Unforgivable Crime - Final Part books and stories free download online pdf in Hindi

अक्षम्य अपराध - अंतिम भाग

गतांक से आगे……

विवाह तिथि से पूर्व दिवस में वर के यहाँ तिलक समारोह का आयोजन था,जिसमें लगभग 30 मुख्य रिश्तेदार तिलक लेकर दिव्या के ससुराल गए थे, सभी वहां की भव्य व्यवस्था देखकर अभिभूत थे।विवाह वाले दिन पहले गोदभराई की रस्म सम्पन्न की गई,जिसमें एक हीरे का जगमगाता सेट,दो सोने के सेट,कई अंगूठियां, हाथों के लिए सोने के भारी कड़े,चेन,पायल,ढेरों मंहगे कपड़े देखकर सभी दिव्या के भाग्य से रस्क कर रहे थे।किसी को कहां भान था कि इस चकाचौंध के पीछे कितने भयानक सच को छिपा दिया था वर पक्ष ने।
खैर, पूरे धूमधाम से विवाह के समस्त कार्यक्रम सम्पन्न हुए।हमारे संस्कार ऐसे हैं कि विवाह के तमाम रस्मों यथा फेरे,सिंदूरदान, मंगलसूत्र पहनाना इत्यादि पूर्ण होते-होते रस्मों-रीतियों के साथ दो बिल्कुल अजनबी ऐसे बन्धन में बंध जाते हैं, जैसे वे एक दूसरे को दशकों से जानते हैं।दिव्या भी जुड़ती जा रही थी रवि के साथ, सात जन्मों के लिए।कहाँ जानती थी कि यह साथ सात माह भी नहीं चल पाएगा।
भोर में दिव्या विदा होकर ससुराल आ गई।थोड़े विश्राम के पश्चात शेष रस्में पूर्ण की गईं।नेत्रों में असीमित स्वप्न समेटे सिमटी,सकुचाई सी दिव्या बेचैन धड़कनों के साथ सुहाग सेज पर बैठी रवि की प्रतीक्षा कर रही थी।
रवि समीप आकर उसके सामने बैठ गया।दिव्या पलकें झुकाए रवि के प्रणय निवेदन भरे स्वर को सुनने हेतु व्याकुल थी।लेकिन यह क्या ! कुछ देर की खामोशी के उपरांत अत्यंत गम्भीर आवाज में रवि ने कहा कि मैं आपसे अत्यंत आवश्यक बात करना चाहता हूँ।
रवि के आवाज के कम्पन और आंखों की नमी से दिव्या सहम सी गई,यह कैसा आगाज है उसके गृहस्थ जीवन का।उसका हृदय किसी कठोर वज्रपात की आशंका से कांप उठा।उसके मौन दृष्टि की इजाजत के पश्चात रवि ने कहना प्रारंभ किया कि सर्वप्रथम तो मैं आपसे अपनी तथा अपने परिवार की तरफ से हाथ जोड़कर इस भयानक विश्वासघात के लिए माफ़ी मांगता हूं, हालांकि जानता हूँ कि हमारा अपराध अक्षम्य है।आप जो सजा मेरे लिए निर्धारित करेंगी,मुझे स्वीकार है।
इतना कहकर रवि ने बताना प्रारंभ किया कि आज से लगभग चार वर्ष पूर्व मुझे तीव्र ज्वर आया,कुछ दिनों की चिकित्सा के बाद ज्वर तो ठीक हो गया, परन्तु पेट में दर्द बना रहा,कमजोरी भी बढ़ती जा रही थी, साथ ही शरीर में सूजन भी आ रही थी।तमाम जांचों के उपरांत ज्ञात हुआ कि मेरी दोनों किडनियां खराब हो रही हैं, जबकि मैं किसी तरह का नशा नहीं करता हूँ।वाराणसी से दिल्ली तक ट्रीटमेंट हुआ,किंतु अंततः किडनियां फेल हो गईं।मां की किडनी मैच कर गई,अतः उनकी एक किडनी मुझे ट्रांसप्लांट कर दिया गया एवं दूसरे के लिए प्रयास किया जाने लगा।डॉक्टरों को उम्मीद थी कि इससे मेरा जीवन बच जाएगा, तबतक दूसरी किडनी की व्यवस्था हो जाएगी।दो वर्ष तक तो लगभग सब ठीक चलता रहा, लेकिन फिर परेशानी बढ़ने लगी।जांच तो नियमित रूप से होती ही रहती थी, पता चला कि ट्रांसप्लांट की हुई किडनी में भी खराबी आने लगी है।डॉक्टरों का कहना है कि नई किडनी लगाने पर भी गारंटी नहीं है कि मेरा शरीर उसे कितने समय तक स्वीकार करेगा,मतलब यह कि मेरे जीवन का भरोसा नहीं,कब सांसों की डोर टूट जाय।
अटकते शब्दों में दिव्या इतना ही कह पाई कि फिर मेरा जीवन क्यों बर्बाद कर दिया आप सबने।
रवि ने रोते हुए बताया," आपसे पहले भी मैंने कई बार अपना विवाह होने नहीं दिया था, परन्तु इस बार सगाई होने के पश्चात मां-पिता ने मुझे एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा, मेरा मोबाइल तक अपने पास रख लिया, जिससे आप सबको वास्तविकता बताने का मुझे मौका ही नहीं मिल पाया।विवाह वाले दिन भी मुझे धमकी दे रखा था कि यदि मैंने विवाह नहीं किया तो वे आपके परिवार को बर्बाद कर देंगे।वे चाहते हैं कि उनके खानदान को एक वारिस मिल जाय,लेकिन अब और अत्याचार मैं आपके साथ नहीं होने दूंगा।कम से कम मेरे जाने के बाद आप पुनः नए सिरे से अपनी जिंदगी प्रारंभ कर सकती हैं।
इतना बड़ा आघात सुहागरात के उपहार में प्राप्त कर दिव्या सदमें में बैठी रह गई, सामने उजड़ी हुई दुनिया मुंह चिढ़ा रही थी, किस्मत उसपर आंसू बहा रही थी।किंकर्तव्यविमूढ़ दिव्या यूँ ही बैठी रह गई, नींद तो क्या ही आती।रवि ने तनाव कम करने के लिए एक गोली उसे खिलाकर सुलाने का प्रयास किया।उसके सोने के पश्चात वह दिव्या के आँसू भरे मासूम चेहरे को निहारते हुए ईश्वर से शिकायत करता रहा कि न जाने किस जन्म का पाप इस जन्म में भुगत रहा हूँ।वह भी एक सुखी जीवन जीना चाहता था अपने परिवार के साथ।
चार दिनों बाद पगफेरे के लिए सुबह जाकर शाम को ही वापस लौट आई दिव्या।वह नहीं चाहती थी कि उसकी तरह उसके परिवार के लोग भी अभी से दुखी और परेशान हो जाएं।तीन-चार दिनों में उसने स्वयं को कुछ सम्हाल लिया था।दिव्या ने रवि से वादा लिया था कि इस बात का पता दोनों परिवारों को अभी नहीं चलना चाहिए कि उसे सारी कहानी ज्ञात है।
सास-ससुर के लिए तो मन नफरत से भरा हुआ था दिव्या का,जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए उसका जीवन दांव पर लगा दिया था,परन्तु रवि के प्रति सहानुभूति के साथ साथ प्रेम भी था, प्रेम तो सगाई के बाद से ही हो गया था।
दिव्या ने प्रयास किया कि यदि मैच कर जाय तो अपनी एक किडनी रवि को ट्रांसप्लांट करवा दे, जिससे कुछ तो समय मिल जाए,परन्तु रवि ने दृढ़ता से मना कर दिया।
एक माह का ही साथ मिल पाया था, अंततः रवि उसे बिलखता छोड़कर इस नश्वर संसार से पलायन कर गया।दिव्या के परिवार पर तो पहाड़ ही टूट पड़ा था, उन्हें तो वास्तविक कारण तक ज्ञात नहीं था।तेरहवीं के कुछ दिन बाद ही वे दिव्या को अपने साथ ही ले आए थे, हालांकि सास-ससुर ने तो रोकना चाहा था।
जो घाव समय देता है वही वक़्त धीरे धीरे उसकी पीड़ा को भी कम करता है।वक़्त के साथ दिव्या भी अपने दुःखों से उबरेगी।परन्तु जो अपने स्वार्थ के कारण किसी का जीवन बर्बाद कर देते हैं, वे भर्त्सना के पात्र हैं।यदि एक संतान हो भी जाती तो भी पूरी जिंदगी दिव्या को एकाकीपन में ही तो गुजरना पड़ता।आकस्मिक दुर्घटना पर किसी का वश नहीं होता, लेकिन जानते-समझते किसी को कुँए में धकेलना या धोखा देना अक्षम्य अपराध है।
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