TEDHI PAGDANDIYAN - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

टेढी पगडंडियाँ - 10

टेढी पगडंडियाँ

10

उस पूरे दिन के लैक्चरों में किरण को न कुछ सुना , न उसे कुछ समझ में आया । वह मूर्खों की तरह मुँह खोले इस माहौल को समझने की कोशिश करती रही । पूरे दो साल हो गये थे उसे शहर पढने के लिए आते हुए , पर एक तो वह सिर्फ लङकियों का कालेज था जहाँ सिर्फ और सिर्फ लङकियाँ पढती थी । मोटरसाइकिल या फिर साइकिल पर गेङियाँ मारते मनचले लङके और उनके सारे कमैंट हर रोज कालेज की चारदीवारी से बाहर ही रह जाते थे । दूसरे अपरिचय के कारण वे दूर से ही देखते और जब वे कालेज के बङे से गेट के भीतर चली जाती तो वे भी मुङ जाते थे । बहुत ज्यादा परेशान नहीं करते थे । साल में दो चार लङकियाँ उनकी चिकनी चुपङी शक्ल देख उनके प्रेमजाल में फँस ही जाती थी जिन्हें वे कालेज छूटते ही गुटरगूँ करते हुए मोटरसाइकिल पर बैठाकर सिनेमा दिखाने या चाट पकौङी खिलाने ले जाते थे । या फिर रोज गार्डन की हरी घस पर फूलों की क्यारियों में हाथ में हाथ लिए बैठे रहते । साथ ही चाकलेट जैसे छोटे मोटे उपहार उन्हें देते रहते फिर एक दिन उन्हें अधर में लटका छोङ कहीं गायब हो जाते । बाकी लङकियाँ अपने में मस्त अपने काम से काम रखती । सीधे कालेज आना , सीधे कालेज से घर जाना । पर यहाँ इस कालेज में उसे सारा दिन लङकों के साथ बैठकर एक ही कमरे में पढना था और ये लङके पढाई की जगह मौजमस्ती के मूड में अधिक दिखाई दे रहे थे । तीन बजे जब वह कालेज से निकली तो पीछे से किसी का कमैंट सुनाई दिया – औए टयूबलाईट ।
दूसरे ने कहा – नहीं रे , टयूबलाईट नहीं , मक्खन - मलाई का दोना बोल ।
रिन की चमकार है निरी – यह तीसरा था ।
लगता है , रिन की पूरी टिक्की से नहा के आई है आज । सफेदी की चमकार देख ।
वह यह सब अनसुना करके चुपचाप चलती गयी । कब वह बस में बैठी और कब उतरी , उसे कुछ पता नहीं । बिल्कुल सीधा सादा वेश । कोई बनाव सिंगार नहीं । न कोई काजल न बिंदी । बीरे ने उसे सस्ते से तीन सूट बनवा दिए थे जिन्हें पङोस वाली राधा चाची के पास बैठकर उसने खुद ही सिल लिया था । कस कर बाँधी गयी चोटी जो चलते समय नागिन की तरह कमर पर झूमती रहती । रंग रूप तो ईश्वर की देन था वह कैसे छिपता । जहाँ कालेज की बाकी लङकियाँ तरह तरह के प्रसाधन चेहरे पर पोत कर आई थी , वह एकदम सादा ही कालेज पहुँची थी पर एक तो गोरा रंग ऊपर से तीखे नैननक्श और कद पूरा सरू के बूटे जैसा । लङकों के दिल पर छुरियाँ चल गयी थी । बुरी तरह से घायल हो गये थे बेचारे । किरण इस सबसे उपराम चुपचाप रही पूरा दिन ।
घर आकर भी वह इसी तरह अन्यमनस्क बनी रही । रात में जब बीरा आया तो उसने हल्का सा हिन्ट दिया था उसे – भाई , शहर में लङके कुछ ज्यादा ही बदतमीज हैं न । कुछ भी बोलते रहते है ।
तू परवाह मत कर । मन लगाकर पढाई कर । ठीक है ।
दूसरे दिन उसे कालेज जाने के लिए तैयार देख बीरे ने पूछा था – मैं चलूँ तेरे साथ । कालेज तक छोङ कर वापिस आ जाऊँगा ।
नहीं भाई , अब तो रोज शहर जाना है , मैं चली जाऊँगी । तू अपना काम देख ।
शुरु के दस बारह दिन किरण के अजीब से तनाव में बीते । अक्सर उसे लोगों की घूरती निगाहों और बेतुकी बातों का सामना करना पङता । लङके बहाने से उसके पास आने की कोशिश करते पर किरण की उदासीनता देख पीछे हट जाते । उसके बाद धीरे धीरे सब सामान्य हो गया । ऐसा नहीं कि लङको ने उसकी ओर देखना और कमैंट करना बंद कर दिया था । लङके जब भी उसके पास से गुजरते , उनकी आँखें चौंधिया जाती । वे एकटक मुँह खोले उसे ताकते रह जाते । जब वह कुछ कदम आगे निकल जाती तो जैसे मोहनिद्रा से जागते और उसके रूप रंग को लेकर
एक दिन रोज की तरह वह बस से उतरी ही थी कि सामने से आती एक लाल रंग की फियेट कार ऐन उसके सामने आकर रुकी । किरण कार से बचती हुई बस स्टैंड से बाहर की ओर बढी । अभी वह बाहर निकल ही रही थी कि उसे पीछे से आवाज सुनाई दी – “ ओए चाचे , हत्थ लाये मैला होना इसे ही कहते हैं क्या “ ?
“ की मतलब ओए तेरा ? “ कहते हुए निरंजन ने गुरनैब की ऊँगली की सीध में देखा तो देखता ही रह गया ।
बसस्टैंड पर हलचल शुरु हो गयी थी । बस का इंतजार करते लोगों के दिल धङकने लगे थे । आज पता नहीं , कैसा दिन चढा है । ये चाचा भतीजे की जोङी न जाने क्या गुल खिलाएगी । किसकी शामत आनेवाली है , रब जाने । निरंजन और गुरनैब । चाचा भतीजे की जोङी । कहने को तो दोनों सगे चाचा भतीजा थे पर दोनों में फर्क था सिर्फ दो साल का । भतीजा दो साल बङा था और चाचा दो साल छोटा । दोनों चाचा भतीजा कम थे , भाई ज्यादा और भाई से भी ज्यादा पक्कमपक्के दोस्त । दोनों का प्यार सारे भटिंडा में मशहूर था । जहाँ जाते दोनों इकटठे जाते । अच्छे बुरे सारे करम , सारे वैल , ऐब , शरारतें , दंगे फसाद सब साझा । रिवाल्वर और बंदूकों के शौकीन । हमेशा भरी हुई रिवाल्वर साथ रहती ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...