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आधार - 21 - परिश्रम-शीलताउन्नति की प्रथम सीढ़ी है।

परिश्रम-शीलता
उन्नति की प्रथम सीढ़ी है।
परिश्रम का विशेष महत्व है। परिश्रम के बिना मनुष्य तो क्या पशु पक्षियों का भी जीवन संभव नहीं है। प्रकृति का प्रत्येक प्राणी निर्धारित नियम के अनुसार प्रतिपल परिश्रम करता रहता है। छोटी सी चींटी से लेकर विशालकाय हाथी तक अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए परिश्रम करता है। परंतु मनुष्य के लिए परिश्रम का विशेष ही महत्व है। परिश्रम के बिना मनुष्य के जीवन की परिकल्पना ही असंभव है। यदि आप परीक्षा में उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण होना चाहते हैं, मनचाही नौकरी प्राप्त करना चाहते हैं, रोजगार में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, या सफल कलाकार बनना चाहते हैं अर्थात आप जिस क्षेत्र में भी कीर्तिमान स्थापित करना चाहते हो, तो वह बिना लगन व कठिन परिश्रम के संभव नहीं है। परिश्रम ही मानव की उन्नति का एकमात्र साधन है। परिश्रम के द्वारा हम वे सभी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं जिनकी दैनिक जीवन में हमें आवश्यकता होती है।
परिश्रम उस प्रयत्न को कहा जाता है जो किसी व्यक्ति द्वारा अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। इसके द्वारा कठिन से कठिन कार्य को भी संभव बनाया जा सकता है। एक प्राचीन कहावत है कि जो मनुष्य अपने पुरुषार्थ पर यकीन रखकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मन, वचन और कर्म से कठिन परिश्रम करता है, सफलता उसके कदम चूमती है। परिश्रम के द्वारा मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।
परिश्रम करने से यश और धन दोनों की प्राप्ति होती है। जो लोग मन लगाकर परिश्रम नहीं करते उनका जीवन सदैव दुःख तथा कष्ट से भरा रहता है। परिश्रम से हम धर्म, अर्थ, काम और यहाँ तक की मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। संसार इस बात का साक्षी है कि जापान, चीन, अमेरिका व सिंगापुर जैसे, राष्ट्रों ने जो आजतक तरक्की की है, उसकी उन्नति का एकमात्र रहस्य उस देश के निवासियों का जी तोड़ परिश्रमी होना है। परिश्रम चाहे शारीरिक हो या मानसिक, दोनों ही फल प्रदान करने वाले होते हैं। जिस प्रकार रस्सी की रगड़ से कुएं के मजबूत पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं, उसी प्रकार कठिन परिश्रम द्वारा दुरुह से दुरुह कार्य भी सरल हो जाते हैं। भारतवर्ष में भी अनेकों ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने परिश्रम से ही कामयाबी की मंजिलें प्राप्त की है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, आचार्य विनोबा भावे, भीमराव अंबेडकर, शहीद भगत सिंह तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक इत्यादि वे क्रांतिकारी थे जिनके अथक प्रयासों व कड़ी मेहनत के द्वारा देश को आजादी प्राप्त हुई।
आज हम जिन सुख-सुविधाओं का उपयोग कर रहे हैं वह चाहे पटरियों में दौड़ने वाली रेलगाड़ी हो, आकाश में उड़ने वाला हवाई जहाज हो, समुद्र में दौड़ने वाला पानी का जहाज हो, सड़कों पर चलने वाली कार, बस अथवा स्कूटर हो, बात करने के यंत्र हो, खाना बनाने के यंत्र हो, युद्ध करने के यंत्र हो, सब के सब हमारे विद्वान वैज्ञानिकों के कठिन परिश्रम का परिणाम है। यदि हमारे वैज्ञानिकों ने अपेक्षित परिश्रम ना किया होता तो हम आज भी पाषाण युग के समान कठोर जीवन व्यतीत कर रहे होते।
कड़ी मेहनत सफलता की कुंजी है यह एक प्रसिद्ध कहावत है जो हम अपने बचपन से सुनते आये हैं। हमारे माता-पिता, शिक्षक सभी हमें कड़ी मेहनत करने के लिए निर्देशित करते हैं ताकि हम जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकें। यह संसार अनंत सुख-संपत्ति, धन-धान्य से भरा हुआ है किन्तु इसका भोग वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसमें परिश्रम करने की लगन हो। परिश्रम के सामने तो प्रकृति भी झुक जाती है। परिश्रम ही ईश्वर की सच्ची साधना है। इसलिए महाकवि तुलसीदास ने ठीक ही कहा है कि :
“सकल पदारथ हैं जग मांही,
कर्महीन नर पावत नाहीं।”
अर्थात जीवन में कर्म की भूमिका प्रमुख है। इसके बिना जीवन का कोई अर्थ नही रह जाता। कर्म ही वह साधन है, जिसे करके मनुष्य जीवन पथ पर आगे बढ़ता है और मन चाहा लक्ष्य हासिल कर लेता है। कर्म हमारी सोच या सपने को मूर्त रूप देते हैं। ऐसा कोई भी कार्य नहीं होता जो परिश्रम से सफल ना हो। जो व्यक्ति दृढ़ प्रतिज्ञ होते हैं, उनके लिए भविष्य का कोई भी कार्य कठिन नहीं होता है।
वास्तव में बिना श्रम के जीवन की गाड़ी चल ही नहीं सकती है। श्रम से ही उन्नति और विकास का मार्ग खुलता है। केवल भाग्य के भरोसे बैठकर जीवन यापन संभव नहीं है। कुछ लोग भाग्य पर निर्भर रहकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि भाग्य जीवन में आलस्य को जन्म देता है और आलस्य मनुष्य के लिए एक अभिशाप की तरह होता है। जिसके चक्कर में पड़कर वह अपना संपूर्ण जीवन नष्ट कर बैठता है। आलसी व्यक्ति के मन में हीनता की भावना उत्पन्न हो जाती है। जो उसे पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ कर कायर बना देती है। आलसी व्यक्ति समयाभाव का बहाना बनाकर परिश्रम करने से बचने का प्रयास करता है। उसके लिए छोटे-छोटे कार्य पहाड़ की तरह दुर्लभ जान पड़ते हैं। ऐसे आलसी व्यक्तियों का जीवन में उन्नति प्राप्त करना एक दिव्य स्वप्न ही बनकर रह जाता है।
फुरसत न मिलने का बहाना बहुत ही झूठा बहाना है। मनुष्य को जिस विषय में दिलचस्पी हो उसके लिए उसे थोड़ा बहुत समय अवश्य निकालना चाहिए। इच्छित विषय का निरंतर अभ्यास एक दिन आपको निपुणता प्रदान करता है जो भविष्य में आपके यश और कीर्ति का माध्यम बनता है। प्राचीन समय में हमारे पूर्वज श्रम परायणता का महत्व भली-भांति समझते थे। इसलिए उन्होंने धार्मिक कृत्यों में इसे अत्यंत उच्च स्थान प्रदान किया था। तपस्या इसी का पर्याय है। श्रेष्ठ, उचित और उन्नतिशील कार्यों के लिए परिश्रम करना और उस मार्ग में जो कष्ट आते हैं उन्हें सहन करना ही तपस्या की परिभाषा है। हमारे ऋषि-मुनि अपने जीवन में अधिकांशतः तपस्यारत रहते थे और बड़ी ही कठिन और विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए समाज के कल्याण के लिए तप किया करते थे। जिस कारण उनकी कीर्ति और यश आज भी हमारे समाज में विद्वान है।
पर्वतों की शिखर की यात्रा करने वाले जानते हैं कि उनके पैरों को समतल पर चलने वाले मनुष्यों की अपेक्षा अधिक कार्य करना पड़ता है। जिन मनुष्यों के पैर इस श्रम साध्य कार्य को कर सकने को तैयार होते हैं वे ही ऊंचे स्थान पर पहुंच सकने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। ऊपर से नीचे आना आसान है परंतु चढ़ना काफी परिश्रम का कार्य है। इसी प्रकार जीवन को अवनति के गड्ढे में पटक देने वाले कुविचार आसानी से क्रिया रूप में आ जाते हैं, परंतु उन्नति की ओर ले जाने वाले सुविचार अत्यंत प्रयत्न, संघर्ष और परिश्रम से प्राप्त होते हैं।
सदा सर्वदा परिश्रमी व्यक्ति की विजय होती है। जो व्यक्ति कर्मशील और परिश्रमी होता है, केवल वही अपने जीवन में आने वाली बाधाओं और कठिनाइयों पर अपने परिश्रम के बल पर विजय प्राप्त कर सकता है। यदि हम परिश्रम ना करें तो हमारा खाना-पीना, उठना-बैठना तक संभव ना हो पाएगा। जिस प्रकार सूर्य अपने प्रकाश से अंधकार को दूर भगा देता है, ठीक उसी प्रकार परिश्रम से मानव जीवन सुखमय बनता है और परिश्रमी व्यक्ति का भविष्य उज्जवल हो जाता है। परिश्रम के बिना तो उन्नति और विकास की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। परिश्रम से मनुष्य के जीवन में अनेकों लाभ होते हैं। जो मनुष्य परिश्रम करता है उसके मन से किसी भी प्रकार की दूषित भावनाएं या तो जन्म ही नहीं लेती या खत्म हो जाती हैं, उसके पास व्यर्थ की बातों के लिए समय नहीं होता। जिसे परिश्रम करने की आदत होती है उसका शरीर रोगों से मुक्त और हष्ट-पुष्ट रहता है। परिश्रमी व्यक्ति का शरीर गंगाजल की तरह पवित्र हो जाता है।
परिश्रम एक ऐसे कल्पवृक्ष की तरह है जिसके द्वारा मनुष्य अभी वस्तुओं को अभी प्राप्त कर सकता है। यह वह शक्ति है जिससे धन, वैभव और यश प्राप्त किया जा सकता है। परंतु यदि मनुष्य अपने परिश्रम को नकारात्मक और विनाशकारी कार्यों में प्रयुक्त करता है तो मनुष्य अपयश को प्राप्त कर अपना जीवन समाप्त कर लेता है। जिस प्रकार विद्युत शक्ति से बड़े-बड़े कारखानों को चलाया जा सकता है और दूसरी ओर इसी विद्युत शक्ति से इसी निरीह प्राणी की जान भी ली जा सकती है। उसी प्रकार परिश्रम के द्वारा भले-बुरे, उचित-अनुचित सभी प्रकार के कार्य सिद्धि किए जा सकते हैं। जो मनुष्य आध्यात्मिक प्रकृति के होते हैं वे अपने परिश्रम को समाज कल्याण के लिए प्रयोग करते हैं।
आज के युग में जहाँ तकनीक इतनी बढ़ गयी हैं, वहीं लोगों की परिश्रम करने की क्षमता में कमी आई है। परन्तु हमें यह याद रखना चाहिए कि जीवन में हमें सफलता के लिए संघर्ष करना पड़ता है और संघर्ष के लिए कड़ी मेहनत अनिवार्य है। कड़ी मेहनत के बिना, बस भाग्य के सहारे बेकार बैठकर, सफलता प्राप्त करना नामुमकिन हैं।
सच्ची लगन और निरंतर परिश्रम से सफलता अवश्य मिलती है। परंतु अनेक बार हमें एहसास होता है कि बहुत परिश्रम और अच्छे कर्म करने के पश्चात् भी हमें सफलता प्राप्त नहीं हो रही है। ऐसे में हम अपनी जिन्दगी से हताश या निराश होकर अपने भाग्य को कोसने लगते हैं। इसका कारण हम सभी जानते हैं पर अंधी भौतिकता की चकाचौंध में सबकुछ विस्मृत कर देते हैं। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे संस्कार हमारे भाग्य से जुड़े होते हैं। जीवन में किए गए सभी नकारात्मक कार्य हमारी उन्नति में बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं। यदि वैज्ञानिकता के आधार पर इसको समझने का प्रयास किया जाए तो हम पाएंगे कि हमारे द्वारा दूसरे व्यक्तियों के साथ किए गए सभी दुर्व्यवहार हमारे चारों ओर ऋणात्मक चुंबकीय तरंगों का आवरण तैयार कर देते हैं। जिस आवरण को हमारे द्वारा किए गए सकारात्मक कार्य भी तोड़ नहीं पाते और परिणाम होता है कि हम नकारात्मकता का शिकार हो जाते हैं। यदि सीधे शब्दों में कहा जाए तो हमारे द्वारा किए गए सभी बुरे कार्य हमारे संस्कारों को विकृत कर देते हैं जिसका परिणाम होता है कि हम परिश्रम करने के बावजूद मनचाही सफलता प्राप्त नहीं कर पाते हैं। हमें इस बात का आभास नहीं होता है परंतु हमारे अच्छे और बुरे संस्कार, जिन्हें हम गुण और अवगुण कहते हैं, ना केवल हमारे व्यक्तित्व की पहचान बनते हैं, बल्कि हमारे पुरुषार्थ में भी भागीदार होते हैं। अगर हम अपनी मजबूत इच्छा शक्ति से अच्छे संस्कारों को बढ़ाते हैं और बुरे संस्कारों का विनाश करते हैं, तब न्यूनतम परिश्रम से भी अपार सफलता का मार्ग खुलने की संभावना प्रबल हो जाती है। इसलिए हमें अपने संस्कारों को जितनी जल्दी हो सके अच्छे बना लेना चाहिए।
अतः परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि वह हमें चरित्रवान, ईमानदार, परिश्रमी और स्वावलंबी बनने का आशीर्वाद प्रदान करें। जिससे हम अपने जीवन और राष्ट्र की उन्नति में अपेक्षित सहयोग प्रदान कर परम शांति का अनुभव कर सकें।
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