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टेढी पगडंडियाँ - 8

टेढी पगडंडियाँ

8

किरण को तीनकोनी से बसस्टैंड तक अकेले सफर करना पङता । रास्ता बेशक पाँच मिनट का ही था पर किरण की साँस ऊपर ही कहीं अटक जाती । अब तक किरण ने छोटे छोटे बसस्टैंड देखे थे । उसके गाँव वाले बस अड्डे पर तो मुश्किल से आठ दस लोग होते । वो भी वहाँ अड्डे पर बनी दो तीन दुकानों पर अखबार पढने या रेडियो पर खबरें सुनने आये लोग । ये लोग खबरें पढते , फिर आपस में उस पर चर्चा करते । कभी कभी वह चर्चा बहस में बदल जाती । लगता ये लोग थोङी देर में बुरी तरह से लङ पङेंगे पर कुछ मिनटों में ही सब सामान्य हो जाता और थोङी देर बाद ही वे फिर से किसी नयी बात पर बहस में उलझ जाते । कोई बस आकर रुकती तो उन बैठे हुए लोगों में से दो चार लोग उस बस में सवार हो जाते । बाकी फिर से अपनी खबरों में मस्त हो जाते । देश की , दुनिया की खबरों के साथ साथ गाँव टोले के समाचार भी दिये लिये जाते । किस बहु की अपनी सास से नहीं बनती । किसका बेटा शहर जाकर बस गया और माँ बाप की सुध नहीं लेता । किसका बेटा निरा पूरा जोरू का गुलाम है । किसकी गाय भैंस ने कटरु , बछिया दी । किसकी लङकी का किसके साथ चक्कर चल रहा है , सब बातें यहीं चर्चा में खुलती । सारे समाचार पाकर ये लोग अपने अपने कामधंधे पर चले जाते और ये अड्डा सूना हो जाता । रास्ते में पङने वाले दोनों अड्डे इस गाँव के अड्डे से भी छोटे थे । गाँव अड्डे से दूर थे । वहाँ सङक से दिखाई नहीं देते । कोई दुकान नहीं । न कोई गाछ । एकदम सुनसान उजाङ सी जगह । किसी एन जी ओ ने टीन की छत डालकर दो बैंच डलवा दिये थे जहाँ से रोज काम पर जाने के लिए चार पाँच लोग चढा करते । और तीनकोनी वाला बसस्टैंड । वह तो कालेज की लङकियों के लिए स्पैशल स्टाप था जहाँ सभी बसें रुकती और लङकियों को उतारकर आगे फौजी चौक के लिए बढ जाती । काम की तलाश में आये गाँवों के लोग भी वहीं उतरा करते । किरण की बस से वे तीन लङकियाँ हर रोज यहाँ उतरा करती ।
ऐसे में किरण जब पहली बार बठिंडा के बसस्टैंड पर पहुँची तो उसकी साँस ऊपर की ऊपर नीचे की नीचे ही रह गयी । इतना बङा अड्डा । उसके पूरे गाँव से भी बङा । इतने बङे शहर का बस अड्डा बङा तो होना ही हुआ पर इतना विशाल होगा , उसने सपने में भी नहीं सोचा था । हर तरफ आङी तिरछी खङी दसियों बसें । कुछ में सवारियाँ बैठी बस के चलने का इंतजार कर रही होती । बाकी सवारिया बाहर खङी अपनी बस का इंतजार कर रही होती । कितने तो काऊंटर ही बने थे जिन पर अलग अलग शहरों के नाम लिखें थे । हर काऊंटर पर बस लगी हुई थी । कंडक्टर, ड्राइवर बस में बैठाने के लिये लोगों को पुकार रहे थे । हजारों लोग इधर उधर आ जा रहे थे । यहाँ कितनी सारी तो दुकानें थी । फलों की , जूस की , खाने पीने की , अखबारों की और भी न जाने क्या क्या बिक रहा था इन दुकानों में । सब तरफ अजीब सी चीख पुकार मची थी । हर तरफ शोर ही शोर । वह कितनी देर तक बौराई सी आँखें फाङ फाङ कर इधर उधर देखती रही । फिर उसे दूसरी बस से उतरती हुई कुछ लङकियाँ दिखाई दी जिनके हाथ मे किताबें थी , जो बस से उतरकर अड्डे से बाहर की ओर जा रही थी । वह भी धीरे से उनके पीछे हो ली । बसस्टैंड के बाहर चौंक पर भी कई बसें सवारियों के इंतजार में खङी थी । कुछ आदमी सवारियों को घेर घेर कर ला रहे थे और बसों में बैठा रहे थे । वह चुपचाप सिर झुकाये उन लङकियों के साथ चलती रही । करीब डेढ किलोमीटर चलने के बाद वे सब आखिर कालेज पहुँच गयी ।
यह कालेज शहर का सबसे पुराना और प्रतिष्ठित कालेज था । इसमें सहशिक्षा का विधान था । सभी ग्रैजुएट और पोस्टग्रैजुएट विषय यहाँ पढाए जाते थे । सङक पर ही कालेज का मुख्य द्वार बना था । मुख्य गेट पार करने के बाद बङे बङे मैदान थे जिनमें हरी हरी घास लगी थी । उन्हें पार करने के बाद फिर बङे गलियारे और बरामदे । उन गलियारों में से एक गलियारे में प्रिंसीपल का और क्लर्क का दफ्तर था । सामने वाले दूसरे गलियारों में कक्षाएँ दिखाई दे रही थी । घास पर गलियारों और बरामदों में यहाँ वहाँ लङके और लङकियाँ दो दो चार चार का झुंड बनाये खङे थे । कुछ मैदान में घास पर अधलेटे हो रहे थे । हर तरफ बातों और ठहाकों के दौर जारी थे । वह कुछ देर तो असमंजस में वहाँ खङी रही फिर आगे बढकर क्लर्क के दफ्तर चली गयी । दफ्तर का स्टाफ अभी पहुँचा नहीं था तो उसे वहीं इंतजार करना था । बाहर जाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई । वहाँ हर निगाह उसे अपने बदन पर चिपकी दिखाई दे रही थी । वह चुपचाप दीवार से सटी क्लर्क के आने का इंतजार करने लगी । एक कोने में चपरासी बैठा अखबार का पंखा बनाकर चेहरे को हवा देने की कोशिश कर रहा था । दस बजते बजते सारा स्टाफ पहुँच गया तो उसने अपनी कापी में से मुङा तुङा फार्म निकाला । ये फार्म तीन दिन पहले बीरा आकर ले गया था । उसने एक बार सरसरी निगाह से फार्म जाँचा । कोई खाना खाली तो नहीं रह गया । अच्छी तरह से दो बार देख कर जब पूरी तसल्ली हो गयी तो उसने फार्म जमा कर दिया । फीस के पैसे देकर वह दफ्तर से बाहर आई तो एक गुरुतर काम होने की तसल्ली उसके मन को शान्त कर गयी ।


बाकी कहानी अगली कङी में ...