Pyar ke Indradhanush - 39 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

प्यार के इन्द्रधुनष - 39 - अंतिम भाग

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प्रायः ड्यूटी निभाकर घर आने पर जब टॉमी दुम हिलाता हुआ उसकी पिण्डुलियों से सिर रगड़ता था और वासु उसके हाथों में गर्मागर्म कॉफी का कप पकड़ाता था तो डॉ. वर्मा की सारे दिन की थकान छूमंतर हो जाती थी और वह कोई-न-कोई किताब लेकर पढ़ने बैठ जाती थी, किन्तु आज टॉमी द्वारा किया गया लाड़ और वासु द्वारा दी गई कॉफी थकान दूर करने में नाकाफ़ी रहे, क्योंकि आज थकान शारीरिक से अधिक मानसिक थी। इसीलिए डॉ. वर्मा टॉमी के लाड़ का प्रत्युत्तर न देकर बेडरूम में आकर लेट गई। टॉमी भी बेड के नज़दीक आकर खड़ा हो गया। वासु उसके लिये दो बिस्कुट ले आया, किन्तु उसने बिस्कुटों की तरफ़ देखा तक नहीं; वह अपनी स्वामिनी को कातर नज़रों से ताकता रहा। कुछ देर बाद डॉ. वर्मा ने आँखें खोलीं तो टॉमी को अपनी तरफ़ ताकते देखा तो उठकर उसके शरीर पर हाथ फेरा और पुचकारा। वासु को बिस्कुट लाने के लिए कहा। जब उसने बिस्कुट बढ़ाए तो टॉमी ने तुरन्त लपक लिए। तत्पश्चात् वह दुम हिलाता हुआ बेडरूम से बाहर चला गया।

डॉ. वर्मा फिर लेट गई। वासु को लगा, आज शायद डॉ. साहब की तबीयत ठीक नहीं है, अत: उसने दरवाज़े पर दस्तक देते हुए पूछा - ‘डॉ. सॉब, क्या बात, आप ठीक नहीं लगतीं! किसी को बुलाना हो तो बताओ। कहो तो स्पन्दन बिटिया को ले आऊँ?’ वासु जानता था कि स्पन्दन में डॉ. वर्मा के प्राण बसते हैं। जब वह पास होती है तो डॉ. वर्मा सदा खिली-खिली रहती हैं।

‘नहीं वासु, स्पन्दन को लाने की ज़रूरत नहीं। मैं ठीक हूँ, बस थोड़ा आराम करना चाहती हूँ। तुम दरवाजा बन्द कर दो और खाने-वाने का इंतज़ाम करो।’

दरवाजा बन्द होने के बाद उसने मोबाइल उठाया और ‘ओल्ड इज गोल्ड हिन्दी सोंग्स’ एप टच किया और पुराने सदाबहार गाने सुनाई देने लगे। एक गीत के बोल थे -

मेरी क़िस्मत में तू नहीं शायद, क्यूँ तेरा इंतज़ार करता हूँ

मैं तुझे कल भी प्यार करता था, मैं तुझे अब भी प्यार करता हूँ -

इन शब्दों पर वह विचार करने लगी। यदि ये शब्द पुरुष गायक की बजाय स्त्री गायिका की ज़ुबान से निकले होते तो पूरी तरह से मेरी मनोदशा की अभिव्यक्ति होते। .... मनमोहन को मैंने स्वयं किसी अन्य से विवाह करने के लिये विवश किया, क्योंकि माँ-पापा को वह मेरे जीवन-साथी के रूप में स्वीकार नहीं था। लेकिन उसके प्रति मेरा प्यार निश्चल है। वह हृदय में रहता है, फिर क्यों लोग समझते हैं कि मैं अकेली हूँ और मेरे हृदय में स्थान पाने का प्रयास करते हैं! क्यूँ, आख़िर क्यूँ .... ?

ओ.पी.डी. निपटाकर अपने केबिन में आकर बैठी ही थी कि इंटरकॉम की रिंगटोन बजने लगी। दूसरी तरफ़ डॉ. चौधरी था, वही जो कुछ दिन पहले ट्रांसफ़र होकर आया है। अभिवादन के बाद उसने कहा - ‘डॉ. वर्मा, यदि आप फ़ुर्सत में हों तो चाहे आप मेरे केबिन में आ जाएँ, या मैं आपके साथ चाय पीने के लिये आ जाता हूँ, जैसा आप चाहें।’

डॉ. चौधरी सीनियर है, इसलिए मुझे अच्छा नहीं लगा कि उसे अपने केबिन में आने के लिए कहती, सो जवाब दिया - ‘सर, आप कष्ट क्यों करेंगे, मैं ही आती हूँ।’

डॉ. चौधरी के केबिन में प्रवेश करते हुए मैंने ‘गुड इवनिंग सर’ कहा। डॉ. चौधरी ने खड़े होते हुए ‘वेलकम डॉ. वर्मा’ कहा और साथ ही हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ा दिया। अजीब तो लगा, किन्तु कहीं डॉ. चौधरी नाराज़ न हो जाए, इसे ध्यान में रखते हुए मैंने हाथ मिला लिया। अजीब इसलिए भी लगा था, क्योंकि उसके हाथ मिलाने के पीछे उसकी आँखों में वासना की झलक दिखाई दी थी।

‘बैठिए डॉ. वर्मा। मैं चाहूँगा कि आप मुझे ‘सर’ कहने का तकल्लुफ़ न करें, क्योंकि मेरा मानना है कि जहाँ तकल्लुफ़ आ जाता है, वहाँ सच्चा रिश्ता नहीं बन पाता। सीनियर-जूनियर में मेरा विश्वास नहीं। मैं सभी डॉक्टर साथियों से बराबरी का सम्बन्ध बनाकर चलना चाहता हूँ। ... आप क्या लेंगी - चाय या कॉफी?’

‘जो आप लेंगे, वही मैं ले लूँगी।’

चाय और कॉफी में से किसी एक के प्रति कोई विशेष रुचि मेरी कभी नहीं रही। अत: सीनियर की पसन्द का पेय लेने में मुझे कोई परेशानी नहीं थी। डॉ. चौधरी ने अटेंडेंट को बुलाकर कॉफी लाने के लिए कहा।

अटेंडेंट के जाने के पश्चात् डॉ. चौधरी ने कहा - ‘डॉ. वर्मा, मुझे पता चला है कि आप सिंगल मॉम हैं। …. आपने अपने मित्र जिससे आप प्यार करती थीं, किन्तु विवाह नहीं कर पाईं, की बेटी को गोद लिया हुआ है।’

यहाँ आकर वह रुक गया यह देखने के लिए कि मैं किस तरह से रियेक्ट करती हूँ। मैंने कहा - ‘आपने ठीक सुना है। यही वास्तविकता है। इतना ही जोड़ना चाहूँगी कि मेरी बेटी का फादर और मैं अब भी दोस्त हैं और मैं उसे पहले की तरह ही चाहती हूँ, किन्तु पारिवारिक तथा सामाजिक मर्यादाओं का पालन करते हुए।’

मेरे इस कथन के बाद उसने नज़रें झुकाते हुए कहा - ‘बड़ी उत्तम सोच है आपकी। मेरी नज़रों में आपकी इज़्ज़त और बढ़ गई है। .... यदि आप बुरा न मानें तो मैं एक बात कहना चाहता हूँ!’

‘मैं नहीं जानती कि आप क्या कहना चाहते हैं? बिना यह जाने, मैं क्या कह सकती हूँ? ख़ैर, कहिए, क्या कहना चाहते हैं?’

थोड़ी देर सोचने के बाद उसने कहा - ‘डॉ. वर्मा, मुझे बहुत ख़ुशी होगी यदि आप मुझे अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार कर लें। मैं आज तक जिस प्रकार की जीवनसंगिनी की तलाश में था, आपसे मिलने के बाद वह पूरी हो गई लगती है। ... आपकी बेटी से भी मुझे कोई दिक़्क़त नहीं होगी।’

‘डॉ. साहब, यही कहने के लिए आपने मुझे बुलाया है? ... यदि मुझे किसी अन्य से शादी करनी होती तो मैं अपने पेरेंट्स की सलाह वर्षों पहले मान लेती। ... मैं मन से अपने मित्र के प्रति समर्पित हूँ, तन से किसी और की होने का अर्थ होगा अपने ही मन, अपनी आत्मा से विश्वासघात। मैं ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकती।’

‘डॉ. वर्मा, आप ठीक कहती हैं, लेकिन शरीर की अपनी ज़रूरतें होती हैं। क्या कभी आपने इसे महसूस नहीं किया?’

मैं उत्तर दिए बिना आने लगी तो डॉ. चौधरी ने रोकने के अंदाज़ में कहा - ‘सुनिए ....’ किन्तु मैं रुकी नहीं, केबिन से बाहर आ गई। तभी से इस अनुत्तरित प्रश्न ने उद्वेलित कर रखा है। ऐसा क्यों है कि अकेली औरत को देखते ही पुरुष सोचने लगता है कि वह उसके निजी जीवन में आसानी से दख़लंदाज़ी कर सकता है। डॉ. चौधरी जैसे पुरुषों के लिए औरत मात्र एक देह है, देह के अतिरिक्त कुछ नहीं। कितनी अधूरी सोच है?

किन्तु मेरा प्यार, मनु, तुम ऐसे नहीं हो! तुम समझते हो कि प्यार क्या होता है! इसीलिए मेरा दिल कहता है-

‘मैं जिस दिन भूला दूँ तेरा प्यार दिल से

वो दिन आख़िरी हो मेरी ज़िन्दगी का।’

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लाजपत राय गर्ग

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