Vah ab bhi vahi hai - 53 - Last Part in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 53 - अंतिम भाग

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वह अब भी वहीं है - 53 - अंतिम भाग

भाग -53

मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि कभी इन बर्छियों का जख्म भरेगा। यह जख्म देने वाले शौहर को कभी भूल पाऊँगी। काश देश में तीन तलाक पर कानून पहले बना होता तो मैं उस नामुराद को मज़ा जरूर चखाती।

लेकिन तू ही देख न, सोच न कि जब तेरे साथ सुकून मिला। तुमने बेइंतेहा प्यार दिया । पैसा कमाने का जूनुन शुरू हुआ तो सब भूल गई। खो गई तुझी में। अब तू खुद को ही देख ले ना। जब मुझसे मिला तो शुरू में अपनी छब्बी की कितनी बातें करता था। थकता ही नहीं था। छब्बी से शुरू होता था, छब्बी पर ही खत्म होता था।

सच बताऊँ तब मैं ऊब जाती थी छब्बी, छब्बी सुनते-सुनते। लेकिन जब तू मेरे साथ जुड़ा तो भूल ही गया छब्बी को। जरा याद कर के देख, पहले के मुकाबले, एक पैसा भी याद करता है छब्बी को। अब तो तेरे मुंह से सैमी ही निकलता है। इसीलिए कहती हूं कि बड़वापुर लौट जाना।

वहां परिवार के साथ जब सुकून पाएगा तो सब भूल जाएगा। जब तुझे जरूरत पड़ेगी तो तेरा पूरा परिवार तेरे साथ खड़ा मिलेगा। और यहां, यहां तो कोई नहीं होगा आगे-पीछे। एक बात और कि इतने दिनों साथ रहते-रहते, यह बखूबी समझती हूं कि अब तू अकेले नहीं रह पाएगा। तू अंदर से बहुत कमजोर हो चुका है। अब तुझे सहारा चाहिए ही। अपनों का सहारा। इसलिए मेरी बात मान लेना, बड़वापुर लौट जाना। निसंकोच लौट जाना।

हां जब कभी समय मिल जाया करे अपनों से तो मुझे याद करके आंसू ना बहाना। बल्कि हंसना, खुश होना। खुश होना कि हम-दोनों ने इतना समय साथ-साथ बिताया। आखिर में इस तरह अलग हुए यह सोचकर भी दुखी ना होना। मेरे हिसाब से तुम्हारे अब-तक के जीवन का यही तीव्रतम दुःख है। फिर भी कहूँगी कि दुखी बिलकुल मत होना और अपने प्रोफ़ेसर साहब से कहना कि अधूरी शिक्षा न दिया करें, सिक्के के दोनों पहलू दिखाया करें।

देखा मैंने भी तुम्हारे प्रोफ़ेसर साहब की तरह जल्दी ही तुम्हें उत्तर बता दिया, तुम्हें परेशान नहीं होने दिया। देखो मेरे तन, मन, धन, मेरे ख्वाबों के राजा हम-दोनों ने जो कुछ किया, देखा जाए तो किसी भी तरह से सही तो नहीं था ना। हम-दोनों उन चाहतों के शिकार हुए, जो हर तरह से नाजायज थीं। अपनी गलत चाहतों के ही कारण हम-दोनों गुनाह दर गुनाह करते रहे। और अब....

देखो विलेन राजा, अब मैं यह मानती हूं कि आदमी को उसके अच्छे-बुरे का सारा शिला इसी ज़िंदगी में, इसी धरती पर मिल जाता है। दोजख-जन्नत सब यहीं है। इसलिए परेशान मत होना। दुखी मत होना। अपने घर लौट जाना। जहाज का पंक्षी हो या घोंसले का, शाम ढले जहाज या घोंसले में ही लौटता है।

आखिर में यह नहीं लिखूंगी कि मेरा अंतिम संस्कार तुम अपने हाथों करना, मुझे सुपुर्दे खाक करना, क्योंकि तुम पर मुझे पक्का भरोसा है, आंख मूंद कर यकीन करती हूं, कि यह सब तो तुम बिना कहे ही करोगे। अच्छा मुझे माफ करना। इस खता के लिए भी और जो जाने-अंजाने हुई हों उन सब के लिए भी।

अलविदा, अलविदा मेरे विलेन राजा।''

तो समीना इस तरह तुम एक झटके में अलविदा कह कर चल दी। छब्बी से आखिर में दो बातें करने को कौन कहे उसे देख भी नहीं सका था। मेरी पीड़ा इससे ज्यादा और क्या होगी कि तुमने भी दो बातें कर लेने का अवसर नहीं दिया। छब्बी और तुममें इतना फ़र्क है कि छब्बी का अंतिम संस्कार कैसे हुआ यह तक पता नहीं चला। पुलिस की लाठियां उल्टे मिली थीं। जबकि तुम्हारा, तुम्हारी इच्छानुसार अंतिम संस्कार कर सका था।

शुरुआत में पुलिस से कुछ गालियों की सिवा कोई और मुश्किल नहीं हुई। मैनेजर भी न सिर्फ शांत रहे, बल्कि हर तरह से मदद की, एक मित्र की तरह साथ दिया। तुम्हारी कही सारी बातें मैंने पूरी कीं। बस एक बात को छोड़कर कि बहुत कोशिश करके भी बड़वापुर घर नहीं लौट सका। क्योंकि घर लौटने को लेकर तुमने जो बातें जानी समझी थीं, वह वास्तव में वैसी रह नहीं गईं हैं।

वहां जाने के बाद कोई मुझे सिर-आंखों पर बैठाने को छोड़ो ढंग से बैठने के लिए भी कहने वाला नहीं है। इसके लिए अकेले ज़िम्मेदार मैं ही हूँ। मैंने काम ही ऐसे किए थे। दूसरे करेला उस पर नीम चढ़ा यह कि यहां कुछ बन तो सका नहीं। हां बनने के चक्कर में कर्म ऐसे-ऐसे कर डाले कि बदले में वो बीमारियां पाल ली हैं, कि मां-बाप भी होते तो सिर आंखों पर बैठाने को छोड़ दे, घर के किसी कोने में ही बैठाते। यही सब सोच कर मैंने तुम्हारी घर वापस जाने की बात नहीं मानी। इसके लिए बार-बार माफी माँगता हूँ ।

तुमने तो बीमारी का सिर्फ अंदेशा ही जताया था, मगर मुझे यकीन था। मैंने इस मामले में भी खुद को तभी तुम्हारे साथ मान लिया था, जब डॉक्टर ने तुम्हें यह बिमारी बताई थी। जल्दी ही यकीन सच में बदल गया। लेकिन मैं जब-तक काम करने लायक रहा तब-तक करता रहा और भले मानुष का कर्जा उतार दिया। मुझे पूरा विश्वास था कि यह सब जानने के बाद रमानी बहनें मुझे मैनेजर से कह कर बाहर निकलवा देंगी। मगर मैं इंतजार करता रहा, लेकिन उन्होंने नहीं निकाला। मैं आश्चर्य में तो तब पड़ा, जब करीब दो साल बाद दोनों बहनें वापस आईं।

उन्हें देखकर मैंने सोचा, कि बस अब समय आ गया है बाहर सड़क, फुटपाथ पर दर-दर भटकने का। मगर मैं आश्चर्य में पड़ गया। मैं उनके आने पर डर के मारे उनके सामने नहीं गया। वह दोनों खुद ही आईं कमरे पर। मेरा हाल-चाल पूछा। तब-तक मैं बेहद कमजोर पड़ चुका था। बातों ही बातों में मैंने बता दिया कि काम-धंधा सब बंद हो चुका है। अब खाना-पीना भी मुश्किल है। दवा की तो कोई बात ही नहीं ।

उन दोनों ने संक्षिप्त सा कहा, 'परेशान होने की जरूरत नहीं। मैं अरेंज करवा देती हूं।' और इस तरह उन बहनों के चलते सर्वेंट क्वार्टर मेरा ठिकाना बना हुआ है। कौन सा दिन मेरी भी ज़िंदगी का आखिरी दिन होगा, उसी की प्रतीक्षा कर रहा हूं। अब हाल यह है कि इस ''रमानी हाऊस'' में जिस ओर भी नजर डालता हूँ, तुम ही तुम दिखाई देती हो। विलेन-किंग कहने वाली मेरी सैमी।

अब मैं एक और बात भी अकसर सोचता हूं कि यह सब करके तुम तो चली गई, और मैं मौत के दरवाजे पर खड़ा हूँ, मगर ये बहनें... मेरे साथ संबंध तो इन दोनों के भी रहे हैं। इन्हीं का आने-जाने वाला कोई मेहमान ही तो यह मौत का सामान यहां तक ले आया। फिर ये सामान लाने वाले अब-तक मौज में कैसे हैं? या इनमें भी कई हैं जो हम जैसे हो गए हैं, मगर पैसों की आड़ में सब छिपे हुए हैं। जैसे साहब, सुन्दर हिडिम्बा के काले कारनामें और बड़वापुर में बंद पड़ी फैक्ट्री को बंद करवाने वाले लोग।

अरे वाह ! वाह-वाह, आखिर मैंने इसे पूरा कर ही लिया। शाबास रे हमनी के, शाबास।

हाँ समीना मैं खुद ही को बार-बार शाबासी दे रहा हूँ। क्योंकि मेरे आगे-पीछे तो कोई है नहीं जो मुझे मेरी किसी सफलता पर शाबासी दे, बधाई दे, इसलिए मैंने अपने हाथों से अपनी पीठ छू कर स्वयं को बधाई दे दी । क्योंकि जीवन में पहली बार मैंने कोई काम सफलता-पूर्वक पूरा कर लिया है।

काम भी कोई साधारण काम नहीं है, कम से कम मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असाधारण ही है। तुम होती तो तुम भी खुशी से झूम उठती। क्योंकि यह काम ऐसा है जो विलेन-किंग बनने के मेरे सपने को एक दूसरे तरीके से पूरा करेगा। जानती हो इसका पूरा श्रेय मैनेजर साहब को जाता है।

मैं तो यह सोचता हूँ कि यह हमारा दुर्भाग्य था कि वो हमें इतनी देर से मिले, नहीं तो हमारा जीवन ही कुछ और होता, न मैं तुम्हें खोता, न खुद को खोने की कगार पर खड़ा पाता। तुम्हारे जाने के बाद कभी-कभार उनसे होने वाली बात जल्दी ही इतनी होने लगी कि हम मित्रवत हो गए।

सारी बातें जानने के बाद एक दिन वह बोले, 'तुम तो वास्तविक जीवन में ही नायक-खलनायक सब बन चुके हो, सारे रोल अदा कर दिए हैं। तुम्हारा जीवन तो किसी बहुरंगी फिल्म से भी ज्यादा उतार-चढ़ाव भरा है, इतना ज्यादा कि फिल्म क्या एक लम्बी शानदार वेब-सीरीज बन सकती है। वैसे भी अब समय वेब-सीरीज का है, फिल्म तो बीते जमाने की बात होने की तरफ बढ़ रही है। इस कोविड-१९ महामारी ने तो फिल्म इंडस्ट्री की भी आक्सीजन चोक कर दी है।'

समीना फिर एक दिन वह अचानक ही बोले, 'बासू विलेन-किंग बनने का तुम्हारा सपना मैं पूरा कराऊंगा।'

यह सुनते ही मैं अवाक् उन्हें देखता रह गया। क्योंकि मैं उनकी क्षमता, उनका स्वभाव जानता हूँ। वह वही बात कहते हैं, जिसे शत-प्रतिशत कर सकते हैं।

मुझे अवाक देख कर उन्होंने पूछा, 'क्यों, मेरी बात पर विश्वाश नहीं हो रहा है क्या ?'

मैंने कहा, 'आपकी किसी भी बात पर अविश्वाश की बात तो मैं सोच ही नहीं सकता। मैं तो अपनी किस्मत पर आश्चर्यचकित हूँ कि अब मेरा सपना पूरा होगा। मगर अपनी हालत को देख कर समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं एक्टिंग कैसे करूंगा ?'

वह मुस्कुराते हुए बोले, 'तुम्हें एक्टिंग करनी ही नहीं है।'

उनकी यह बात सुनकर मैं बड़े पशोपेस में पड़ गया कि बिना एक्टिंग किये मेरा सपना कैसे पूरा हो जायेगा। मैंने बड़े संकोच के साथ उनसे अपनी शंका व्यक्त की तो उन्होंने बहुत विश्वाश के साथ आराम से सारी बातें बताईं। जिसे सुनकर मैंने कहा, 'मेरा सपना तो केवल विलेन बनने का था, लेकिन आपने तो मुझे हीरो, विलेन से लेकर राइटर, डायरेक्टर सब बना दिया। मैं बना दिया ही कहूँगा क्यों आपने तो एक तरह से सारी तैयारी भी कर ली है कि कैसे-कैसे क्या-क्या किया जाना है।'

हाँ समीना, वह एक पुख्ता प्लान के साथ मुझ से बात कर रहे थे। असल में उनके एक बहुत ही करीबी मित्र फायनेंसर हैं। वो फिल्म, सीरियल निर्माताओं को फाइनेंस करते हैं । मैनेजर साहब ने उन्हीं से बात की। उन्होंने उनकी बात एक सीरियल निर्माता से करा दी। निर्माता ने उनसे बातें करने के बाद कहा बड़ी, 'इंट्रेस्टिंग बातें हैं। औडिएंस को ग्रिप में लिए रहेंगी। आप मुझे पूरी स्टोरी दीजिये।'

इसके बाद मैनेजर साहब ने मुझसे सिलसिलेवार पूरी स्टोरी देने के लिए कहा। अब मेरे सामने विकट समस्या आ खड़ी हुई कि मैं पूरी स्टोरी दूँ कैसे? मैनेजर साहब ने कहा, 'यह काम तुम्हारे अलावा कोई और तो कर नहीं सकता। करना तुम्हें ही है। तुम्हारे जीवन की बातें तुम्हीं लिख सकते हो।

मैं यह जानता हूँ कि तुम्हारे लिए यह कोई कठिन काम नहीं है। जब अपने सपने के लिए अब-तक इतना संघर्ष किया, तो इसे आखिरी संघर्ष समझ कर शुरू कर दो। मुझे पूरा विश्वाश है कि तुम जब शुरू कर दोगे तो आसानी से पूरा कर लोगे। घबराने की कोई जरूरत नहीं है। घर छोड़ने से लेकर अब-तक की सारी बातें जैसे मुझे बताते थे, वैसे ही उसे लिखते चले जाओ बस। इतना तो लिखना-पढ़ना जानते ही हो कि जो भी बातें हैं, वह सब लिख लोगे। जो भी लिखोगे उसे फाइनली उनका प्रोफेशनल स्क्रिप्ट राइटर अपने हिसाब से ठीक कर लेगा। वो स्टोरी में जरूर कुछ ऐसा जोड़ेंगे-घटाएंगे जिससे यह उनके मुनाफे के लिए हॉट केक बन सके।'

समीना इसके बाद मैनेजर साहब ने मुझे इतना समय नहीं दिया कि ज्यादा सोच-विचार कर मैं कन्फ्यूज होता। उन्होंने अगले ही दिन एक छोटी सी फोल्डिंग टेबिल, एक रिम कागज़, एक पैकेट पेन भिजवा कर फोन किया। हँसते हुए कहा, 'मिस्टर राइटर आज से नहीं, अभी से शुरू हो जाइये। टेबल बिस्तर पर रख कर आराम से जितनी देर लिख सकें, उतनी ही देर लिखें। लगातार देर तक बैठ कर खुद को थकाने की आवश्यकता नहीं है।'

समीना मैनेजर साहब की बातों, कागज़, पेन सब देख-सुन कर मैं उत्साह, उमंग, जोश से भर गया। जैसे कोई बच्चा नया खिलौना देखकर तुरंत उसके साथ लग जाता है, मैं भी उसी तरह लग गया। बिस्तर पर दिवार के सहारे पीठ टिका कर बैठ गया। टेबिल खोल कर पैरों के ऊपर रख ली, राइटिंग पैड पर पेपर लगा कर शीर्षक लिखा '' बड़वापुर का विशेश्वर '' लेकिन फिर तुरंत काट दिया, क्योंकि मुझे लगा कि यह शीर्षक गलत है, और अनुचित भी, क्योंकि विशेश्वर के साथ छब्बी और समीना भी हैं। इन दोनों के बिना तो कुछ लिखा ही नहीं जा सकता।

बड़ी देर सोचने पर भी जब समझ में नहीं आया तो मैंने शीर्षक छोड़ कर आगे लिखना शुरू कर दिया। और आज करीब पांच महीने बाद यह पूरा लिख लिया है, लेकिन सही और उचित शीर्षक अभी तक नहीं रख पाया। हालांकि दिमाग में कई शीर्षक आये, जैसे ''बासू की सैमी'', ''बासू, छब्बी और सैमी'', ''उसकी नायिका का आखिरी पत्र'', ...मगर इन सब से मुझे बात बनती नहीं दिखी, तो मैंने यह सोच कर इस पर दिमाग लगाना बंद कर दिया कि मैनेज़र साहब से कहूँगा कि, आप प्रोफेशनल स्क्रिप्ट राइटर कहियेगा कि वो अपने हिसाब से रख लेंगे । वैसे भी आप कह ही रहे थे कि वह शुरुआत ही इस ढंग से करेंगे कि उनके लिए यह शुरू से आखिर तक हॉट केक बन जाये।

समीना इस समय मेरे रोम-रोम से मैनेजर साहब के लिए धन्यवाद गूँज रहा है। वह इन पांच महीनों में बराबर मेरे पास आते रहे, मुझे प्रोत्साहित करते रहे। एक दिन मैंने उनसे कहा कि, 'आप सीरियल बनवा देंगे, मेरी कहानी हमेशा के लिए अमर हो जायेगी, लेकिन फिर भी मेरी एक्टिंग की इच्छा, इच्छा ही रह जायेगी।'

इस पर वह मुझे कुछ देर गंभीरता से देखने के बाद बोले, 'तुम्हारी यह इच्छा जरूर पूरी होगी। मैं उनसे कहूँगा कि आखिरी के कुछ एपिसोड में वो कुछ ऐसा मोड़ दें कि बीमार बासू का रोल तुम कर सको। जब बीमार बासू ही वह रोल अदा करेगा तो दृश्य इतना स्वाभाविक होगा कि देखने के बाद कोई उसे भूल नहीं पायेगा। ये दृश्य तुम्हें हमेशा जीवित रखेंगे मेरे मित्र।' यह सुनते ही मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, 'देखिये आखिरी एपिसोड बनने तक जीवित भी रह पाता हूँ कि नहीं।'

मेरे यह कहते ही वह बहुत गंभीर हो गए। मुझे लगा कि मैं बिलकुल सच बात, गलत समय पर बोल गया तो बात बदलने की गरज़ से अपने मन की यह बात भी उनसे कही कि, कहानी में ''रमानी हाउस'' सहित सभी के नाम बदल दे रहा हूँ, जिससे किसी का व्यक्तिगत जीवन आम चर्चा का विषय बन उनके मान-सम्मान को ठेस न पहुंचाए। पहले तो सभी के वास्तविक चेहरे दुनिया के सामने उजागर करना चाहता था, लेकिन फिर सोचा प्रतिशोध अच्छा नहीं।' यह सुन कर उन्होंने कहा, 'यह अच्छा किया, नहीं तो रमानी बहनें तुम पर अमरीका से ही हमला करतीं, और यहां वालों के हमलों की गिनती मुश्किल हो जाती।'

वह बराबर अपनी राय बताते रहते थे, जिससे मुझे अपना काम पूरा करने में बहुत आसानी हुई। आज रात ही वह यह पूरी कहानी ले जाएंगे सीरियल निर्माता को देने के लिए। लेकिन समीना मैं बड़ा अजीब सा महसूस कर रहा हूँ कि पहले विलेन बनने की कोशिश करते-करते नौकर बन गया, मैनेजर साहब ने नौकर से उठा कर लेखक बना दिया। लेकिन इन सब के बीच विलेन-किंग बनने का मेरा सपना कहाँ है? मैं तो स्वयं को अब भी वहीं खड़ा पा रहा हूँ, जहाँ कभी प्रस्थान के समय था। मेरी विजय रेखा, मुझे अब भी उसी क्षितिज रेखा के पास दिख रही है, जहाँ प्रस्थान के समय थी। हाँ...हाँ समीना, वह अब भी वहीं है ...

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परिचय

प्रदीप श्रीवास्तव

मन्नू की वह एक रात, बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब, वह अब भी वहीं है ( उपन्यास )

मेरी जनहित याचिका, हार गया फौजी बेटा, औघड़ का दान, नक्सली राजा का बाजा, मेरे बाबू जी, मेरा आखिरी आशियाना, वह मस्ताना बादल  ( कहानी संग्रह ) खंडित संवाद के बाद ( नाटक )

कहानियां, पुस्तक समीक्षाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.हर रोज सुबह होती है (काव्य संग्रह), एवं वर्ण व्यवस्था पुस्तक का संपादन .लखनऊ में ही लेखन संपादन कार्य में संलग्न.

पुरस्कार: मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवार्ड -२०२०

प्रदीप श्रीवास्तव

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