Pyar ke Indradhanush - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

प्यार के इन्द्रधुनष - 19

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रेनु को जब मनमोहन ने फ़ोन पर बताया था कि डॉ. वर्मा पचास लाख रुपए जीत गई है और उसने पच्चीस लाख गुड्डू के नाम जमा करवाने की सोची है, तब एक बार तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई थी, किन्तु उस रात बिस्तर पर लेटे हुए उसके मन में शंका का कीड़ा कुलबुलाने लगा। मानव-मन की प्रवृत्ति ही ऐसी है कि नकारात्मक विचार बहुत शीघ्र पनपते हैं। शंका करने का कोई आधार नहीं होता, व्यक्ति केवल कल्पना करता है कि ऐसा हुआ होगा! और यही उसकी सोच को विकृत करने लगता है। मन में एक बार शंका का बीज पड़ गया तो उसे वृक्ष रूप लेने में बहुत देर नहीं लगती। स्वभाव से सरल एवं सहजता से दूसरे पर विश्वास कर लेने की अपनी मनोदशा के बावजूद रेनु के साथ भी यही हुआ। सोचने लगी, डॉ. दीदी ने गुड्डू को अपना माना, अच्छी बात थी। उन्होंने अपने प्यार के लिए उम्र भर अकेली रहने का निर्णय लेने के बाद भी एक स्त्री होने के नाते माँ का ममत्व लुटाने की चाहत को पूरी करने के लिए गुड्डू को अपनी बेटी मान लिया। यहाँ तक मुझे कोई एतराज़ नहीं था, बल्कि ख़ुशी थी कि गुड्डू का भविष्य आर्थिक अभावों के चलते धूमिल न होगा। उसे अपने सपनों की उड़ान भरने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध होंगे। डॉ. दीदी के व्यवहार से भी मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि वे ‘इन्हें’ मुझसे दूर ले जाने का ख़्याल रखती हैं। लेकिन, पच्चीस लाख जैसी बड़ी रक़म एक ही बार में गुड्डू के नाम जमा करवाने का फ़ैसला ..... कहीं ऐसा तो नहीं कि इतना बड़ा अहसान करके वे ‘इन’ पर परोक्ष रूप से अपना अधिकार जमाने की सोच रही हों और बाद में मुझे दूध में पड़ी मक्खी की भाँति निकाल बाहर करें। इस विचार के मन में आते ही उसे याद आई वह बात जब डॉ. वर्मा ने उससे कहा था - ‘लेकिन ख़बरदार, कहीं तुम भी ‘मनु’ बुलाने मत लग जाना। ‘मनु’ पर मेरा ही अधिकार रहेगा।’ चाहे यह बात उस समय डॉ. वर्मा ने परिहास में ही कही थी और रेनु ने भी उसी भाव से ग्रहण की थी, किन्तु अब रेनु को लगा कि कहीं सच में डॉ. दीदी के मन में दबी ‘अधिकार भावना’ परिहास के रूप में प्रकट तो नहीं हुई थी! इस दुश्चिंता में रेनु तो करवटें बदलती रही, जबकि गुड्डू अपनी मम्मी की चिंताओं से बेख़बर निश्चिंत सोती रही।

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जब मनमोहन मुम्बई से वापस आया तो औपचारिक नमस्ते तो रेनु ने की, लेकिन उसके हाव-भावों में मनमोहन से इतने दिनों पश्चात् मिलने की प्रसन्नता नदारद थी। रेनु ने डॉ. वर्मा के विषय में भी कोई बात नहीं की। मनमोहन ने रेनु के इस तरह के व्यवहार को लक्षित तो किया, किन्तु उसने तत्काल इसका कारण जानने की कोशिश नहीं की।

सोने के समय मनमोहन ने रेनु से सीधे पूछने की बजाय मुम्बई ट्रिप का ब्यौरा देना आरम्भ किया। उसने रेनु को डॉ. वर्मा द्वारा जीत की ख़ुशी में उसे आलिंगन में लेने की बात भी बताई, कहने का तात्पर्य कि ट्रिप की हर गतिविधि की जानकारी उसने रेनु को दी। उसकी बातों में इतनी पारदर्शिता देखकर रेनु सोच में पड़ गई कि अपनी आशंका उसके आगे रखे भी अथवा नहीं।

जब बहुत देर तक रेनु ने कुछ नहीं कहा तो आख़िर मनमोहन को ही पूछना पड़ा - ‘रेनु, मैं जब से आया हूँ, तुम कहीं खोई-खोई सी प्रतीत हो रही हो। न हँसकर बोली हो, न मेरे इतना कुछ बताने पर किसी प्रकार की ख़ुशी तुम्हारे चेहरे पर आई है। और तो और, वृंदा द्वारा इतनी बड़ी रक़म गुड्डू को दिए जाने पर भी तुमने कोई कमेंट नहीं किया। क्या मेरी अबसेंस में गुड्डू ने बहुत ज़्यादा परेशान किया या मुझे ‘मिस’ करने की सजा मुझे दे रही हो, आख़िर कुछ तो कहो!’

रेनु अब स्वयं को और न रोक पाई और बोली - ‘आप जिसे बहुत बड़ी ख़ुशी कह रहे हैं, वही मेरे चुप रहने का कारण है, मेरे दु:ख का कारण है। .... डॉ. दीदी द्वारा गुड्डू को प्यार करना, अपनी मानना तक तो ठीक था, किन्तु इतनी बड़ी रक़म उसको देने के पीछे कहीं उनकी मंशा धीरे-धीरे आपको मुझसे छीन लेने की तो नहीं? एक बात और, मुम्बई में होटल में आप दोनों एक कमरे में रहे, चाहे बेड अलग-अलग ही थे तो कैसे यक़ीन करूँ कि रात को आप लोगों ने सीमा नहीं लाँघी होगी, जबकि आपने ख़ुद बताया है कि पचास लाख जीतकर आने के बाद डॉ. दीदी ने होटल में आते ही आपको बाँहों में भरकर ‘किस’ किया था?’

इतना कहते-कहते रेनु हाँफने लगी। मनमोहन ने कहा - ‘रेनु, आज यह तुम्हें क्या हो गया है? तुमने स्वयं ही तो मुझे वृंदा के साथ जाने के लिए कहा था, जबकि वृंदा तो तुम्हें भी साथ लेकर जाना चाहती थी। दूसरे, मान लो, एक कमरे में वृंदा के साथ रहने की बजाय मैं अलग कमरे में रहता तो यदि हमें कुछ ग़लत करना होता तो क्या नहीं कर सकते थे? रही बात वृंदा द्वारा मुझे तुमसे छीनने की, अरी पगली! जब मैंने वृंदा को चेताया कि यदि हमने अपनी भावनाओं को कंट्रोल नहीं किया तो गुड्डू जिसे वह दिलोजान से प्यार करती है, के भविष्य से खिलवाड़ करेंगे तो तुरन्त उसकी समझ में आ गया और उसने सॉरी फ़ील किया। रेनु , वृंदा उन लड़कियों में से नहीं है जिनके लिये प्यार करना एक शारीरिक क्रिया मात्र है। वह तो इसे स्वयं की सन्तुष्टि का हेतु न मानकर दूसरे को ख़ुशियाँ प्रदान करने का माध्यम मानती है। यह बात तो तुम भी भली-भाँति समझती हो।’

मनमोहन के स्पष्टीकरण से रेनु के मन-मस्तिष्क में छाए संदेह के बादल छँट गये। उसे ग्लानि का अनुभव हुआ कि उसने मनमोहन और डॉ. दीदी के पवित्र रिश्ते पर संदेह किया। उसने मनमोहन से प्रत्यक्ष माफी माँगना उचित न समझा, बल्कि करवट बदली और उसके आग़ोश में समा गई। मनमोहन के मन पर पड़ा टनों बोझ छूमंतर हो गया।

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