Pachhyataap - 14 in Hindi Fiction Stories by Ruchi Dixit books and stories PDF | पश्चाताप. - 14

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पश्चाताप. - 14

दो दिन मे ही प्रतिमा को मुकुल की पत्नि निशा का व्यवहार समझ मे आ गया , पूर्णिमा के बच्चों के प्रति उसका व्यवहार उसे तनिक भी अच्छा न लगता कभी कभी तो गुस्से मे कुछ कह देने को आतुर होती कि पूर्णिमा उसे रोक लेती | आखिर एक दिन प्रतिमा पूर्णिमा से " तू कब तक यह सब बर्दाश्त करती रहेगी , " तुझे बर्दाश्त करना है तो कर पर मै अपने बच्चों के साथ दुर्व्यवहार नही देख सकती पूर्णी |" तो क्या करु पुरु तू ही बता ? तू पहले जो करती थी वही काम फिर से शुरू क्यों न करती ? हाँ विचार आया था पर ? प्रतिमा पर क्या पूर्णी ? अब समय बदल गया है वही काम बेहतरी और लागत माँग रहा है | तो क्या करेगी तू अब ऐसे ही सबकुछ झेलती रहेगी ? नही ! अब नही !! प्रतिमा फिर कहाँ से लायेगी पूँजी , पूर्णिमा " घर बेचकर |" प्रतिमा उत्सुकता से पूर्णिमा की तरफ देखती है | " मै उसी कार्य से जा रही थी जब तुझसे मुलाकात हो गई | " तू मेरे लिए शुभ है पुरू अब मुझे विश्वास हो गया कि जल्दी ही हम आभाव और समस्या से बाहर निकल आयेंगे मेरी दोस्त मेरी बहन मेरी ताकत तू जो मुझे मिल गई |" प्रतिमा के आँखो मे आँसू की लड़ी झलक पड़ती है | तुझे पता है पूर्णी ? तू ही एक पहली है जिसने मुझे शुभता का खिताब दिया , वरना समाज और परिवार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ताने और व्यवहार से तो मै खुद को मनहूस समझने लगी हूँ |" पूर्णिमा " जब हमारे हालात हमारे अनुकूल होते है तभी यह समाज भी , और परिवार की अनुकूलता सौभाग्य से मिलती है , जब हमारी स्थिति अच्छी होती है तो परिवार और उसका व्यवहार अपने आप अच्छा हो जाता है | "तू ठीक कह रही है पूर्णी | " हमे जीवन की लड़ाई स्वंय जीतनी है कोई साथ दे या नही हम स्वंय का साथ नही छोड़ेंगे |" अगले दिन पूर्णिमा " प्रतिमा मै सोच रही थी कि प्रोपर्टी क्लासीफाईड कालम पेपर मे इस्तेहार दे दूँ |" " हाँ यह ठीक रहेगा इससे हमे अच्छे ग्राहक मिल जल्दी ही मिल जायेंगे | " पेपर मे इस्तेहार के दूसरे दिन से ही ग्राहकों के फोन आना शुरु हो जाता है , जल्दी ही पूर्णिमा का वह मकान जिसमे पूर्णिमा के जीवन का वह छोटा किन्तु बड़े परिवर्तन को समेटे क्रमवार अब बिकने को तैयार था , अभी तक जो पीड़ादायक स्मृति सहेजे था आज उसे बदलने मे सहायक खड़ा हो गया | जल्द ही पूर्णिमा को वह उचित स्थान मिल गया जहाँ उसने अपने कार्य की शुरुआत की प्रतिमा कार्य था आर्डर लाना और तैयार माल पहुँचाना और पूर्णिमा का तैयार करके के देना | धीरे- धीरे माँग बढ़ने लगी जिसे अकेले पूरा कर पाना पूर्णिमा के लिए कठिन से कठिनतम होता जा रहा था | पूर्णिमा ने पहले एक फिर कई सारी महिलाओं को अपने साथ लगा लिया | माल और माँग के साथ पूँजी की आवश्यकता भी पड़ने लगी , सरकारी योजनाओं ने जिसमे सहायता प्रदान की | वर्षान्त ही पूर्णिमा ने एक घर खरीदा जिसका नाम पूर्णप्रतिमा आवास रखा | काम मे व्यस्तता इतनी अधिक थी कि दोनो सहेलियाँ साथ होते हुए भी व्यक्तिगत बाते न के बराबर ही हो पाती , सारा दिन काम मे ही निकल जाता , समय पंख लगाकर कितनी दूर निकल गया दोनो को ही इसका आभाष नही हुआ | पूर्णिमा के बच्चे स्कूल से कालेज में पहुँच गये | इसी बीच एकदिन प्योन की अनुपस्थित मे पूर्णिमा स्वंय ही अपनी ड्राॕर साफ कर रही थी कि अचानक एक तस्वीर हाथ मे आते ही पूर्णिमा ठिठक जाती है , भरी हुई आँखो से उसे देर तक निहारती रही तभी प्रतिमा पूर्णिमा के हाथ से तश्वीर लेती हुई " सच कहूँ पूर्णी जीवन का तेरा यह फैसला गलत था यह नही कहूँगी लेकिन तूने यह सही किया इसकी परख किये बगैर किया यह गलत था |" पूर्णिमा रूँधे गले से "हाँ मानती हूँ मै गलत थी पर शशि.. ? क्या उन्होंने सही किया ? वे मुझसे प्रेम नही करते थे क्यों नही आये मुझे मेरी गलती बताने ? मै उनके जीवन मे कोई अहमियत नही रखती थी उनका मुझे पलट कर न देखना यह बता चुका है |" प्रतिमा
" जब तू जानती है तो उनके लिए आँसू क्यों? क्यों उनकी तश्वीर लेकर रो रही है ? नही ! ये आँसू उनके लिए नही है बल्कि उसके लिए है जो इस तश्वीर मे नही मेरा बाबू " कहकर और भी तेजी से रोने लगती है | प्रतिमा तू इतना प्यार करती है अपने बच्चे से फिर भी तूने पता न लगाया कभी कि वह कैसा है ?" पूर्णिमा "मै जानती हूँ वह अच्छा ही होगा मुझे शशि पर पूरा विश्वास है |" प्रतिमा "तू जब इतना विश्वास करती है शशि पर तो तू उनसे अलग हुई ही क्यों ? तूने ही क्यों न पहल की ?" पूर्णिमा "नही ..! मेरे आत्मसम्मान ने मुझे रोका | " मै अपनी जिम्मेदारी शशि पर थोपना नही चाहती थी | प्रतिमा " अगर वो तुझे बुलाने आते तो ? फिर भी |" पूर्णिमा " आये तो नही न? " कुछ उत्तर समय अपने पंख मे दबाकर ले उड़ता है और तश्वीर बदल जाती है | " प्रतिमा बात को बदलते हुए मासूम सा चेहरा बनाकर " चल अच्छा छोड़! बहुत समय से हम कही बाहर घूमने नही गये मुझे बाहर घूमना पूर्णि है |" पूर्णिमा प्रतिमा की बात समझती हुई शरारती आँखो से उसकी तरफ देखती है और दोनो सहेलिया मुस्कुराने लगती है जैसे कि कुछ हुआ ही न हो |