DAIHIK CHAHAT - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

दैहिक चाहत - 16

उपन्‍यास भाग—१६

दैहिक चाहत –१६

आर. एन. सुनगरया,

छुट्टी के दिन का अपना जुदा ही असर रहता है, माहौल पर, दिनचर्या पर, आदतों पर दिल-दिमाग अथवा मानसिकता पर..........ऐसे ही स्‍वाभाविक प्रभाव में शीला, अपने केश, सेम्‍पु बगैरह से धोकर, सोफे पर किनारे में पंखे के नीचे जुल्‍फें सुखा एवं सुलझा रही थी। उसी वक्‍त देव अवकाश का आनन्‍द एवं सदोपयोग की योजना के अन्‍तर्गत मन-ही-मन निर्धारित करके, सोफे के दूसरे किनारे आकर बैठ गया, ‘’पहली-पहली बरसात में सौंधी-सौंधी सुगन्‍ध हॉल में बिखर जाती है, उसी की भॉंती गहरी गदराई, बहकी-बहकी मन्‍द-मन्‍द खुशबू जबरजस्‍त अपनी ओर खींच रही है। यकीनन, खुली-खुली, बिखरी-बिखरी, तितर-बितर, लम्‍बी–लम्‍बी जुल्‍फों के साथ-साथ व्‍यस्‍क तन-बदन की मस्‍त मांदक मतवाली, मधुर-मधुर महक जर्रे-जर्रे में व्‍याप्‍त महसूस हो रही है। देव अपने आपको सम्‍भालने, संतुलित होने, नियन्त्रित करने का प्रयत्‍न क्‍यों करेगा, जब साक्षात सरल, सुलभ, सामने ऐसा अनुपम उपवन सा नजारा हो.........। प्रभावित देव तत्‍काल सोफे पर ही लेट गया, शीला की जॉंघ पर, सिरहाने की तरह सर रखकर, अपलक शीला के गोरे-गोरे, उजले-उजले, लावण्‍य से उद्दीप्‍त चेहरे को निहारते हुये आनन्दित महसूस कर रहा है। शीला को अन्‍दाज था ऐसे दृश्‍य का, उसने भी अपनी लटों को चेहरे के चारों ओर लटका दिया, चम्‍पा-चमेली की कलियों की लडि़यों भॉंति.......जुल्‍फों के झुरमुट नुमा घेरे में रूबरू शॉंत सूरत, परस्‍पर नजरों के नशीले जाम-दर-जाम का अपूर्व रसपान करते हुये आनन्‍द विभोर, अन्‍तर्मन में शाश्‍वत क्षणों को सहेज रहे हैं। संतृप्ति, संतुष्टि पश्‍च्‍चात शीला ने अपनी घनी जुल्‍फों को मुण्‍डी के हल्‍के हसीन झटके से पीछे उछाल दिया, करीने से। केश लडि़यों का घेरा हट गया। मगर मुद्रा में कोई बदलाब नहीं हुआ।

देव का स्‍वर, ‘’समुद्र के निकट जाकर ही ज्ञात होता है कि वह कितना विशाल होता है। उसकी लहरें, कितनी ऊँची-ऊँची उछल-उछल कर क्रीड़ा करती हैं। शीला की मुण्‍डी अपने चेहरे के समीप झुका कर, ‘’तुम्‍हारी भरी-भरी, नरम-नरम, मुद्देदार जॉंघों पर सर रखकर, अभूतपूर्व अनुभूति, राहत, विश्राम महसूस कर रहा हूँ। शरीर की संयुक्‍त सुहानी सुगन्‍ध शमा गई दिल-दिमाग में, सदा-सदैव के लिये.........।‘’

‘’लिव-इन........।‘’ देव उठकर सोफे पर सामान्‍य मुद्रा में बैठ गया, ‘’कोर्ट मैरिज की डेट मिल जाये, जल्‍द से जल्‍द जगजाहिर रिश्‍ता होना अत्‍यावश्‍यक है, फार्मली !’’

‘’’’बेटियों को कॉन्‍फीडेन्‍स में लेना........।‘’

‘’दोनों बेटियॉं आज्ञाकारी हैं, फिर भी, उन्‍हें विश्‍वास में लेना तुम्‍हारा काम है।‘’ देव बोल पड़ा, ‘’मैं अपने लेवल के कार्य कलापों को ताबड़-तोड़, भाग-दौड़ कर कम्‍पलीट करने में लगा हूँ।‘’ सम्‍पूर्ण औपचारिकताओं के समय निर्धारित हो चुके हैं। कब कौन सी फार्मिलिटी सम्‍पन्‍न होगी !’’ देव ने जानकारी दी, व्‍यवस्थित काम की।

तमाम तरीकों से सोच-विचार, मंथन, मनन, वैचारिक दृष्टिकोण, हर हालत में कोशिश करने के बावजूद भी साहस नहीं हो रहा है, कैसे बता पाऊॅंगी बेटियों को कि........मैंने पुनर्विवाह करने हेतु एक सज्‍जन, सुटेवल पुरूष को पसन्‍नद कर लिया है। वैसे तो हर विषय पर खुलकर स्‍पष्‍ट चर्चा, बल्कि लम्‍बी बहस जो जाया करती है, नरम-गरम। परन्‍तु इस सब्‍जेक्‍ट पर मुँह नहीं खुल पा रहा है। बेटियॉं ना भी सोचें, मगर समाज तो आलोचना करने से चूकेगा नहीं, ‘’शादी लायक जवान बेटियॉं होते हुये,……मॉं पर शादी का शौक चढ़ रहा है। सारी लाज-शरम-मर्यादा को ताक पर रखकर, चली है, दूसरी शादी करने.......।‘’

जबकि बेटियों ने पूर्ण मन से अनुमति दे दी है कि पहले आपकी शादी होनी चाहिए, इसके बाद ही हमारी शादी के बारे में सोचेंगे.........। मॉम का घर-द्वार फिक्‍स होना आवश्‍यक है।

समाज-जात-बिरादरी जो कुछ भी सोचे, समझे, कहे, कहता रहे...........हमें तो अपने आप की सुविधा अनुसार निर्णय लेने का पूरा हक है..........। हॉं सामाजिक परम्‍पराओं, परिपाठी को पूर्ण रूप से निवाहते हुये, मर्यादाओं में रहकर सर्वमान्‍य जीवनोपयोगी कार्य करने में कोई हर्ज तो नहीं है। वर्तमान समाज इतना लचीला एवं सुविधाजीवी हो गया है कि जब तक उसकी सीमा रेखा के अन्‍तर्गत कार्य होगा, तब तक कोई आवाज उठाने की आवश्‍यकता नहीं समझेगा। बल्कि सारी स्थिति, परिस्थिति को गौर करके प्रोत्‍साहित ही करेगा। आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार पुनर्विवाह करना वर्जित नहीं है। ये तो अब मानवतावादी दृष्टिकोण के लिहाज अनुसार प्रत्‍येक जात, बिरादरी के समूहों में स्‍वीकृत है। शारीरिक एवं प्राकृतिक दृष्टि से भी अत्‍यन्‍त आवश्‍यक है। स्‍वीकार योग्‍य है.........।

देव बहुत ही प्रसन्‍नचित अन्‍दाज में लपकता हुआ, शीला के करीब आकर रूक गया। शीला ने शॉंत सामान्‍य मुस्‍कुराहट से उसका स्‍वागत किया, ‘’बैठो।‘’

देव बैठने के साथ ही, बताने लगा, ‘’आज की उपलब्‍धी, बगल वाला बंगला, एलॉट हो जायेगा। अप्‍लाई करके आ रहा हूँ।‘’ आगे बोला, ‘’दोनों आवास बगल-बगल हो जायेंगे, सुविधाजनक रहेगा।‘’

‘’कॉंग्रेचुलेशन !’’ शीला ने खुशी जाहिर की, ‘’बहुत अच्‍छा ।‘’

‘’आगे जानकारी ये है।‘’ देव ने शीला को गोपनीय कार्यवाही का खुलासा किया, ‘’मैंने अपनी नॉमिनी के कॉलम फर्निश कर दिये, जिसके अनुसार, फिफ्टी प्रतिशत शीला, शेष पच्‍चीस, पच्‍चीस प्रतिशत दोनों बेटियों के नाम पर दर्ज कर दिया है।‘’ बहुत ही गम्‍भीर एवं दायित्‍वपूर्ण लहजे में संतोष व्‍यक्‍त किया, ‘’इससे मुझे अभूत पूर्व सुख शॉंति, आत्‍मतृप्ति महसूस हो रही है। मुझे प्र‍तीत हुआ, अब मेरी फैमिलि पूर्ण हो गई। इसी के लिये जीना है और..........।‘’ शीला ने उसके औंठों पर हथेली रखकर कहा, ‘’आगे कुछ मत बोलो, मैं समझ रही हूँ, क्‍या बोलने वाले हो........।‘’ शीला ने पुन: चेतावनी दी, ‘’भूलकर भी ये शब्‍द जुबान पर मत लाना।‘’ शीला भावुक हो गई। ‘’भटकते-भटकते इधर-उधर कटी पतंग की माफिक डोलते-डोलते किनारा मिला है।‘’

दोनों एक-दूसरे की गोद में सिमटकर भावनाओं के सैलाब को निष्क्रिय करने हेतु परस्‍पर शांतवना देते हुये, कसकर थामें बैठे रहे..........।

देव हल्‍के-हल्‍के सुबकते-सुबकते बोला, ‘’सब कुछ व्‍यवस्थित करना है। अमन चैन की ख्‍वाईश है।‘’

निश्चिन्‍त हो जाओ, तुम्‍हें समुचित सम्‍मान, अपनापन, प्रीत, सम्‍वेदनशीलता, स्‍वाभाविक मान-मर्यादा.......इत्‍यादि सब कुछ प्राप्‍त होगा।‘’ शीला ने आस्‍वस्‍त किया, ‘’परिवार के मुखिया की भॉंति तुम्‍हें सम्‍पूर्ण अधिकार प्राप्‍त होना सुनिश्‍चित है। इसमें कोई कोताही कभी नहीं होगी।‘’ शीला आगे बोलती गई, ‘’तनिक भी, बात-व्‍यवहार में अनदेखा करने का आभास भी हुआ तो मैं, आपकी शीला बीच में आऊँगी। मैं सदैव तुम्‍हारे हाथ में हाथ पकड़े साथ खड़ी रहूँगी हर हाल में, यह मेरा आत्‍म संकल्‍प है।‘’

माहौल ने काफी गम्‍भीरता ले ली। रिश्‍तों के उच्‍च आदर्श, ऊँचे मापदण्‍ड का सैलाब आ गया, जिसमें शीला बहे जा रही है। देव ने तत्‍काल उसको सहारा दिया, ‘’बस-बस..........और क़समें वादे...........बिलकुल नहीं।‘’ दोनों ने अपनी-अपनी बाहें फैला दीं। दोनों एकल होकर ख्‍यालों के नजारों में गुम हो गये.........।

देव चाहता है, फैमिलि की जितनी भी जिम्‍मेदारियॉं होती है, दीर्घकालिक‍ तथा तात्‍कालिक समग्र दायित्‍व अपने सर पर धारण कर ले। उन्‍हें स्‍वाभाविक रूप से निर्वहन करने में अपनी पूरी ऊर्जा लगाना चाहता है। ताकि किसी को भी दुर्भावनावश यह कहने का अवसर ना मिले कि सौतेला बाप होने के नाते सिर्फ सामान्‍य औपचारिकता निभा रहा है। विवश होकर। सच्‍चे दिल, पारदर्शीता-पूर्वक देव हर छोटी-बड़ी समस्‍या, आवश्‍यकता को महत्‍वपूर्ण समझकर टैकल करके साबित करना चाहेगा, तभी तो सबका विश्‍वास जीत पायेगा, प्रत्‍येक्षदर्शी कह उठें, सौतेला पिता होने के बावजूद भी सगे, नैशर्गिक, जेनरिक पिता भी क्‍या करेगा, इतना देव कर रहा है। स्‍वीकृत पिता। दत्तक पिता। उज्‍जवल भविष्‍य के प्रयासों में कोई कोताही नहीं होने देगा, सदैव, सुपरिणामों के लिये प्रयासरत रहता है, जी-जान से..........।

‘’अत्‍यन्‍त व्‍यस्‍त हो।‘’ देव ने द्वार प्रवेश करते ही शीला ने पूछा, ‘’बन-बाई-बन स्‍टेप्‍स में भी तो काम हो सकता है।‘’

‘’इसमें समय लगेगा।‘’ देव ने अपनी मंशा बताई, ‘’वही तो मेरे पास नहीं है।‘’ देव निराश हो गया, ‘’अधिकांश समय फिजूल खो चुका हूँ।‘’

‘’रेस्‍ट भी आवश्‍यक है।‘’

‘’लो तुम्‍हारे पहलू में बैठ कर ले लेता हूँ विश्राम।‘’ कहते हुये देव, आगे बढ़ा, शीला हंसते हुये पीछे हट गई........।‘’

गम्‍भीर लहजे में देव बोलने लगा, ‘’असल में फैमिलि आत्‍मसात होने के बाद, उसकी बेहतरी के लिये ही दिमाग चलता है, चलना चाहिए। तभी तो परिवार की प्रफुल्‍लता, हंसी-खुशी, संतोष देकर मुझे भी शुकून की, तृप्ति की अनुभूति होगी, जब बेटियॉं अपने अधिकार और स्‍नेह पूर्वक कुछ मॉंग करेंगी कुछ नया करने से पहले मुझे अवगत करायेंगी, मुझसे अनुमति लेगीं ! मैं ना-नुकर करके उनकी मॉंग मान लूँगा। कितनी सुखद अनुभूति होगी, उन्‍हें खुशी-खुशी चहकते हुये देखकर, निर्मल हृदय से। अभूतपूर्व आनन्‍द की खुशहाली से गदगद हुये वगैर नहीं रह सकूँगा। ये क्षण शीघ्र-अति-शीघ्र प्राप्‍त कर लेना चाहता हूँ।‘’

शीला को देव की अस्थिर मानसिकता का आभास हुआ, देव को सलाह दी, ‘’आप धैर्यपूर्वक कार्यवाही करें सम्‍पन्‍न। सामान्‍य तरीके से.......समय-सीमा को निर्धारित करने से व्‍याकुलता बढ़ती है, जो कार्य जितने समय में होना निश्चित है, उतना समय तो देना होगा। प्रतीक्षा करना आवश्‍यक है। शीघ्रता करने में हानि की सम्‍भावनाऍं रहती हैं। सुचारू कार्य के लिये पर्याप्‍त समय तो देना ही होगा, धैर्यपूर्वक........।‘’ शीला ने विस्‍तार से समझाया.........। आगे कहा, ‘’यादों के भंवरजाल से निकलकर ही जीवन जीना सुखमय, सार्थक, श्रेष्‍ठ होता है, अन्‍यथा अनचाहे थोपे गये तपस्‍वी जीवन में कुदरती कामवासनाओं, इच्‍छाओं, कोमल स्‍वाभाविक भावावेश के उठते बवन्‍डरों को नियंत्रित करने में ही असफल प्रयास करते-करते जीवन का अन्‍त हो जायेगा।‘’ शीला ने अपनी शार्प कल्‍पना शक्ति के आधार पर की गई सम्‍भावित यथास्थिति के आंकलन का खुलासा किया। आगे बताया, ‘’जिन्‍दगी के सुखद सौपान के उतार-चढ़ाव समय-बे-समय खुशहाली के क्षणों का एहसास अनायास ही कराते-कराते जीवन की प्रासंगिकता का आभास होता रहेगा, हृदयांगन में.........।‘’

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

क्रमश:---१७

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय- समय

पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं स्‍वतंत्र

लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍