Hamnasheen - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

हमनशीं । - 7

.....बुझे मन से रफ़ीक़ घर लौटा और बिना किसी से कुछ कहे सीधे अपने कमरे की तरफ चला गया। रफ़ीक़ को घर लौटा देख चिंटू ने आवाज़ दिया। पर रफ़ीक़ न पलटा और अपने कमरे में जाकर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया।

तभी किसी ने रफीक़ के कमरे का दरवाजा खटखटाया।

“देखो, चिंटू मियां। आज मुझे खेलने या कहीं घुमने का बिलकुल मूड नहीं। तुम अपनी खालाजान के पास जाकर खेलो।” – तकिये में अपना मुंह दबाए रफ़ीक़ ने बंद कमरे से ही आवाज़ लगाते हुए कहा।

“रफ़ीक़ मियां, मैं हूँ। दरवाजा तो खोलो। क्या हुआ, मुझे बताओ। ऐसी भी क्या बात हो गई कि यूं मुंह फुलाए बैठे हो।” – रफ़ीक़ की भाभी ने दरवाजे से ही खड़े-खड़े कहा।

“नहीं, भाभीजान। ऐसी कोई बात नहीं। वो तो बस्स......” – दरवाजा खोलते हुए रफ़ीक़ ने अपनी भाभी ख़ुशनूदा को बताया।

“तो फिर...., ऐसी भी क्या बात हो गई कि आते ही दरवाजा बंद करके बठे। क्या हुआ..... सब खैरियत है न? अपनी भाभी से तो बता सकते हो।” – ख़ुशनूदा ने रफ़ीक़ से कहा।

“नहीं भाभीजान। ऐसी कोई भी बात नहीं। आप गलत समझ रहीं हैं। ऑफिस में ज्यादा काम होने की वजह से थक गया था। इसलिए आकर लेट गया। मैं ठीक हूँ, बिलकुल ठीक।” –अपनी भाभी ने नज़र चुराए रफ़ीक़ ने जवाब दिया।

“पक्का न, सब ठीक है। कहीं तुममे और सुहाना मे कुछ अनबन तो नहीं हुई।” – रफ़ीक़ का मन टटोलते हुए ख़ुशनूदा ने पूछा।

“नहीं, भाभिजान। ऐसी क..क..कोई बात नहीं। मैं तो उससे मिल कर चाय-नाश्ता करके आ रहा हूँ। सब ठीक है, एकदम ठीक। आप फिक्र न करें।” – अपनी मन की बातों को छिपाते हुए रफ़ीक़ बोला।

फिर ज्यादा पुछमात न करते हुए ख़ुशनूदा रफीक के कमरे से निकल आयी। लेकिन, रफ़ीक़ मन ही मन बिलकुल अशांत था। सुहाना की बातें उसके मन पर हथोड़े जैसी लगी थी। कमरा बंद कर अपने मन को शांत करते हुए काफी देर तक सुहाना के साथ अपने भावी संबंध को लेकर ताना-बाना बुनता रहा।

रफीक के बड़े भाई साहब आमिर के ऑफिस से लौटकर आने पर ख़ुशनूदा ने बताया कि रफ़ीक़ के मिजाज आज कुछ ठीक नहीं। इसपर उन्होने कोई जवाब तो न दिया, पर रात के खाने के लिए खुद से रफ़ीक़ को बुलाने उसके कमरे मे चले गएँ।

बड़े भाईजान की आवाज़ सुनते ही रफ़ीक़ ने लपक कर दरवाजा खोला। “क्या हुआ रफ़ीक़? सुना, आज तेरे तबीयत नासाज़ हैं।” - रफीक के बड़े भाई साहब ने पूछा।

“नहीं भाई जान, ऐसी कोई बात नहीं।” – बड़े अदब से अपना सिर झुकाए रफ़ीक़ ने जवाब दिया।

“तो, फिर चलो। आज हम अपने छोटे भाईजान के साथ ही खाना खाएँगे।” – यह कहते हुए रफ़ीक़ का हाथ थामे आमिर उसे खाने के मेज़ तक लेकर आया। भाइयों का आपस में स्नेह देख घर के सभी सदस्यों का मन गदगद हो उठा। चिंटू तो यह परिदृश्य देखकर अतिउत्साहित था। बड़े प्यार से रफ़ीक़ की भाभी ख़ुशनूदा ने उसे अपने बगल में बिठा खुद से खाना परोस कर खाने को दिया। सभी का इतना प्यार और स्नेह देख न चाहते हुए भी रफ़ीक़ खाने को मना न कर सका।

तभी रफ़ीक़ की भाभी बोली - “अच्छा रफ़ीक़ मियां....., हमने एक बात सोची है। तुम्हारे और सुहाना की सगाई इतनी जल्दी हो गई कि हमसब कोई बड़ी पार्टी भी न दे पाएँ। फिर सबको इस बात से शिकायत भी है कि हमने उन्हे न बुलाया। क्यूँ न, इसी बात पर घर में एक छोटी सी पार्टी रखी जाए। इसी बहाने सुहाना भी सभी नाते-रिशतेदारों से रूबरू हो लेगी। जब से वह लौट कर आई है, न जाने क्यूँ मुझे कुछ बुझी-बुझी सी लगी। उसका मन भी थोड़ा बदल जाएगा और तुमदोनों को एक-दूसरे के करीब आने का मौका भी मिलेगा।”

रफ़ीक़ और घर के सभी सदस्यों को यह आइडिया बहुत पसंद आया। पार्टी के लिए आने वाले इतवार का दिन तय हुआ, जो दो ही दिन बाद था।

अगले ही दिन शहर के सभी नाते-रिशतेदारों और दोस्तों को दावत के लिए आमंत्रित कर दिया गया। ऑफिस से लौटते समय रफ़ीक़ भी सुहाना के घर उन्हे आमंत्रित करने पहुंचा। आज दरवाजा खुद सुहाना ने खोला।

“कैसी हो सुहाना? अब देखो, ये न कहना कि मैं फिर से आ गया। आज मैं किसी और काम से भी आया हूँ।” – सुहाना के दरवाजा खोलते ही रफ़ीक़ ने कहा। मुस्कुराती हुई सुहाना उसे घर के भीतर लेकर आयी।

“आओ, भीतर आओ। अम्मी, रफ़ीक़ आए हैं। कॉफी और कुछ खाने के लिए लाना। अब बोलो, क्या बात है?” - सुहाना बोली।

“बताऊंगा। पर, पहले चचिजान को तो आ जाने दो।” – रफ़ीक़ ने कहा। सुहाना उसे देख मंद-मंद मुस्का रही थी। थोड़ी ही देर में, सुहाना की अम्मी कॉफी और कुछ खाने को लेकर कमरे में प्रवेश करती हैं।

“दरअसल चचिजान, आज मैं आपलोगों को निमंत्रण देने आया हूँ। मेरे और सुहाना की सगाई की खुशी में बड़े भाईजान ने आने वाले इतवार को एक छोटी सी पार्टी रखी हैं। आपलोग सादर आमंत्रित हैं। वैसे मैं आपलोगों को लेने खुद आऊँगा।” –उत्साह से भरे रफ़ीक़ ने कहा।

“पर.......।” – सुहाना कुछ बोलने को हुई। उसकी बातों को शुरू होने से पहले ही रोकते हुए रफीक बोल पड़ा –“कोई पर-वर नहीं। मैं कुछ नहीं सुनना चाहता। मैं लेने आऊँगा। तुमलोग तैयार रहना बस।”

रफीक़ की बेइंतहा मुहब्बत और उसके चेहरे की खुशी को देख सुहाना मन ही मन आनंदित हो रही थी। अम्मी की निगाहें बचा पास बैठी सुहाना के हाथों को अपना हाथों में थामकर रफ़ीक़ के चेहरे की चमक दुगुनी हो गई थी। वहीं बैठे-बैठे ही वे दोनों अपनी सुनहरे ख्वाबों की दुनिया में खो गएँ:

तूने जो मेरा दामन थामा,
कभी नाचू-गाऊँ, कभी मैं इतराऊँ।

होके तुझसे.....ज़ुदा,
इक पल को भी मैं चैन न पाऊँ।

हमारी मुहब्बत ही हमारी पहचान है,
इक-दूजे में समाई हमारी जान है।

तुझ बिन मैं ज़न्नत भी ठुकरा दूँ,
साथ पाकर तेरा....मैं हर दिन ईद मना लूँ।

सारी दुनिया....भूल के मैं,
अपने इश्क़ में खो जाऊँ।

तूने जो मेरा दामन थामा,
कभी नाचू-गाऊँ, कभी मैं इतराऊँ।

तभी अम्मी ने उनका ध्यान कॉफी की ओर आकृष्ट किया, जो ठंडे हो रहे थें। झेंपते हुए दोनों ने खुद को सम्भाला और सपनो की दुनिया से हक़ीक़त में आ गए।

“वाह चचिजान! आपके हाथों का तो जवाब नहीं। इतने लाजवाब पकौड़े। बहुत खुब....!” –सुहाना के अम्मी की तारीफ करता हुआ रफीक़ बोला।

“ठीक है, अब मैं चलता हूँ। इतवार को आपलोग तैयार रहना। मैं लेने आऊँगा। खु़दा हाफिज़ !” – कहता हुआ रफीक़ अपने कार की तरफ बढ़ गया। उसे दरवाजे तक छोड़ने के लिए सुहाना उसके साथ बाहर आयी और अपनी आँखों से ओझल होने तक उसे निहारती रही।

इतवार का दिन । सुबह का समय ।

रफीक़ के घर के बाहर एक कार रुकती है और दरवाजे पर किसी की दस्तक होती है। रफीक़ की छोटी बहन ज़ीनत ने दरवाजा खोला। सामने एक लड़की अपना बैग लिए खड़ीं थी। पचीस-छब्बीस साल की वह लडकी, जिसकी लम्बाई करीब 5 फ़ीट 4 इंच, रंग गोरा, छरहरा बदन, सुनहरे और घुटने तक लम्बे बाल थे। मुस्कुराते हुए उसके गालों पर डिम्पल पड़ रहे थें, जो उसकी खुबसुरती में चार-चांद लगा रहे थें।

यह अफसाना थी। रफीक़ के मरहूम वालिद के अज़ीज दोस्त की बेटी। रफीक़ और अफसाना दोनो साथ-साथ बड़े हुए और दोनों में अच्छी जमती भी थी। पर, अफसाना के वालिद का दूसरे शहर में तबादला हो जाने से सभी को शहर छोडकर जाना पड़ा। अफसाना की नौकरी हाल में ही इस शहर में लगी थी और कुछ दिनों से वह होटल में रह रही थी। रफीक़ के बड़े भाईजान को इस बात की जानकरी मिलते ही उन्होने अफसाना के अब्बू से बात कर उसे अपने यहाँ रहने के लिए बुला लिया था।

“आदाब, अफसाना दीदी! कैसी हो? आओ, आओ।” – उसके हाथों से बैग लेकर ज़ीनत उसे घर के भीतर लेकर आती है।

“आदाब! कैसी है तू?” - अफसाना बोली।

“अम्मी, भाभीजान। देखो, कौन आया है?”- आवाज लगाकर ज़ीनत सबको बाहर हॉल में बुलाती है।

ज़ीनत की आवाज़ सुन रफीक़ की अम्मी और भाभी अपने-अपने कमरे से बाहर आते हैं और अफसाना को देख बहुत खुश होते हैं। अफसाना सबका अभिवादन करती है। तभी आमिर भी बाहर निकल कर आता है।

“आदाब, भाईजान।” – मुस्कुराते हुए अफसाना उसका अभिवादन करती हुई बोली।

“आदाब ! मैं तुमसे बहुत ख़फा़ हूँ, अफसाना। इतने दिनों से शहर में हो और हमें मालूम तक नहीं। होटल में रहने की क्या जरुरत थी? वह तो अच्छा हुआ कि खैरियत जानने के लिए मैंने चचाजान को फोन मिलाया तो तुम्हारे बारे में पता चला। चलो, कोई बात नहीं । ख़ुशनूदा, अबसे अफसाना यहीं रहेगी। इसका कमरा तैयार कर दिया है न!” – यह कहकर आमिर किसी काम से बाहर की तरफ निकल गया।

तभी, रफीक़ अपने कमरे से निकल कर बाहर आया और उसकी निगाह अफसाना पड़ पड़ी।

“आदाब ! कैसे हो रफ़ीक?”- मुस्कुराते हुए अफसाना ने रफीक़ कहा।

“आदाब। अरे.....तुम तो वही अफसाना हो न, जिसकी नाक हमेशा बहती रहती थी। माशा अल्लाह, अब तो पूरी बदल चुकी हो!” – अफसाना को चिढाते हुए रफीक़ बोला।

“चाचीजान, देखो न! कैसे कर रहा है, रफीक़।” – रफीक़ के चिढाने पर उसकी अम्मी से शिकायत करती हुई अफसाना बोली।

“तेरी बचपन की चिढाने वाली आदत अब तक नहीं गई। पता है, दोनो कितना झगड़ा किया करते थे। लेकिन, फिर भी एक-दूसरे के बिना न रह पाते। अफसाना के वालिद साहब के दूसरे शहर में तबादला की खबर सुनते ही ये दोनो कितना रोए थें।” – रफीक़ की अम्मी ने बताया।

“वो सब बचपन की बातें थी, अम्मी जान। अब हम बड़े हो चुके हैं। तुम भी कहाँ की बातें लेकर बैठ गई। पता है न, अभी कितनी सारी तैयारियाँ करनी है। थोड़ी ही देर में मुझे सुहाना के घर के लिए भी निकलना है।” – रफीक़ ने अपनी अम्मी से कहा।

“आज यहाँ कुछ खास है क्या?”- पूरे घर को सजा-धजा देखकर अफसाना पुछी।

“हाँ, अफसाना आपा। आपके रफीक़ मियाँ जल्द ही एक से दो होने वाले हैं। निकाह होने वाली है इनकी। बड़े भाईजान ने इनकी सगाई की खुशी में आज एक छोटी सी पार्टी रखी है। बिल्कुल सही मौके पर आयी हो आप। इनकी महबूबा..म..म...मेरा मतलब, इनकी होने वाली बीवी साहिबा को देख लेना। थोड़े ही देर में वो भी यहाँ मौज़ूद होंगी।” – ज़ीनत ने अफसाना को बताया।

“अच्छा ठीक है, बाकी बातें बाद में कर लेना। थकी-हारी आयी होगी। थोड़ा आराम कर लेने दो इसे। चलो अफसाना, मैं तुम्हे तुम्हारा कमरा दिखा देती हूँ ।” – यह कहते हुए ख़ुशनूदा, अफसाना को लेकर उसके कमरे की तरफ बढ़ जात्ती है।...