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प्रेरणा पथ - भाग 5

31. विदाई

विष्व में हमारी सभ्यता, संस्कृति व संस्कारों का बहुत मान-सम्मान है। इसका मूलभूत कारण हमारी प्राचीन षिक्षा पद्धति है। मैं जिस पाठषाला में पढ़ता था वहां की परम्परा थी कि बारहवीं कक्षा में उत्तीर्ण होने के पष्चात षाला की षिक्षा समाप्त होकर छात्र महाविद्यालय में प्रवेष लेकर आगे अध्ययन करते थे। षाला की ओर से ऐसे सभी विद्यार्थियों के लिये एक विदाई समारोह का आयोजन होता था। इसमें षाला के प्राचार्य अपना अंतिम आषीर्वचन छात्रों को देते थे। मुझे आज भी उनके द्वारा दिया गया उद्बोधन प्रेरणा देता है। उन्होंने उस समय कहा था कि जीवन में पढ़ने-पढ़ने में भी फर्क होता है। कुछ छात्र खूब पढ़ते हैं बहुत सारे ग्रन्थ पढ़ डालते हैं किन्तु उन्हें स्मरण कुछ भी नहीं रहता है। कुछ दूसरे छात्र पढ़े को खूब स्मरण रखते हैं किन्तु उन्हें उपयोगी तथ्य के ग्रहण और अनुपयोगी के त्याग का विवेक नहीं होता। अध्ययन लक्ष्य प्राप्ति का एक साधन है और इसका मुख्य उद्देष्य हमारे भीतर विद्यमान गुणों व योग्यताओं व्यवहारिक उपयोग कर सकता है और जीवन की उलझनों को सुलझाने में समर्थ हो सकता है। इसीलिये विवेक पूर्ण किया गया अध्ययन ही सार्थक और उपयोगी होता है। ऐसे छात्र द्वारा अध्ययन से प्राप्त ज्ञान उसके मानस पर अंकित हो जाता है और किसी व्यवहारिक समस्या के समाधान की आवष्यकता पड़ने पर ज्ञान के संचित भण्डार से स्मृति समुचित जानकारी प्रस्तुत कर उस व्यक्ति को समाज में सम्मानित एवं प्रतिष्ठित करती है। इसके विपरीत विवेक सम्मत अध्ययन न करने वाला छात्र परिस्थिति विषेष से घबराकर किनारा करता हुआ अपने को लज्जित अनुभव करता है को विकसित करना होता है। ज्ञान का विष्लेषण करने वाला छात्र ही उचित समय पर उसका और फिर अपमान के भय से समाज से पलायन करने में ही अपना हित समझने लगता है।

षिक्षा जीवन के हर पल को दिषा देती है और विद्यार्थी हर पल से एक नयी षिक्षा लेता है। मनुष्य का भाग्य, हानि, लाभ सभी कुछ विधाता के हाथ में होता है। जो ईमानदारी और परिश्रम से जीवन जीता है विधाता भी उसी का साथ देता है। ऐसे व्यक्तित्व को परिवार समाज और देष के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन का संकल्प, तत्परता और समर्पण का बोध रहता है। उसे ही जीवन में सफलता, षान्ति और सौहार्द्र प्राप्त होता है जो कि जीवन के मूल तत्व हैं। वह अपने जीवन को सार्थक बनाता है। प्राचार्य महोदय के इस भाव पूर्ण उद्बोधन के उपरान्त हम सभी छात्रों ने सामूहिक रुप से प्राचार्य जी एवं षाला के सबसे वरिष्ठ षिक्षक महोदय को सम्मान स्वरुप गुरु दक्षिणा के रुप में स्मृति चिन्ह की भेंट दी। उन्होंने भी सभी छात्रों को गुलाब के पुष्प के साथ षाला स्थानान्तरण पत्र देकर हमारे सुखी, समृद्ध एवं स्वस्थ्य भविष्य का अषीर्वाद देते हुए हमें षाला से भावभीनी विदाई दी।

32 सेवा

एक दिन विभिन्न रंगों के फूलों से लदी हुयी झाडी पर एक चिडिया आकर बैठी और फूलों से बोली तुम लोग कैसे मूर्ख हो कि अपना मकरंद भंवरों को खिला देते हो। वह अपना पेट भरके तुम्हें बिना कुछ दिये ही उड जाता है। फूलों ने मुस्कुराकर कहा कि कुछ देकर उसके बदले में कुछ लेना तो व्यापारियों का काम है। निस्वार्थ भाव से किया गया कार्य ही सच्ची सेवा एवं त्याग है। यही जीवन का उद्देष्य होना चाहिये कि दूसरों के लिये काम आने में ही जीवन की सार्थकता हैं।

33 श्रेष्ठ कौन ?

“ अरे राकेश ! यह देखो, ये फूल कितने सुंदर और प्यारे है, इन्हें देखकर ही हमारा मन कितना प्रफुल्लित हो रहा है।“ यह बात शाला की क्यारी में लगे हुये फूलों को देखकर आनंद ने राकेश से कही। यह सुनकर फूल तने से बोला- देखो मुझे देखकर सब लोग मेरी कितनी तारीफ करते हैं, और मानव को मेरी कितनी आवश्यकता है। उसे जन्म से लेकर अंतिम यात्रा तक मेरी जरूरत रहती है। मैं पूजा स्थलों में परम पिता परमेश्वर के चरणों में स्थान पाता हूँ। ये सब बताते हैं कि मैं कितना श्रेष्ठ हूँ। यह सुनकर तने ने कहा- मेरी ड़ाल पर ही तेरा जन्म होता है। यदि ये न हो तो तेरा अस्तित्व ही नही रहेगा, मेरी छाल का उपयोग अनेक औषधियों के निर्माण में होता है। मेरे से टिककर ही राह के पथिक विश्राम करते हैं। इन्हीं सब कारणों से मैं तुझसे ज्यादा श्रेष्ठ हूँ। अब दोनो में अपनी श्रेष्ठ को लेकर तू तू- मैं मैं होने लगी।

एक संत प्रतिदिन दोपहर को पेड़ की छाया में विश्राम करते थे। दोनो ने उनको अपनी व्यथा बतलाई और उनसे इस विषय पर अपना निर्णय देने का निवेदन किया। संत जी ने दोनो को समझाया कि अभिमान कभी नही करना चाहिए। इससे हमारा मान कम होता जाता है। फिर भी हम अपने को दंभ में महान समझने लगते हैं। आप दोनो यह सोचिये कि जल जिसके बिना आप दोनो का जीवन संभव नही है, उसे इस बात का कभी घमंड नही हुआ कि उससे ही जीवन है। वह बिना किसी स्वार्थ के सबको लाभ पहुँचाता है और मन में कभी महानता का दंभ नही रखता है। हमें निर्विकार भाव से अपना कर्तव्य निभाना चाहिये। अब तुम दोनो खुद ही सोचो कि जल के सामने तुम क्या हो, यह सुनकर तने और फूल दोनो को अपनी गलती का अहसास हुआ और उनकी श्रेष्ठ बनने की भावना समाप्त हो गयी।

34 विनम्रता

एक षिक्षक से विद्यार्थी ने प्रष्न किया कि जब तेज आंधी तूफान एवं नदियों में बाढ़ आती है तो मजबूत से मजबूत वृक्ष गिर जाते हैं परंतु इतनी विपरीत एवं संकटपूर्ण परिस्थितियों में भी तिनके को कोई नुकसान नही पहुँचता, जबकि वह बहुत नाजुक एवं कमजोर होता है। षिक्षक महोदय ने उससे कहा कि जो अड़ियल होते हैं और झुकना नही जानते हैं वे विपरीत परिस्थितियों में टूट कर नष्ट हो जाते हैं। तिनके में विनम्रता पूर्वक झुकने का गुण होता है इसी कारण वह अपने आप को बचा लेता है। हमें भी अपने जीवन में विपरीत परिस्थितियाँ आने पर विनम्रतापूर्वक झुककर उचित समय का इंतजार करना चाहिये।

35 जिद

एक जंगल में एक बन्दर पेड़ की एक डाल से चिपटकर सो रहा था। उसी जंगल में एक बहुत षक्तिषाली एवं बलवान हाथी रहता था। वह घूमता-घूमता उसी पेड़ के नीचे जा पहुँचा। वहां पहुँचकर वह पेड़ के नीचे खड़ा-खड़ा चिंघाड़ने लगा। हाथी की आवाज से बन्दर की नींद खुल गई। विश्राम में खलल पड़ने के कारण वह कुपित हो गया। उसने हाथी को सबक सिखाने का निष्चय कर लिया। वह पेड़ से कूदकर उसकी पीठ पर आ गया। फिर उसने उसे गुदगुदी लगाना प्रारम्भ कर दिया। हाथी ने अपनी सूड़ से बन्दर को पकड़ कर पटकने का प्रयास किया लेकिन बन्दर उछल कर फिर पेड़ पर चढ़ गया। वह लगातार इस प्रक्रिया को दोहराता रहा। जब हाथी बहुत परेषान हो गया और बन्दर को नहीं पकड़ पाया तो वहां से रवाना हो गया।

यह सारी हरकत एक पिता और पुत्र दूर से देख रहे थे। पिता ने पुत्र से कहा- कोई कितना भी षक्तिषाली व बलवान हो उसे कमजोर प्राणी भी अपनी बुद्धिमत्ता और चतुराई से पराजित कर सकता है। उस हाथी को अपनी ताकत का बहुत घमण्ड था। उसे यह गुमान था कि अन्ततः बन्दर को पकड़ लेगा और उसे अच्छा सबक सिखाएगा, किन्तु जी भरकर प्रयास करने पर भी वह इसमें सफल नहीं हो सका और अन्त में हारकर वहां से चला गया। हमें उस हाथी के समान अपनी षक्ति का अपव्यय नहीं करना चाहिए। इसे संचित करके सही समय व स्थान पर उसका उपयोग करना चाहिए। तभी हम जीवन में सफलता प्राप्त कर सकेंगे और हमारा उद्देष्य पूरा हो सकेगा। हमारा प्रतिद्वंदी कितना भी षक्तिषाली हो हम उसे अपनी बुद्धि और चातुर्य से पराजित कर सकते हैं।

36 चीकू

राममनोहर नाम के एक प्रसिद्ध व्यवसायी अपने व्यापार से ज्यादा पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम के कारण विख्यात थे। उनका एक कुत्ता चीकू जिसे उन्होनें बचपन से पाला था उनके प्रति समर्पित एवं वफादार था, वह उन्हें बहुत अधिक प्यार करता था और राममनोहर जी भी उसे बहुत चाहते थे। उनके परिवार के सदस्यों का चीकू के प्रति कोई प्रेम भाव नही था। वे प्रतिदिन उसकी कोई न कोई शिकायत करते रहते थे। राममनोहर उनकी इन बातों को नजर अंदाज कर देते थे। लगातार शिकायतों के कारण उनके मन में भी खीझ उत्पन्न हो रही थी। एक दिन वे इसी खीझ के कारण क्रोधित होकर चीकू को काफी दूर छोड़ आये। वापिस आने के बाद उन्हें अपने कृत्य पर बहुत पछतावा हुआ। उन्हें लगने लगा कि क्षणिक आवेश में आकर उन्होनें बहुत ही अमानवीय कार्य कर दिया है। वे चीकू को लाने के लिये वापस गये, परंतु बहुत खोजने के बाद भी वह उन्हें नही मिला। वे भारी मन से आँखों में आँसू लिये वापस लौट आये। उनका मन बहुत व्यथित था, वे बिना किसी से बात किये चुपचाप अपने कमरे में चले गये। परिवार के अन्य सदस्य चीकू के चले जाने से बहुत खुश थे।

दूसरे दिन सुबह राममनोहर जी बगीचे में दुखी मन से चाय पी रहे थे तभी उन्होने चीकू को बंगले के अंदर प्रवेश करते देखा। उसे देखकर वे अत्यंत भावुक हो गये और उसे गोद में उठा लिया। चीकू को देखकर उन्हें महसूस हुआ, जैसे वह पूछ रहा हो कि आखिर मेरी क्या गलती थी, जिसकी आपने मुझे इतनी कठोर सजा दी। वे उससे आँखे नही मिला पा रहे थे। परिवार के अन्य सदस्य उसके लौट आने से भौचक्के थे। रात के समय सब लोग गहरी नींद में सो रहे थे, तभी चोरो के एक गिरोह ने बंगले में प्रवेश किया और चीकू भौंककर दौडता हुआ उनके पास पहुँचा। चीकू की आवाज सुनकर चैकीदार भी उस तरफ दौड पड़े, चीकू ने भागते हुये एक चोर का पैर पकड़ लिया उसने अपने को छुडाने के लिये चाकू से वार किया। चाकू के वार के कारण चीकू घायल हो गया था परंतु उसने चोर का पैर नही छोड़ा तब तक चौकीदारों ने आकर उस चोर को पकड़ लिया। इस चीख पुकार से परिवार के सभी सदस्य बाहर की ओर दौडे और पूरा माजरा जानने के बाद चोर को पुलिस के हवाले कर दिया गया अब सबका ध्यान गंभीर रूप से घायल चीकू की ओर गया और उसे तुरंत अस्पताल ले जाया गया। जहाँ चिकित्सकों ने उसे मृत घोषित कर दिया। चीकू की इस बहादुरी एवं वफादारी की तारीफ सारा मुहल्ला कर रहा था। राममनोहर जी दुखी मन से चीकू को दफनाते हुये सोच रहे थे कि वो मेरा अहसानमंद था या मैं उसका अहसानमंद हूँ ?

37 स्वार्थपूर्ण मित्रता

एक जंगल में षेर, लोमड़ी एवं गिद्ध रहते थे। लोमड़ी बहुत चालाक थी और ऐसे उपाय की खोज में थी जिससे उसकेा भोजन के लिये मेहनत नही करना पड़े और व्यवस्था भी हो जाए। उसने एक योजना बनाई और उसके अनुसार उसने गिद्ध को कहा कि गिद्ध भाई तुम मेरे मित्र बन जाओ। गिद्ध ने पूछा क्यों ? लोमड़ी बोली तुम्हारे लिए बिना परिश्रम के जानवरों के मांस की व्यवस्था हो जाएगी तुम्हे बस इतना काम करना है कि आकाष में उडते हुये यह बताना है कि जानवर कहाँ पर विचरण कर रहें हैं। गिद्ध ने उसकी बात को स्वीकार कर लिया। अब लोमड़ी षेर के पास पहुँची और बड़ी चतुराई के साथ बोली महाराज अब आप काफी वृद्ध हो गये हैं और आपको भोजन प्राप्ति के लिये भी काफी भटकना पड़ता है इसमें आपका बहुत समय एवं ऊर्जा नष्ट होती है, मेरे पास एक उपाय है जिससे मैं आपकी मदद कर सकती हूँ। मैं आपको जानवर कहाँ पर विचरण कर रहे हैं वह बता दिया करूँगी ताकि आप आसानी से सीधे वहाँ पहुँचकर षिकार कर सके। लोमड़ी की बात षेर को भी अच्छी लगी।

इस प्रकार लोमड़ी की चतुराई, चालाकी एवं कुटिलता से तीनों के बीच स्वार्थपूर्ण मित्रता स्थापित हो गयी। जिससे वे अपने समय एवं मेहनत की बचत करते हुये भोजन प्राप्ति के लक्ष्य को आसानी से प्राप्त करने लगे। षेर अपना षिकार करके मांस खाकर चला जाता था और गिद्ध और लोमड़ीे बचा हुआ मांस खाकर अपना पेट आसानी से भर लेतेे थे। लोमड़ी की षेर से मित्रता के कारण उसका जंगल में भी प्रभाव बढ़ गया था। जंगल के अन्य प्राणियों को जब लोमड़ी की इस चालाकी का पता चला तो उन्होंने एक सभा करके गिद्ध से निवेदन किया कि आपको तो आसानी से भोजन प्राप्त हो जाता है फिर इस मित्रता से आपको क्या लाभ मिल रहा है। लोमड़ी आपका लाभ उठाकर अपना हित साध रही है और आरामदायक जीवन बिता रही है। यह सुनकर गिद्ध ने लोमड़ी की मदद करना बंद दिया। कुछ दिनों तक भोजन ना मिलने पर भूख एवं क्रोध से पागल षेर ने लोमड़ी को ही अपना षिकार बना लिया। इसलिये कहा जाता है कि स्वार्थपूर्ण मित्रता अधिक दिनों तक स्थायी नही रहती हैं।

38 स्वरोजगार

विधायक अमर सिंह अपने क्षेत्र वासियों के ऊपर बहुत ध्यान देते थे। वे चाहते थे कि उनके क्षेत्र में गरीबी दूर होकर संपन्नता आये इसलिये वे प्रतिदिन शासकीय योजनाओं के अंतर्गत प्रतिदिन अत्यंत गरीब लोगों को धन प्रदान करके मदद करते थे। उन्हें विश्वास था कि इससे संपन्नता के साथ साथ मतदाता भी उनसे प्रभावित होगें। कुछ माह के बाद वे अपने मित्र विधायक सुमेर सिंह से मिलने पहुँचे, उन्होने महसूस किया कि उनके क्षेत्र की जनता अपेक्षाकृत ज्यादा संपन्न है, उन्होने इसका राज जानने हेतु सुमेर सिंह से पूछा कि तुम भी शासकीय योजना के अंतर्गत धन का उपयोग करते हो फिर तुम्हारे और मेरे विधानसभा क्षेत्र में इतनी असमानता क्यों है ?

सुमेर सिंह ने कहा कि तुम्हारी और मेरी कार्यशैली में अंतर है तुम मुफ्त में धन लुटाते हो मैं गरीब लोगों को स्व सहायता समूह बनाकर उन्हे भिन्न भिन्न किस्म के रोजगार सिखाता हूँ जैसे अगरबत्ती बनाना, माचिस बनाना, कपडे सिलना, मैकेनिक, इलेक्ट्रीशीयन आदि। वे मेहनत करके अपना कार्य करते हैं एवं उसके एवज में उन्हें यह धन प्राप्त होता हैं, जिससे उनमें स्वावलंबन की भावना भी विकसित होती है। विधायक अमर सिंह भी इस योजना को अपने क्षेत्र में लागू करने का प्रयास करते है परंतु वे इसमें असफल हो जाते हैं क्योंकि उनके क्षेत्र के लोगो को मुफ्त में धन प्राप्त करने की आदत हो गयी थी। आगामी चुनाव में आशा के विपरीत अमरसिंह चुनाव हार जाते हैं परंतु उनके मित्र सुमेर सिंह भारी मतों से विजयी होते हैं। इसका जब विश्लेषण हुआ तो पाया गया कि अमर सिंह द्वारा मुफ्त में धनराशि बाँटने का उन्हे कोई फायदा प्राप्त नही हुआ जबकि सुमेर सिंह की स्वरोजगार की योजना से प्रभावित होकर जनता ने उन्हे समर्थन दिया।

39 सच्ची मित्रता

जबलपुर के पास नर्मदा किनारे बसे रामपुर नामक गाँव में एक संपन्न किसान एवं मालगुजार ठाकुर हरिसिंह रहते थे। उन्हें बचपन से ही पेड़-पौधों एवं प्रकृति से बड़ा प्रेम था। वे जब दो वर्ष के थे, तभी उन्होने एक वृक्ष को अपने घर के सामने लगाया था। इतनी कम उम्र से ही वे उस पौधे को प्यार व स्नेह से सींचा करते थे। जब वे बचपन से युवावस्था में आए तब तक पेड़ भी बड़ा होकर फल देने लगा था। गाँवों में शासन द्वारा तेजी से विकास कार्य कराए जा रहे थे, और इसी के अंतर्गत वहाँ पर सड़क निर्माण का कार्य संपन्न हो रहा था। इस सड़क निर्माण में वह वृक्ष बाधा बन रहा था, यदि उसे बचाते तो ठाकुर हरिसिंह के मकान का एक हिस्सा तोड़ना पड सकता था। परंतु उन्होने वृक्ष को बचाने के लिए सहर्ष ही अपने घर का एक हिस्सा टूट जाने दिया। सभी गाँव वाले इस घटना से आश्चर्यचकित थे एवं उनके पर्यावरण के प्रति लगाव की चर्चा करते रहते थे। पेड़ भी निर्जीव नही सजीव होते है, ऐसी उनकी धारणा थी। इस घटना से मानो वह पेड़ भी बहुत उपकृत महसूस कर रहा था। जब भी ठाकुर साहब प्रसन्न होते तो वह भी खिला-खिला सा महसूस होता था। जब वे किसी चिंता में रहते तो वह भी मुरझाया सा हो जाता था।

एक दिन वे दोपहर के समय पेड़ की छाया में विश्राम कर थे। वहाँ के मनोरम वातावरण एवं ठंडी-ठंडी हवा के कारण उनकी झपकी लग गयी और वे तने के सहारे निद्रा में लीन हो गये। उनसे कुछ ही दूरी पर अचानक से एक सांप कही से आ गया। उसे देखकर वह वृक्ष आने वाले संकट से विचलित हो गया और तभी पेड़ के कुछ फल तेज हवा के कारण डाल से टूटकर ठाकुर साहब के सिर पर गिरे जिससे उनकी नींद टूट गयी। उनकी नींद टूटने से अचानक उनकी नजर उस सांप पर पडी तो वे सचेत हो गये। गाँव वालों का सोचना था, कि वृक्ष ने उनकी जीवन रक्षा करके उस दिन का भार उतार दिया जब उसकी सड़क निर्माण में कटाई होने वाली थी। समय तेजी से बीतता जाता है और जवानी एक दिन बुढ़ापे में तब्दील हो जाती है इसी क्रम में ठाकुर हरिसिंह भी अब बूढ़े हो गये थे और वह वृक्ष भी सूख कर कमजोर हो गया था। एक दिन अचानक ही रात्रि में ठाकुर हरिसिंह की मृत्यु हो गयी। वे अपने शयनकक्ष से भी वृक्ष को कातर निगाहों से देखा करते थे। यह एक संयोग था या कोई भावनात्मक लगाव का परिणाम कि वह वृक्ष भी प्रातः काल तक जड़ से उखड़कर अपने आप भूमि पर गिर गया।

गाँव वालों ने द्रवित होकर निर्णय लिया कि उस वृक्ष की ही लकड़ी को काटकर अंतिम संस्कार में उसका उपयोग करना ज्यादा उचित रहेगा और ऐसा ही किया गया। ठाकुर साहब का अंतिम संस्कार विधि पूर्वक गमगीन माहौल में संपन्न हुआ जिसमें पूरा गाँव एवं आसपास की बस्ती के लोग षामिल थे और वे इस घटना की चर्चा आपस में कर रहे थे। ठाकुर साहब का मृत शरीर उन लकड़ियों से अग्निदाह के उपरांत पंच तत्वों में विलीन हो गया और इसके साथ-साथ वह वृक्ष भी राख में तब्दील होकर समाप्त हो गया। दोनो की राख को एक साथ नर्मदा जी में प्रवाहित कर दिया गया। ठाकुर साहब का उस वृक्ष के प्रति लगाव और उस वृक्ष का भी उनके प्रति प्रेमभाव, आज भी गाँव वाले याद करते हैं।

40 कर्म पूजा

अवध के राजा महेन्द्र प्रताप सिंह बहुत ही धार्मिक, दयालु एवं नीतिवान व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे और उनका हाल जानने के लिये अक्सर रात में वेश बदलकर निकलते थे। एक बार वे दीपावली की रात्रि को भी वेश बदलकर महल के पिछवाडे से निकल पड़े। दीपावली के त्यौहार के कारण समस्त नगर में जगह जगह दीप जगमगा रहे थे। बच्चे आतिशबाजी कर रहे थे। लोग एक दूसरे का अभिवादन कर उन्हें बधाइयाँ दे रहे थे। राजा अपनी प्रजा को हँसी-खुशी त्यौहार मनाते देखकर अत्यंत प्रसन्न थे। प्रजा की खुशहाली को वह राज्य की समृद्धि का प्रतीक मानते थे। राजा नगर भ्रमण के बाद महल की ओर लौट रहे थे तभी रास्ते में एक अंधेरी झोपड़ी देखकर वे चौक गये। झोपड़ी का दरवाजा अधखुला था। वे दरवाजे के पास गये। अंदर एक वृद्ध व्यक्ति टिमटिमाते दीपक के पास माथे पर हाथ रखे बैठे थे। उनके पास ही एक थाली में पूजा का सामान रखा हुआ था। वे वृद्ध व्यक्ति उनसे बोले - महाशय मैं कब से आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। मैं वृद्ध होने के कारण अकेले पूजा करने में असमर्थ हूँ। क्या आप मेरी सहायता करेंगे ?

राजा असमंजस में पड़ गये और सोचने लगे कि यदि मैं यहाँ रूकता हूँ तो महल पहुँचने में देर हो जाएगी और पूजन का मूहुर्त निकल जायेगा। उस वृद्ध के पुनः निवेदन करने पर राजा मना नही कर सके और उन्होंने उसके साथ बैठकर पूजन का प्रारंभ किया। उन्होने राजा से कहा कि पूजा कि थाली से रोली और चावल उठाकर आँख बंद कर लो। राजा ने वैसा ही किया। जैसे ही राजा ने आँखें खोली वह सामने का दृष्य देखकर हैरान हो गये। जिस झोपड़ी में वह बूढ़े के पास बैठे थे, उस जगह पर बूढ़े के स्थान पर साक्षात् कुबेर जी एवं लक्ष्मी जी विराजमान थी। राजा ने रोली और चावल दोनो के मस्तक पर लगाये और प्रणाम किया। कुबेर जी ने आशीर्वाद देते हुये कहा कि जहाँ का राजा, प्रजा की इच्छा और आवश्यकताओं का स्वयं के परिवार जैसा ध्यान रखता हो उस राज्य में कभी कोई कमी नही हो सकती है। इसी प्रकार लक्ष्मी जी ने भी आशीर्वाद देते हुये कहा- राजन ! तुम्हारा प्रजा के प्रति प्रेम देखकर मैं प्रसन्न हूँ। जहाँ का शासक प्रजा प्रेमी हो वह राज्य सदा धन धान्य से भरा रहता है। इसी कारण मैं पिछले कई सालों से तुम्हारे राज्य में हूँ। जब तक इस राज्य में प्रजा प्रेमी शासक रहेंगे तब तक मैं भी यहाँ विद्यमान रहूँगी।