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अनजान रीश्ता - 93

पारुल की जब आंख खुली तो वह बेड पर देखती है, लेकिन अविनाश नहीं था। वह फिर सीधा बालकनी की ओर देखती है! कहीं वह फिर से... लेकिन वहां पर भी नहीं था । वह कमरे का दरवाजा खोलते हुए! हॉल की ओर नजर डालती है की शायद नीचे नाश्ता कर रहा हो!? लेकिन पूरे हॉल में भी उसका अता-पता नहीं था। इतने सालो बाद पहली बार वह अविनाश के लिए फिक्रमंद हो रही थी। जो की शायद उसे आभास नहीं हुआ थी की वह क्या कर रही थी। वैसे भी इंसान कितना भी ढोंग कर ले लेकिन अगर वह इंसान दिल से जुड़ा हुआ है तो फिर एक ना एक दिन वह सारी भावनाएं जितने बल छुपाए रखी हो। उससे कई ज्यादा बल से उमड़कर निकलती है । वैसे ही कुछ पारुल के साथ हो रहा था । लेकिन वह तो यहीं समझ रही थी की वह बस एक इंसान की तरह फिक्र कर रही थी। या फिर अपने मन की संतुष्टि के लिए वह खुद को वहम में रखना चाहती थी। उसमे हिम्मत ही नहीं थी की वह इस बात को माने की वह आज भी अविनाश से..... । तभी उसे कोई पूछता है, " किसे ढूंढ रही हो। " पारुल को अहसास था की उस इंसान का सिर पारुल के कंधे से थोड़ी दूरी पर था लेकिन वह इंसान उसके करीब था।  वह पीछे मुड़कर कहने ही वाली थी की अविनाश को। लेकिन जब वह सिर को घुमाती है तो अविनाश का आधा शरीर बिना कपड़ो के था सिर्फ टावल में था.... अभी भी पानी की कुछ बूंदे उसके शरीर पे थी.... बाल भीगे हुए थे....पारुल का गला मानो सुख रहा था क्योंकि एक तो वैसे ही उसका दिल अपनी मर्जी कर रहा है ऊपर से अविनाश को ऐसे देखना यानी आग में घी में डालने का काम हो रहा था... पारुल खुद को और घूरने से रोकना चाहती थी लेकिन उसके नजरे हटने का नाम नहीं ले रही थी... उसे समझ नहीं आ रहा था की वह इतनी बेशर्म कब से बन गई । अविनाश पारुल का इस तरह का व्यवहार देखकर मुस्कुरा रहा था। वह जानता था कि पारुल को ऐसी बेशर्मी बिल्कुल पसंद नहीं। है। लेकिन जिस तरह से वह आज उसे देख रही है... उसे थोड़ा अजीब लग रहा था लेकिन उसके दिल को भा रहा था की पारुल उसे देखकर नजर नहीं चूरा रही। पारुल जिस ओर देख रही थी, अविनाश उसी जगह देखते हुए कहता है।

अविनाश: बोलो!? सुबह सुबह यहां ऐसी क्या देखने लायक चीज है जो तुम नंगे पांव बाहर चली आई!? । ( पारुल को चिढ़ाते हुए )
पारुल: ( मुंह बिगाडकर, अविनाश से दूरी बनाते हुए: घटिया इंसान घटिया ही रहेगा, नंगा खुद खड़ा है और मुझे! .... लेकिन तुम खुद भी तो अभी घूर घूर के देख रही थी! हॉट लग रहा है.. मान लो.... । संभालो खुद को पारुल... तुम इतनी घटिया कब से बन गई।  ) कभी तो अच्छा बोल लिया करो!? सुबह होते ही घटिया बाते!? ।
अविनाश: ( कमर पर हाथ रखते हुए ) हाहाहाहाहा... अब तुम्हारे दिमाग में गंदगी भरी है तो उसमे मैं क्या करु, नंगे पाव को नंगे पांव ही बोलते है।
पारुल: ( अपनी नजर इधर उधर करते हुए ) बस, मैं बिना चप्पल के बस ऐसे ही घूम रहीं हूं! मुझे अच्छा लगता है। खुश अब! ।
अविनाश: ( मुस्कुराते हुए पारुल को और भी परेशान करते हुए ) अच्छा तो तुम कह रही हो! तुम्हे नंगे पांव घूमना पसंद है!? ।
पारुल: ( गुस्से में आग बबूला होते हुए ) बेशर्म इंसान, कचरे के दिमाग वाले लोमड़ी, सड़े हुई सोच वाले घटिया आदमी हो! तुम ।
अविनाश: ( चेहरे पर बड़ी मुस्कुराहट आ जाती है। ) मैने तो पहले ही कहां था कि न... न।
पारुल: ( हाथ जोड़ते हुए ) सुबह सुबह मुझे बख्श दो! पता नहीं तुम्हारा दिमाग बिचारा कैसे जेलता होगा तुम्हे! ।
अविनाश: अच्छा ठीक है! पहले बताओ, इतनी सुबह ऐसे किसे ढूंढ रही थी!? ।
पारुल: ( मन में: जल्दी.... सोच.. जल्दी... हां ) वो... मै... मुझे लगा... की विशी.... आया.... है.... उसकी आवाज सुनाई.... दी.... इसलिए.... ।
अविनाश: ( उसका मूड बिल्कुल बदल जाता है, मानो थोड़ी देर पहले जो मजाकिया लहजा था वह एक ही सेकंड में बदल गया था । ) और वो भला क्यों!? ।
पारुल: वो... मैं... मतलब मुझे कुछ.... काम था उससे...।
अविनाश: ( दांत भीसते हुए ) काम...!? ।
पारुल: ( सिर को हां में हिलाते हुए जवाब देती है। ) ।
अविनाश: वो आ जाएगा! तुम जाओ पहले जल्दी से तैयार हो!? अभी हमें शूटिंग के लिए भी देर हो रही है।
पारुल: ओह! हां मैं भूल ही गई थी मुझे खाना भी बनाना है, और सारे काम भी करने है! ।
अविनाश: ( पारुल को रोकते हुए ) रुको! ।
पारुल: हनअ!? ।
अविनाश: तुम खाना नहीं बनाओगी!।
पारुल: क्यों!? ।
अविनाश: क्योंकि मैंने कहां!? बस इसलिए!? ।
पारुल: पर ऐसे बेवजह!? ।
अविनाश: ( गुस्से को काबू में करते हुए ) क्योंकि मुझे तुम्हारे हाथ का बना हुआ खाना पसंद नहीं इसलिए....और तुम ये सामने सवाल करना बंद कर दो! काफी ईरिटेटिंग लगती हो तब मुझे... ( इतना कहते ही वह कमरे की ओर चला जाता है। ) ।

पारुल वहीं खड़े खड़े सोचती है की ईरिटेटिंग लगती हूं से क्या मतलब है। पहले कौन सा मैं उसे पसंद होती हूं!? । पारुल खुद भी कमरे में चली जाती है। अविनाश बाथरुम में से कपड़े बदल कर आता है। सफेद शर्ट और ब्लैक पेंट में..... । पारुल फिर से नज़रे इधर उधर करते हुए... अविनाश से नज़रे चुराने की कोशिश करती है लेकिन चाह कर भी नहीं घुमा पाती। पारुल मन में ही कहती है " भगवान जी आज क्या हो रहा है, मैं क्यों इसे घूरे जा रही हूं! या तो मेरा दिमाग खराब हो गया है, मैने ना ड्रामा देखकर दिमाग को बिगाड़ कर रख दिया है। बस अब मैं और नहीं देखूंगी। नो! कैसे यार, तुम फिर और भी पागल हो जाओगी! हां! जल्द से जल्द एक नया ड्रामा देखने की जरूरत है, ताकि अपने इस मासूम दिल को संभाल पाऊं। हां पारुल... इसी का साइड इफेक्ट्स है, एक अच्छा हॉट हैंडसम हीरो देखूंगी.... ये दिल अपने आप संभल जाएगा... । पानी का ग्लास भरते हुए पूरा ग्लास पानी पी जाती है। वह बैड पर बैठती है। तब फिर से उसका ध्यान अविनाश की ओर जाता है तो वह मानो उसे आज कुछ ज्यादा ही हेंडसम लग रहा था। पारुल दिल पर हाथ रखकर... " थोड़ी ओर देर प्लीज.... मेरी बेइज्जती ना करवाओ यार... मैं सच में सबसे अच्छा गुड लुकिंग हीरो वाली ड्रामा सीरीज देखूंगी बस अभी संभालो! " । तभी अविनाश कहता है।

अविनाश: ( बाल संवारते हुए ) क्या बीवी! क्या बडबडा रही हो! इससे अच्छा गुड लुकिंग हीरो! हाहाहाहाहा... कहीं तुम्हारा दिमागी संतुलन ठीक तो है ना ।
पारुल: ( बेड पर से उठते हुए ) हैंअअ!? तुम्हे मैने इतनी जोर से बोला!? ( गॉड क्यों!? क्या बिगाड़ा है मैने! प्लीज थोड़ी बहुत तो हेल्प कर दो! इट्स एंबरसिंग। ) ।
अविनाश: ( सिर को ना में हिलाते हुए: इस लड़की का कुछ नहीं हो सकता। ) ।

पारुल हड़बड़ाते हुए खुद को और शर्म सार नहीं करना चाहती थी। वह जल्दी से बाथरूम का दरवाजा खोलने ही वाली थी की तभी अविनाश हंसते हुए कहता है। " वैसे जिस तरह से तुम मुझे घूर रही थी उसे अच्छा तो एक पिक्चर ले लेती ज्यादा देर टिकती । " पारुल मानो यह सुनकर शर्म से पानी पानी हो गई थी। वह जल्दी से दरवाजा खोलकर पटककर बंद कर देती है। दूसरी ओर अविनाश के जोर जोर से हंसने की आवाज आ रही थी।