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एक वरदान - संभोग - 1

संभोग मानव जीवन की एक अमिट कड़ी है। दुनियाँ में जहाँ ऐसा बहुत कुछ है जो एक व्यक्ति को दूसरे से अलग करता है, कहीं जाति के नाम पर कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं रंगभेद के नाम पर। इन सब में सिर्फ एक ही चीज ऐसी है जो सबको आपस में जोड़ती है और वो चीज है संभोग। अब आपको लगेगा कि ये क्या बात हुई प्रेम भी तो ऐसा ही कुछ करता है। पर प्रेम और संभोग अलग कहाँ हैं, जहाँ प्रेम की शुरुआत आँखों से होती है, जब प्रेमी अपनी प्रेमिका को देख कर उसकी ओर आकर्षित होता है। वो आकर्षण क्या उसकी आत्मा का आकर्षण होता है ? क्या आप किसी ऐसे प्रेमी या प्रेमिका की ओर पहली बार में आकर्षित हो सकते हैं जो एक सुन्दर और मनमोहक रूप का मालिक न हो?
में कहता हूँ हो सकते हैं पर वो आकर्षण सबसे पहले प्रेम का आकर्षण नहीं होगा वो दया, जिज्ञासा या कुछ और हो सकता है पर प्रेम नहीं हो सकता, प्रेम तो बाद में पैदा होगा जब आप उसके साथ समय गुजरेंगें उसके मन, उसकी आदतें, उसके विचार या कुछ और जब आपको पसंद आएगा तब प्रेम होगा इसके पहले नहीं।
ये जरूरी नहीं कि संभोग की ओर उठा पहला कदम प्रेम ही हो, कई बार संभोग से ही प्रेम की शुरुआत होती है, जैसे अर्रेंज मैरिज ( व्यवस्था विवाह)।
अरेंज मैरिज में लड़का-लड़की एक दूसरे को अच्छे से जानने के पहले ही संभोग कर लेते हैं, उसके बाद कभी दो महीने, कभी दो साल और कभी पूरा जीवन लग जाता है प्रेम होने में। खैर प्रेम से तो हम सब बहुत अच्छे से परिचित हैं, क्योंकि कई किताबों, फिल्मों, धारावाहिकों या आस-पड़ोस से प्रेम का ज्ञान तो मिल जाता है पर संभोग के बारे में कोई नहीं बताता। जो विषय जीवन का सबसे जरूरी विषय है जिस विषय की परीक्षा को पास करके ही एक लड़का पुरुष और पुरुष से पिता बनता है, इसी विषय को पास करके एक लड़की में नारीत्व आता है और फिर माँ बनकर वो अपने जीवन को धन्य करती है उसे ममत्व की प्राप्ति होती है, वो विषय आखिर कोई क्यों नहीं पढाता। जबकि ये एक मात्र विषय ऐसा है जिसकी पढ़ाई आपको आपके जीवन की महत्वपूर्ण उपाधि देती है पुरुषत्व, पितत्व, नारीत्व और मातृत्व, इन डिग्रियों के बिना मानव जीवन प्रेत समान कहा गया है।
संभोग- किसी जीवित प्राणी के अंदर की ऊर्जा का शारीरिक, मानसिक या योगिक क्रिया द्वारा विपरीत लिंग और भेद के प्राणी की ऊर्जा के सांथ समागम या मिलन संभोग कहलाता है।
मानव शरीर ऊर्जा का भंडार है और हम जहाँ भी देखतें हैं वहाँ ऊर्जा हमे दो प्रकार की दिखाई देती है एक धनात्मक ऊर्जा और एक ऋणात्मक ऊर्जा, जिस तरह से आपके घर में बिजली के प्रबाह के लिए फेस और अर्थ दोनो की जरूरत होती है उसी तरह से इस जीव-जगत के बिना रुकावट चलने के लिए नारी और पुरूष की जरूरत होती है, जिस तरह से अर्थ और फेस को मिलाने से करेंट स्पार्क करता है उसी तरह पुरुष और नारी के मिलन से भी ऊर्जा उत्पन्न होती है अंतर केवल इतना होता हैं कि अर्थ और फेस के मिलन से उत्पन्न ऊर्जा विनाश का कारण होती है तो वहीं पुरुष और नारी की ऊर्जा सृजन का कारण होती है।
प्राचीन विज्ञान और आध्यात्मिक ग्रंथ के अनुसार संभोग अगर नियम बद्ध होकर और कुछ मुद्रा विशेष से किया जाए तो दुर्लभ कुण्डलिनी शक्ति को भी स्त्री-पुरूष के मिलन से जाग्रत किया जा सकता है। कुण्डलिनी के चक्रों को संभोग से उत्पन्न ऊर्जा द्वारा एक-एक करके चरणबद्ध तरीके से खोला जा सकता है। इसमें खास बात ये है की योग या किसी और क्रिया द्वारा केवल एक ही व्यक्ति की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत की जा सकती है पर संभोग की क्रिया द्वारा स्त्री-पुरूष दोनों की कुण्डलिनी शक्ति को एक साथ ही जाग्रत किया जा सकता है।
ऐसे ही कई और क्रियाएँ अलग-अलग ग्रंथों, तंत्र शास्त्रों और व्याख्यानों में मिलतीं हैं जिनमें संभोग के माध्यम से सफलता पाई जा सकती है।
योग-शास्त्र में भी लिखा गया है कि संभोग भी एक योग के समान है, संभोग की चरम अवस्था में जब पुरूष पूर्ण रूप से नारी में समा जाता है और नारी अपने सारे सामाजिक, मानसिक और शारीरिक बन्धनों से मुक्त हो उसमें समाहित पुरूष को महसूस करती है और उसके ऊर्जा प्रबाह में बहने को आतुर हो उठती है तब उसका मन योग की उस अवस्था में होता है जिसे हम ध्यान कहते हैं। इस अवस्था मे एकाग्रचित्त होकर वो पुरूष को भी भूल जाती है और पुरूष भी नारी को भूल जाता है दोनों सिर्फ शारिरिक रूप से एक दूसरे के साथ होते हैं पर मन और मस्तिष्क अलग-अलग केवल उस ऊर्जा के प्रवाह में बह रहा होता है। उस समय संसार में मानो कोई और है ही नहीं, कोई पुरूष नहीं कोई स्त्री नहीं, अगर कुछ शेष है तो केवल ऊर्जा का वो आनंदमय अहसास जिसमें उस समय वो दोनों शरीर और मन के सारे बंधन खोल कर बहे जा रहे हैं।
ध्यान की एकाग्रता से बाहर आकर जिस तरह एक योगी को लगता है कि उसका शरीर हल्का हो गया है, मानो वो एक गहरी और भरपूर नींद के बाद जागा हो और उसके मन और मस्तिष्क विकारों से मुक्त हो मानसिक शांति का अनुभव करते हैं। ठीक इसी तरह संभोग की चरम अवस्था को प्राप्त करने के बाद स्त्री और पुरूष भी महसूस करते हैं।
संभोग को एक उत्तम और संपूर्ण व्यायाम भी कहा जाता है, जिस तरह से व्यायाम में कई अलग-अलग आसन और क्रियाएँ होती हैं जो शरीर के अलग-अलग हिस्सों की मांसपेशियों को प्रभावित करती हैं और व्यायाम के द्वारा शरीर स्वस्थ, सुद्रण और आकर्षक होता है। उसी तरह से संभोग में भी कई आसन और मुद्राएँ होतीं हैं, जिसमें शरीर व्यायाम की तरह ही क्रिया करता है। व्यायाम में एक आसन से केवल किसी एक या दो मांसपेशियों पर काम किया जा सकता है, परंतु संभोग की एक मुद्रा से शरीर के कई अलग-अलग अंग सक्रिय हो जाते हैं। संभोग व्यायाम का फायदा मन और मस्तिष्क को भी होता है।
हमारे समाज में संभोग को केवल संतानोत्पत्ति का माध्यम माना जाता है, जिस तरह से पशु किसी विशेष मौसम में ही संभोग करते हैं और उसके द्वारा अपने झुंड को बड़ा करते जाते हैं, ठीक इसी तरह मनुष्य भी संभोग से अपने वंश की वृद्धि करता है, पर मनुष्यों में संभोग के कोई एक निश्चित समय नहीं है।
समाज की मान्यताओं के अनुसार अगर हमारा संभोग करने का केवल एक मात्र उद्देश्य संतानोत्पत्ति है तो ईश्वर हमारे संभोग के काल या समय को अवश्य निश्चित करता, पर उसने तो हमे असीमित संभोग की शक्ति दी है, फिर भला हमारा उद्देश्य सीमित कैसे हो सकता है। संभोग मानव जाति के लिए एक वरदान के समान है और हम इस वरदान को अभिश्राप मानकर इसे छुपाते रहते हैं, जैसे हम किसी कोढ़ी व्यक्ति के कोढ़ को देखते हैं शायद उसी तरह हम संभोग को देखते हैं पर कोढ़ी से एकांत में गले नहीं लगते इसके उलट एकांत और अंधेरे में संभोग हमारे लिए किसी प्रिय मिठाई की तरह लगने लगता है। हमें ईश्वर के उस वरदान की याद एकांत में ही क्यों आती है, क्यों हम दिन के उजाले में इसके बारे में बात करना भी पसंद नहीं करते?
क्योंकि हम आज तक संभोग को केवल भोग और वासना से जोड़ते आये हैं उसके ईश्वरीय रूप को तो अब तक हमने जाना ही नहीं। अगर किसी व्यक्ति ने खीर का स्वाद ही न लिया हो तो उसके बारे में सोच कर मुंह में पानी कैसे आएगा। इसी तरह जब तक हम संभोग के ईश्वरीय रस को नहीं चख लेते तब तक ये हमारे लिए केवल कामवासना पूर्ति का साधन मात्र रहेगा।

क्रमशः - अगला भाग

सतीश ठाकुर

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