसी जैसे कौए की चोंच में मोती।सभी मनोहर के भाग्य की तारीफ कर रहे थे, उधर रेवती के हृदय में अग्नि धधक रही थी।
दूसरी रात उसकी सुहागरात थी।मनोहर ने बड़े मनोयोग से फूलों से पूरा कमरा सजवाया था।कमरे में पहुंचकर एक बारगी तो रेवती की आंखें चकाचौंध हो गईं, बड़ा सा कमरा, उसमें शानदार सजा हुआ मुलायम गद्दे वाला पलंग,खिड़कियों पर लटकते खूबसूरत पर्दे, बड़ी सी आलमारी औऱ इतना बड़ा ड्रेसिंग टेबल जैसा फिल्मों में देखा था।
कहाँ तो मायके में दो कमरों में से एक में भैया;भाभी रहते थे, दूसरे में बाकी भाई-बहन और माँ।पिताजी की चारपाई बरामदे में थी।उसका मन कर रहा था कि गद्दे पर खड़े होकर बच्चों की तरह उछल-कूद करे, लेकिन यह ससुराल था,कोई देख लेगा तो कितना मजाक बन जाएगा,इसलिए मन मसोस कर रह गई।तभी कदमों की आहट सुनकर सिकुड़ कर पलंग पर बैठ गई।
क्रमशः …..
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