Gunaho ka Devta - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

गुनाहों का देवता - 8

भाग 8

''अच्छा, अच्छा। देखिए आप सोचेंगी कि मैं इस तरह से मि. कपूर के बारे में पूछ रही हूँ जैसे मैं कोई जासूस होऊँ, लेकिन असल बात मैं आपको बता दूँ। मैं पिछले दो-तीन साल से अकेली रहती रही। किसी से भी नहीं मिलती-जुलती थी। उस दिन मिस्टर कपूर गये तो पता नहीं क्यों मुझ पर प्रभाव पड़ा। उनको देखकर ऐसा लगा कि यह आदमी है जिसमें दिल की सच्चाई है, जो आदमियों में बिल्कुल नहीं होती। तभी मैंने सोचा, इनसे दोस्ती कर लूँ। लेकिन चूँकि एक बार दोस्ती करके विवाह, और विवाह के बाद अलगाव, मैं भोग चुकी हूँ इसलिए इनके बारे में पूरी जाँच-पड़ताल कर लेना चाहती हूँ। लेकिन दोस्त तो अब बना ही चुकी हूँ।'' चाय आ गयी थी और पम्मी ने सुधा के प्याले में चाय ढाली।

''न, मैं तो अभी खाना खा चुकी हूँ।'' सुधा बोली।

''पम्मी ने दो-तीन चुस्कियों के बाद कहा-''आपके बारे में चन्दर ने मुझसे कहा था।''

''कहा होगा!'' सुधा मुँह बिगाडक़र बोली-''मेरी बुराई कर रहे होंगे और क्या?''

पम्मी चाय के प्याले से उठते हुए धुएँ को देखती हुई अपने ही खयाल में डूबी थी। थोड़ी देर बाद बोली, ''मेरा अनुमान गलत नहीं होता। मैंने कपूर को देखते ही समझ लिया था कि यही मेरे लिए उपयुक्त मित्र हैं। मैंने कविता पढऩी बहुत दिनों से छोड़ दी लेकिन किसी कवयित्री ने, शायद मिसेज ब्राउनिंग ने कहीं लिखा था, कि वह मेरी जिंदगी में रोशनी बनकर आया, उसे देखते ही मैं समझ गयी कि यह वह आदमी है जिसके हाथ में मेरे दिल के सभी राज सुरक्षित रहेंगे। वह खेल नहीं करेगा, और प्यार भी नहीं करेगा। जिंदगी में आकर भी जिंदगी से दूर और सपनों में बँधकर भी सपनों से अलग...यह बात कपूर पर बहुत लागू होती है। माफ करना मिस सुधा, मैं आपसे इसलिए कह रही हूँ कि आप इनकी घनिष्ठ हैं और आप उन्हें बतला देंगी कि मेरा क्या खयाल है उनके बारे में। अच्छा, अब मैं चलूँगी।''

''बैठिए न!'' सुधा बोली।

''नहीं, मेरा भाई अकेला खाने के लिए इन्तजार कर रहा होगा।'' उठते हुए पम्मी ने कहा।

''आप बहुत अच्छी हैं। इस वक्त आप आयीं तो मैं थोड़ी-सी चिन्ता भूल गयी वरना मैं तीन दिन से उदास थी। बैठिए, कुछ और चन्दर के बारे में बताइए न!''

''अब नहीं। वह अपने ढंग का अकेला आदमी है, यह मैं कह सकती हूँ...ओह तुम्हारी आँखें बड़ी सुन्दर हैं। देखूँ।'' और छोटे बच्चे की तरह उसके मुँह को हथेलियों से ऊपर उठाकर पम्मी ने कहा, ''बहुत सुन्दर आँखें हैं। माफ करना, मैं कपूर से भी इतनी ही बेतकल्लुफ हूँ!''

सुधा झेंप गयी। उसने आँखें नीची कर लीं।

पम्मी ने अपनी साइकिल उठाते हुए कहा-''कपूर के साथ आप आइएगा। और आपने कहा था कपूर को कविता पसन्द है।''

''जी हाँ, गुडनाइट।''

जब पम्मी बँगले पर पहुँची तो उसकी साइकिल के कैरियर में अँगरेजी कविता के पाँच-छह ग्रन्थ बँधे थे।

आठ बज चुके थे। सुधा जाकर अपने बिस्तरे पर लेटकर पढऩे लगी। अँगरेजी कविता पढ़ रही थी। अँगरेजी लड़कियाँ कितनी आजाद और स्वच्छन्द होती होंगी! जब पम्मी, जो ईसाई है, इतनी आजाद है, उसने सोचा और पम्मी कितनी अच्छी है उसकी बेतकल्लुफी में भोलापन तो नहीं है, पर सरलता बेहद है। बड़ा साफ दिल है, कुछ छिपाना नहीं जानती। और सुधा से सिर्फ पाँच-छह साल बड़ी है, लेकिन सुधा उसके सामने बच्ची लगती है। कितना जानती है पम्मी और कितनी अच्छी समझ है उसकी। और चन्दर की तारीफ करते नहीं थकती। चन्दर के लिए उसने सिगरेट छोड़ दी। चन्दर उसका दोस्त है, इतनी पढ़ी-लिखी लड़की के लिए रोशनी का देवदूत है। सचमुच चन्दर पर सुधा को गर्व है। और उसी चन्दर से वह लड़-झगड़ लेती है, इतनी मान-मनुहार कर लेती है और चन्दर सब बर्दाश्त कर लेता है वरना चन्दर के इतने बड़े-बड़े दोस्त हैं और चन्दर की इतनी इज्जत है। अगर चन्दर चाहे तो सुधा की रत्ती भर परवाह न करे लेकिन चन्दर सुधा की भली-बुरी बात बर्दाश्त कर लेता है। और वह कितना परेशान करती रहती है चन्दर को।

कभी अगर सचमुच चन्दर बहुत नाराज हो गया और सचमुच हमेशा के लिए बोलना छोड़ दे तब क्या होगा? या चन्दर यहाँ से कहीं चला जाए तब क्या होगा? खैर, चन्दर जाएगा तो नहीं इलाहाबाद छोडक़र, लेकिन अगर वह खुद कहीं चली गयी तब क्या होगा? वह कहाँ जाएगी! अरे पापा को मनाना तो बायें हाथ का खेल है, और ऐसा प्यार वह करेगी नहीं कि शादी करनी पड़े।

लेकिन यह सब तो ठीक है। पर चन्दर ने चिठ्ठी क्यों नहीं भेजी? क्या नाराज होकर गया है? जाते वक्त सुधा ने परेशान तो बहुत किया था। होलडॉल की पेटी का बक्सुआ खोल दिया था और उठाते ही चन्दर के हाथ से सब कपड़े बिखर गये। चन्दर कुछ बोला नहीं लेकिन जाते समय उसने सुधा को डाँटा भी नहीं और न यही समझाया कि घर का खयाल रखना, अकेले घूमना मत, महराजिन से लड़ना मत, पढ़ती रहना। इससे सुधा समझ तो गयी थी कि वह नाराज है, लेकिन कुछ कहा नहीं।

लेकिन चन्दर को खत तो भेजना चाहिए था। चाहे गुस्से का ही खत क्यों न होता? बिना खत के मन उसका कितना घबरा रहा है। और क्या चन्दर को मालूम नहीं होगा। यह कैसे हो सकता है? जब इतनी दूर बैठे हुए सुधा को मालूम हो गया कि चन्दर नाखुश है तो क्या चन्दर को नहीं मालूम होगा कि सुधा का मन उदास हो गया है। जरूर मालूम होगा। सोचते-सोचते उसे जाने कब नींद आ गयी और नींद में उसे पापा या चन्दर की चिठ्ठी मिली या नहीं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन इतना जरूर है कि जैसे यह सारी सृष्टि एक बिन्दु से बनी और एक बिन्दु में समा गयी, उसी तरह सुधा की यह भादों की घटाओं जैसी फैली हुई बेचैनी और गीली उदासी एक चन्दर के ध्यान से उठी और उसी में समा गयी।

दूसरे दिन सुबह सुधा आँगन में बैठी हुई आलू छील रही थी और चन्दर का इन्तजार कर रही थी। उसी दिन रात को पापा आ गये थे और दूसरे दिन सुबह बुआजी और बिनती।

''सुधी!'' किसी ने इतने प्यार से पुकारा कि हवाओं में रस भर गया।

''अच्छा! आ गये चन्दर!'' सुधा आलू छोडक़र उठ बैठी, ''क्या लाये हमारे लिए लखनऊ से?''

''बहुत कुछ, सुधा!''

''के है सुधा!'' सहसा कमरे में से कोई बोला।

''चन्दर हैं।'' सुधा ने कहा, ''चन्दर, बुआ आ गयीं।'' और कमरे से बुआजी बाहर आयीं।

''प्रणाम, बुआजी!'' चन्दर बोला और पैर छूने के लिए झुका।

''हाँ, हाँ, हाँ!'' बुआजी तीन कदम पीछे हट गयीं। ''देखत्यों नैं हम पूजा की धोती पहने हैं। ई के है, सुधा!''

सुधा ने बुआ की बात का कुछ जवाब नहीं दिया-''चन्दर, चलो अपने कमरे में; यहाँ बुआ पूजा करेंगी।''

चन्दर अलग हटा। बुआ ने हाथ के पंचपात्र से वहाँ पानी छिडक़ा और जमीन फूँकने लगीं। ''सुधा, बिनती को भेज देव।'' बुआजी ने धूपदानी में महराजिन से कोयला लेते हुए कहा।

सुधा अपने कमरे में पहुँचकर चन्दर को खाट पर बिठाकर नीचे बैठ गयी।

''अरे, ऊपर बैठो।''

''नहीं, हम यहीं ठीक हैं।'' कहकर वह बैठ गयी और चन्दर की पैंट पर पेन्सिल से लकीरें खींचने लगीं।

''अरे यह क्या कर रही हो?'' चन्दर ने पैर उठाते हुए कहा।

''तो तुमने इतने दिन क्यों लगाये?'' सुधा ने दूसरे पाँयचे पर पेन्सिल लगाते हुए कहा।

''अरे, बड़ी आफत में फँस गये थे, सुधा। लखनऊ से हम लोग गये बरेली। वहाँ एक उत्सव में हम लोग भी गये और एक मिनिस्टर भी पहुँचे। कुछ सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, और मजदूरों ने विरोध प्रदर्शन किया। फिर तो पुलिसवालों और मजदूरों में जमकर लड़ाई हुई। वह तो कहो एक बेचारा सोशलिस्ट लड़का था कैलाश मिश्रा, उसने हम लोगों की जान बचायी, वरना पापा और हम, दोनों ही अस्पताल में होते...''

''अच्छा! पापा ने हमें कुछ बताया नहीं!'' सुधा घबराकर बोली और बड़ी देर तक बरेली, उपद्रव और कैलाश मिश्रा की बात करती रही।

''अरे ये बाहर गा कौन रहा है?'' चन्दर ने सहसा पूछा।

बाहर कोई गाता हुआ आ रहा था, ''आँचल में क्यों बाँध लिया मुझ परदेशी का प्यार....आँचल में क्यों...'' और चन्दर को देखते ही उस लड़की ने चौंककर कहा, ''अरे?'' क्षण-भर स्तब्ध, और फिर शरम से लाल होकर भागी बाहर।

''अरे, भागती क्यों है? यही तो हैं चन्दर।'' सुधा ने कहा।

लड़की बाहर रुक गयी और गरदन हिलाकर इशारे से कहा, ''मैं नहीं आऊँगी। मुझे शरम लगती है।''

''अरे चली आ, देखो हम अभी पकड़ लाते हैं, बड़ी झक्की है यह।'' कहकर सुधा उठी, वह फिर भागी। सुधा पीछे-पीछे भागी। थोड़ी देर बाद सुधा अन्दर आयी तो सुधा के हाथ में उस लड़की की चोटी और वह बेचारी बुरी तरह अस्त-व्यस्त थी। दाँत से अपने आँचल का छोर दबाये हुए थी बाल की तीन-चार लटें मुँह पर झुक रही थीं और लाज के मारे सिमटी जा रही थी और आँखें थीं कि मुस्काये या रोये, यह तय ही नहीं कर पायी थीं।

''देखो...चन्दर...देखो।'' सुधा हाँफ रही थी-''यही है बिनती मोटकी कहीं की, इतनी मोटी है कि दम निकल गया हमारा।'' सुधा बुरी तरह हाँफ रही थी।

चन्दर ने देखा-बेचारी की बुरी हालत थी। मोटी तो बहुत नहीं थी पर हाँ, गाँव की तन्दुरुस्ती थी, लाल चेहरा, जिसे शरम ने तो दूना बना दिया था। एक हाथ से अपनी चोटी पकड़े थी, दूसरे से अपने कपड़े ठीक कर रही थी और दाँत से आँचल पकड़े।

''छोड़ दो उसे, यह क्या है सुधा! बड़ी जंगली हो तुम।'' चन्दर ने डाँटकर कहा।

''जंगली मैं हूँ या यह?'' चोटी छोड़कर सुधा बोली-''यह देखो, दाँत काट लिया है इसने।'' सचमुच सुधा के कन्धे पर दाँत के निशान बने हुए थे।

चन्दर इस सम्भावना पर बेतहाशा हँसने लगा कि इतनी बड़ी लड़की दाँत काट सकती है-''क्यों जी, इतनी बड़ी हो गयी और दाँत काटती हो?'' उसकी हँसी रुक नहीं रही थी। ''सचमुच यह तो बड़े मजे की लड़की है। बिनती है इसका नाम? क्यों रे, महुआ बीनती थी क्या वहाँ, जो बुआजी ने बिनती नाम रखा है?''

वह पल्ला ठीक से ओढ़ चुकी थी। बोली, ''नमस्ते।''

चन्दर और सुधा दोनों हँस पड़े। ''अब इतनी देर बाद याद आयी।'' चन्दर और भी हँसने लगा।

''बिनती! ए बिनती!'' बुआ की आवाज आयी। बिनती ने सुधा की ओर देखा और चली गयी।

''और कहो सुधी,'' चन्दर बोला-''क्या हाल-चाल रहा यहाँ?''

''फिर भी एक चिठ्ठी भी तो नहीं लिखी तुमने।'' सुधा बड़ी शिकायत के स्वर में बोली, ''हमें रोज रुलाई आती थी। और तुम्हारी वो आयी थी।''

''हमारी वो?'' चन्दर ने चौंककर पूछा।

''अरे हाँ, तुम्हारी पम्मी रानी।''

''अच्छा वो आयी थीं। क्या बात हुई?''

''कुछ नहीं; तुम्हारी तसवीर देख-देखकर रो रही थीं।'' सुधा ने उँगलियाँ नचाते हुए कहा।

''मेरी तसवीर देखकर! अच्छा, और थी कहाँ मेरी तसवीर?''

''अब तुम तो बहस करने लगे, हम कोई वकील हैं! तुम कोई नयी बात बताओ।'' सुधा बोली।

''हम तो तुम्हें बहुत-बहुत बात बताएँगे। पूरी कहानी है।''

इतने में बिनती आयी। उसके हाथ में एक तश्तरी थी और एक गिलास। तश्तरी में कुछ मिठाई थी, और गिलास में शरबत। उसने लाकर तश्तरी चन्दर के सामने रख दी।

''ना भई, हम नहीं खाएँगे।'' चन्दर ने इनकार किया।

बिनती ने सुधा की ओर देखा।

''खा लो। लगे नखरा करने। लखनऊ से आ रहे हैं न, तकल्लुफ न करें तो मालूम कैसे हो?'' सुधा ने मुँह चिढ़ाते हुए कहा। चन्दर मुसकराकर खाने लगा।

''दीदी के कहने पर खाने लगे आप!'' बिनती ने अपने हाथ की अँगूठी की ओर देखते हुए कहा।

चन्दर हँस दिया, कुछ बोला नहीं। बिनती चली गयी।

''बड़ी अच्छी लड़की मालूम पड़ती है यह।'' चन्दर बोला।

''बहुत प्यारी है। और पढऩे में हमारी तरह नहीं है, बहुत तेज है।''

''अच्छा! तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?''

''मास्टर साहब बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। और चन्दर, अब हम खूब बात करते हैं उनसे दुनिया-भर की और वे बस हमेशा सिर नीचे किये रहते हैं। एक दिन पढ़ते वक्त हम गरी पास में रखकर खाते गये, उन्हें मालूम ही नहीं हुआ। उनसे एक दिन कविता सुनवा दो।'' सुधा बोली।

चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया और डॉ. साहब के कमरे में जाकर किताबें उलटने लगा।

इतने में बुआजी का तेज स्वर आया-''हमैं मालूम होता कि ई मुँह-झौंसी हमके ऐसी नाच नचइहै तौ हम पैदा होतै गला घोंट देइत। हरे राम! अक्काश सिर पर उठाये है। कै घंटे से नरियात-नरियात गटई फट गयी। ई बोलतै नाहीं जैसे साँप सूँघ गवा होय।''

प्रोफेसर शुक्ला के घर में वह नया सांस्कृतिक तत्व था। कितनी शालीनता और शिष्टता से वह रहते थे। कभी इस तरह की भाषा भी उनके घर में सुनने को मिलेगी, इसकी चन्दर को जरा भी उम्मीद न थी। चन्दर चौंककर उधर देखने लगा। डॉ. शुक्ला समझ गये। कुछ लज्जित-से और मुसकराकर ग्लानि छिपाते हुए-से बोले, ''मेरी विधवा बहन है, कल गाँव से आयी है लड़की को पहुँचाने।''

उसके बाद कुछ पटकने का स्वर आया, शायद किसी बरतन के। इतने में सुधा आयी, गुस्से से लाल-''सुना पापा तुमने, बुआ बिनती को मार डालेंगी।''

''क्या हुआ आखिर?'' डॉ. शुक्ला ने पूछा।

''कुछ नहीं, बिनती ने पूजा का पंचपात्र उठाकर ठाकुरजी के सिंहासन के पीछे रख दिया था। उन्हें दिखाई नहीं पड़ा, तो गुस्सा बिनती पर उतार रही हैं।''

इतने में फिर उनकी आवाज आयी-''पैदा करते बखत बहुत अच्छा लाग रहा, पालत बखत टें बोल गये। मर गये रह्यो तो आपन सन्तानौ अपने साथ लै जात्यौ। हमारे मूड़ पर ई हत्या काहे डाल गयौ। ऐसी कुलच्छनी है कि पैदा होतेहिन बाप को खाय गयी।''

''सुना पापा तुमने?''

''चलो हम चलते हैं।'' डॉ. शुक्ला ने कहा। सुधा वहीं रह गयी। चन्दर से बोली, ''ऐसा बुरा स्वभाव है बुआ का कि बस। बिनती ऐसी है कि इतना बर्दाश्त कर लेती है।''

बुआ ने ठाकुरजी का सिंहासन साफ करते हुए कहा, ''रोवत काहे हो, कौन तुम्हारे माई-बाप को गरियावा है कि ई अँसुआ ढरकाय रही हो। ई सब चोचला अपने ओ को दिखाओ जायके। दुई महीना और हैं-अबहिन से उधियानी न जाओ।''

अब अभद्रता सीमा पार कर चुकी थी।

''बिनती, चलो कमरे के अन्दर, हटो सामने से।'' डॉ. शुक्ला ने डाँटकर कहा, ''अब ये चरखा बन्द होगा या नहीं। कुछ शरम-हया है या नहीं तुममें?''

बिनती सिसकते हुए अन्दर गयी। स्टडी रूम में देखा कि चन्दर है तो उलटे पाँव लौट आयी सुधा के कमरे में और फूट-फूटकर रोने लगी।

डॉ. शुक्ला लौट आये-''अब हम ये सब करें कि अपना काम करें! अच्छा कल से घर में महाभारत मचा रखा है। कब जाएँगी ये, सुधा?''

''कल जाएँगी। पापा अब बिनती को कभी मत भेजना इनके पास।'' सुधा ने गुस्सा-भरे स्वर में कहा।

''अच्छा-जाओ, हमारा खाना परसो। चन्दर, तुम अपना काम यहाँ करो। यहाँ शोर ज्यादा हो तो तुम लाइब्रेरी में चले जाना। आज भर की तकलीफ है।''

चन्दर ने अपनी कुछ किताबें उठायीं और उसने चला जाना ही ठीक समझा। सुधा खाना परोसने चली गयी। बिनती रो-रोकर और तकिये पर सिर पटककर अपनी कुंठा और दु:ख उतार रही थी। बुआ घंटी बजा रही थीं, दबी जबान जाने क्या बकती जा रही थीं, यह घंटी के भक्ति-भावना-भरे मधुर स्वर में सुनायी नहीं देता था।

लेकिन बुआजी दूसरे दिन गयीं नहीं। जब तीन-चार दिन बाद चन्दर गया तो देखा बाहर के सेहन में डॉ. शुक्ला बैठे हुए हैं और दरवाजा पकडक़र बुआजी खड़ी बातें कर रही हैं। लेकिन इस वक्त बुआजी काफी गम्भीर थीं और किसी विषय पर मन्त्रणा कर रही थीं। चन्दर के पास पहुँचने पर फौरन वे चुप हो गयीं और चन्दर की ओर सशंकित नेत्रों से देखने लगीं। डॉ. शुक्ला बोले, ''आओ चन्दर, बैठो।'' चन्दर बगल की कुर्सी खींचकर बैठ गया तो डॉ. साहब बुआजी से बोले, ''हाँ, हाँ, बात करो, अरे ये तो घर के आदमी हैं। इनके बारे में सुधा ने नहीं बताया तुम्हें? ये चन्दर हैं हमारे शिष्य, बहुत अच्छा लड़का है।''

''अच्छा, अच्छा, भइया बइठो, तू तो एक दिन अउर आये रह्यो, बी. ए. में पढ़त हौ सुधा के संगे।''

''नहीं बुआजी, मैं रिसर्च कर रहा हूँ।''

''वाह, बहुत खुशी भई तोको देख के-हाँ तो सुकुल!'' वे अपने भाई से बोलीं, ''फिर यही ठीक होई। बिनती का बियाह टाल देव और अगर ई लड़का ठीक हुई जाय तो सुधा का बियाह अषाढ़-भर में निपटाय देव। अब अच्छा नाहीं लागत। ठूँठ ऐसी बिटिया, सूनी माँग लिये छररावा करत है एहर-ओहर!'' बुआ बोलीं।

''हाँ, ये तो ठीक है।'' डॉ. शुक्ला बोले, ''मैं खुद सुधा का ब्याह अब टालना नहीं चाहता। बी.ए. तक की शिक्षा काफी है वरना फिर हमारी जाति में तो लड़के नहीं मिलते। लेकिन ये जो लड़कातुम बता रही हो तो घर वाले कुछ एतराज तो नहीं करेंगे! और फिर, लड़का तो हमें अच्छा लगा लेकिन घरवाले पता नहीं कैसे हों?''

''अरे तो घरवालन से का करै का है तोको। लड़कातो अलग है, अपने-आप पढ़ रहा है और लड़की अलग रहिए, न सास का डर, न ननद की धौंस। हम पत्री मँगवाये देइत ही, मिलवाय लेव।''

डॉ. शुक्ला ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

''तो फिर बिनती के बारे में का कहत हौ? अगहन तक टाल दिया जाय न?'' बुआजी ने पूछा।

''हाँ हाँ,'' डॉ. शुक्ला ने विचार में डूबे हुए कहा।

''तो फिर तुम ही इन जूतापिटऊ, बड़नक्कू से कह दियौ; आय के कल से हमरी छाती पर मूँग दलत हैं।'' बुआजी ने चन्दर की ओर किसी को निर्देशित करते हुए कहा और चली गयीं।

चन्दर चुपचाप बैठा था। जाने क्या सोच रहा था। शायद कुछ भी नहीं सोच रहा था! मगर फिर भी अपनी विचार-शून्यता में ही खोया हुआ-सा था। जब डॉ. शुक्ला उसकी ओर मुड़े और कहा, ''चन्दर!'' तो वह एकदम से चौंक गया और जाने किस दुनिया से लौट आया। डॉ. साहब ने कहा, ''अरे! तुम्हारी तबीयत खराब है क्या?''

''नहीं तो।'' एक फीकी हँसी हँसकर चन्दर ने कहा।

''तो मेहनत बहुत कर रहे होगे। कितने अध्याय लिखे अपनी थीसिस के? अब मार्च खत्म हो रहा है और पूरा अप्रैल तुम्हें थीसिस टाइप कराने में लगेगा और मई में हर हालत में जमा हो जानी चाहिए।''

''जी, हाँ।'' बड़े थके स्वर में चन्दर ने कहा, ''दस अध्याय हो ही गये हैं। तीन अध्याय और होने हैं और अनुक्रमणिका बनानी है। अप्रैल के पहले सप्ताह तक खत्म हो ही जायेगा। अब सिवा थीसिस के और करना ही क्या है?'' एक बहुत गहरी साँस लेते हुए चन्दर ने कहा और माथा थामकर बैठ गया।

''कुछ तबीयत ठीक नहीं है तुम्हारी। चाय बनवा लो! लेकिन सुधा तो है नहीं, न महराजिन है।'' डॉक्टर साहब बोले।

अरे सुधा, सुधा के नाम पर चन्दर चौंक गया। हाँ, अभी वह सुधा के ही बारे में सोच रहा था, जब बुआजी बात कर रही थीं। क्या सोच रहा था। देखो...उसने याद करने की कोशिश की पर कुछ याद ही नहीं आ रहा था, पता नहीं क्या सोच रहा था। पता नहीं था...कुछ सुधा के ब्याह की बात हो रही थी शायद। क्या बात हो रही थी...?