Mamta ki Pariksha - 33 books and stories free download online pdf in Hindi

ममता की परीक्षा - 33



"हाँ गोपाल बाबू ! मैं हर हाल में तुम्हारा साथ निभाऊँगी, बाबूजी नहीं माने तब भी। लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे बाबूजी मेरी इच्छा का अनादर नहीं करेंगे! बस एक बार उनसे बात तो करके देखो।" साधना ने कहा।

साधना की आत्मविश्वास से भरी हुई बात सुनकर गोपाल को बड़ा बल मिला। उसके संबोधन से खुश गोपाल ख़ुशी से चहकते हुए बोला, "साधना, तुम बहुत अच्छी हो ...और अच्छे लोगों की मदद तो साक्षात् ईश्वर भी करते हैं। मुझे भी पूरा यकीन है कि बाबूजी हमारी इच्छा का अनादर नहीं करेंगे। हमारी ख़ुशी में ही अपनी खुशी समझेंगे। बस, अब हमें उन्हें यकिन दिलाना है कि हम एक दूसरे से प्यार करते हैं। मेरा जी हल्का हो गया। तुम्हारा साथ पाकर मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरे अंदर अचानक हजारों गुनी शक्ति का संचार हो गया है, पूरी दुनिया से लड़ने का हौसला पैदा हो गया है मेरे अंदर !"

गोपाल की बातों से आश्वस्त साधना उसे वहीँ रुकने का इशारा कर घर के अंदर चली गई। जब बाहर आई उसके हाथों में थाली में चावल थे जिनमें से वह कंकड़ चुनने का प्रयास कर रही थी। नजरें चावल पर ही गड़ाए हुए गोपाल से पूछा, "चुल्हा जला कर दाल रख दी हूँ, चावल रखने जा रही हूँ। ये बताओ सब्जी कौन सी खाओगे ? आलू गोभी की सही रहेगी ? खाने बैठोगे उसी समय गरमागरम फुल्के बना दूँगी !"

"वो तो ठीक है साधना ! लेकिन अभी तो मेरा मन कर रहा है कि नहा धोकर पहले फ्रेश हो जाऊँ, और तुम हो कि सुबह सुबह ही खाने की चिंता में डूब गई हो।"
गोपाल ने हँसते हुए बोझिल माहौल को थोड़ा हल्का फुल्का बनाने की कोशिश की थी।
साधना पलभर कुछ सोचती रही और फिर बोली, "वो तो ठीक है, लेकिन नहाने के बाद पहनोगे क्या ? कपडे भी तो नहीं लाये हो।" फिर बरामदे में खूँटी पर टंगे मास्टर रामकिशुन के कपड़ों की तरफ देखते हुए मुस्कुराई और शरारत भरे स्वर में बोली, "बाबूजी के कपडे दूँ ?"

उसकी शरारत को समझकर गोपाल भी मुस्कुराये बिना नहीं रह सका। कुछ पल की खामोशी के बाद साधना ने ही रास्ता सुझाया, "ऐसा कीजिये, आप बाबूजी का यह गमछा पहनकर नहा लीजिये और फिर यही कपडे पहन लीजिये। बाबूजी आ जाएँ तो आपके साथ चलकर चौक से आपके लिए नए कपडे खरीदवा देंगे।"

"कह तो तुम ठीक रही हो, लेकिन यह बताओ नहाना कहाँ है ?" गोपाल ने जिज्ञासावश पूछ लिया।
साधना उसके भोलेपन पर हँसी, "यहाँ आपके बंगले जैसा बाथरूम नहीं मिलनेवाला है। यह गाँव है गोपाल बाबू ! यहाँ तो मर्दों को वो सामने के कुएं पर ही नहाना होता है। देखो वो रामलाल भैया के घर के सामने बने कुएं पर अभी भी कुछ लोग नहा रहे हैं।"
गोपाल ने उस तरफ देखा। वाकई दो लोग सिर्फ जाँघिया पहने कुएं की जगत पर बैठे साबुन लगा रहे थे। उन्हें देखकर मुँह बिचकाते हुए गोपाल ने कहा ," छि छि ! कैसी बेशर्मी है ये ? सबके सामने यूँ खुले में नहाना ! ना ना साधना, हमसे तो ये न होगा।"

"कोई बात नहीं ! इसके अलावा भी इंतजाम है हमारे गाँव में। गाँव से बाहर एक बड़ा सा पोखर है। सूरज ऊपर को चढ़ आया है। इस समय लगभग कोई नहीं होता वहाँ। चाहो तो एक डुबकी लगाकर आ जाओ फटाफट।" कहते हुए साधना ने खूँटी पर टंगा रामकिशुन का गमछा उतारकर उसे दे दिया।

"हाँ, कह तो तुम ठीक ही रही हो। नहा भी लेंगे हम और हमारी सैर भी हो जायेगी। गाँव के बारे में थोड़ी जानकारी भी बढ़ जायेगी।" कहते हुए गोपाल ने साधना के हाथ से वह लाल गमछा ले लिया।

गमछा लेकर उसने उसे गले में लपेट लिया और हँसते हुए बोला, "देखो, लग रहा हूँ न एकदम दिलीप कुमार ? अभी जो नई फिल्म में गाना है 'साला मैं तो साहब बन गया ....साहब बन के कैसा तन गया ...' बस जरा मेरे साथ उल्टा है। फिल्म में दिलीप कुमार देहाती है सूट पहन लेता है और मैं ...शहर से आकर गमछा पहनूँगा। वाह री जिंदगी ! लेकिन अपने प्यार के लिए मुझे जिंदगी का हर रंग मंजूर है। मैं वाकई बहुत खुश हूँ अपने प्यार के साथ हूँ , उसके करीब हूँ।" हँसते हँसते भी उसके चेहरे पर उभर आये दर्द को साधना नजरअंदाज नहीं कर सकी। उसका ह्रदय भी उसकी बेबसी देखकर तड़प उठा। क्या सचमुच गोपाल गाँव से सामंजस्य बैठा पायेगा ?

गमछा गले में लपेटे मस्त अक्खड़ चाल से चलता हुआ गोपाल वहाँ से जा चुका था और साधना एकटक उसे जाते हुए देख रही थी। कई तरह के विचार उसके मन में उमड़ घुमड़ रहे थे। गोपाल के आँखों से ओझल होते ही मन में उठ रहे विचारों को झटकते हुए साधना मुड़ी और घर के अंदर चली गई। थाली में रखा चावल अभी भी उसके हाथ में था।
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धीरे धीरे चलता हुआ गोपाल गाँव के बाहरी हिस्से में पहुँच गया। यहाँ तक पहुँचने के लिए लगभग दस मिनट वह लगातार चलता रहा। दिन के उजाले में वह पहली बार गाँव का अवलोकन कर रहा था। शायद रात वह इसी रास्ते से साधना के साथ उसके घर की तरफ गया था। सड़क किनारे उस चौराहे से जहाँ वह रात बस से उतरा था अंदाजे से एक तरफ चल पड़ा। दो ही मिनट बाद सड़क के किनारे वह पोखर उसे दिखाई पड़ा जिसके बारे में साधना ने उसे बताया था। उसने सड़क से नीचे उतरकर पोखर की तरफ बढ़ते हुए अपने आसपास का निरीक्षण किया। पोखर की एक तरफ से वह कच्ची सड़क गुजर रही थी जबकि उसके तीनों तरफ खेती थी जिसमें दो तरफ गन्ने की और एक तरफ अरहर की फसल लहलहा रही थी। उनसे परे कुछ खेतों में गेहूँ की फसल भी लगभग तैयार थी। कुछ खेतों में तो फसलों की कटाई का काम भी हो रहा था जहाँ किसान तेज धूप में भी अपने काम में व्यस्त थे। यह सभी नज़ारे गोपाल की नज़रों से होकर उसके दिल में उतरते जा रहे थे। कुदरत से उसका इतने नजदीक से कभी सामना नहीं हुआ था। खेतों में लहलहाती फसलें बरबस ही उसके मन को मोह रही थीं। इन्हीं सुंदर दृश्यों का अवलोकन करता हुआ वह पोखर के किनारे पहुँच गया। पोखर में अभी भी पर्याप्त पानी था लेकिन कहीं भी सीढियाँ या घाट वगैरह कुछ भी नहीं बना था। पानी के किनारे तक जमीन ठोस और कंकड़ युक्त थी। एक किनारे दो युवक कमर जितनी पानी में खड़े नहाने का आनंद उठा रहे थे। गोपाल तैरना नहीं जानता था इसलिए उसने पोखर में उतनी दूर तक कमर बराबर गहराई देखकर ईश्वर का धन्यवाद किया। अब वह बेफिक्र होकर पोखर में नहा सकेगा, नहीं तो ख्वामख्वाह ही डरते हुए किनारे बैठकर ही नहाना पड़ता। तैरना नहीं आने की बात से साधना अंजान थी नहीं तो उसे अवश्य यहाँ आने से मना करती। सारे कपडे निकालकर वह गले में लिपटा गमछा लुंगी की तरह लपेट कर पानी में उतर पड़ा। पानी में कुछ दूर जाने के बाद पैर के नीचे कीचड़ के अहसास और फिर नजदीक ही गंदे पानी को देखकर उसका नहाने का उत्साह जाता रहा। थोड़ा और आगे बढ़ने पर उसे साफ़ पानी नजर आया लेकिन तब तक पानी उसके सीने तक पहुँच चुका था। इससे आगे बढ़ना निश्चित ही उसके लिए खतरनाक होता, सो और आगे न बढ़कर वहीँ एक डुबकी लगाकर उसने उन दोनों की तरफ देखा जो उससे कुछ ही दूरी पर पहले से नहा रहे थे। उनकी तरफ देखते हुए अचानक उनसे कुछ ही दूरी पर एक साँप उनकी तरफ बढ़ते हुए दिखा। गोपाल की तो जान ही सूख गई। चीख उसके हलक में घुट कर रह गई। उसने ताली बजाकर उन व्याक्तियों का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया और उन्हें इशारे से साँप की तरफ देखने के लिये कहा। साँप अब तक उनके काफी करीब पहुँच चुका था लेकिन उसे देखकर भी उन दोनों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वो पूर्ववत नहाते रहे। एक ने तो साँप की तरफ ही छलाँग लगा दी और फिर अचानक साँप अदृश्य हो गया। गोपाल काफी डर गया था। उसे लगा कहीं वह साँप डूबकर उसी की तरफ आ गया तो ? एक और डुबकी लगाकर वह जल्दी जल्दी पानी से बाहर आ गया। पानी से बाहर आकर उसकी जान में जान आई।

कपडे पहनकर उसने भीगे हुए गमछे का पानी निचोड़कर उसे दोनों हाथों से यूँ पकड़ लिया कि किसी पताके की तरह वह हवा की सीध में लहराने लगा। यद्यपि वह उसे खंगालना चाहता था लेकिन साँप का खौफ अभी भी उसके मन में था लिहाजा उसने फिर से पानी में न उतरने का फैसला किया और यूँ ही बस पानी निचोड़ लिया। उसे अब धूप का भी अहसास हो रहा था। यूँही दोनों हाथों में गमछा ताने उसकी छाँव में वह मास्टर रामकिशुन के घर की तरफ चल पड़ा।

बरामदे से बाहर खड़ी मास्टर रामकिशुन की साइकिल देखकर उसका दिल जोरों से धड़क उठा। उसने याद करने की कोशिश की 'आज कौन सा दिन है ? शायद ..शनिवार ! ओह ! इसीलिये लगता है आज आधे वक्त की ही स्कूल रही होगी। जरूर मास्टर रामकिशुन ही आये होंगे। स्कूल की छुट्टी जो हो गई होगी। सिर पर पकड़े गमछे को उसने पास ही पड़े खटिये पर फैला दिया हालाँकि अब तक वह सूख चुका था। मन में उठ रहे तमाम आशंकाओं के बिच ही उसकी नजर अभी साधना को तलाश ही रही थी कि उसे घर के अन्दर से कुछ आवाज सुनाई पड़ी।

मास्टर रामकिशुन आँगन में नल के नीचे हाथ पैर धो रहे थे। गोपाल ने आगे बढ़कर नल चलाकर उनकी मदद की। नल चलाते हुए भी गोपाल की नजरें साधना को ही खोज रही थी। गोपाल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं। वह सोच रहा था 'लगता है बाबूजी को आये हुए देर हो चुकी है। कहीं उनका सामना साधना से न हो गया हो ! क्या जवाब देगी वह बेचारी उनके सवालों का ? कैसे जवाब देगी ?'

हाथ पैर धोकर मास्टर के साथ गोपाल बाहर आया, तभी उसे साधना नजर आई जो अभी अभी परबतिया चाची के घर से निकलकर अपने घर की तरफ बढ़ रही थी।

क्रमशः