Aankh ki Kirkiri - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

आँख की किरकिरी - 13

(13)

काशी से लौट कर महेंद्र ने आशा को जब मौसी के भेजे गए स्नेहोपहार - एक सिंदूर की डिबिया और सफेद पत्थर का एक लोटा - दिए, तो उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। मौसी का वह स्नेहमय धीरज और उन पर अपनी तथा सास की फजीहतों की बात याद आते ही उसका हृदय व्याकुल हो उठा। उसने महेंद्र से कहा - बड़ी इच्छा हो रही है कि एक बार मैं भी काशी जाऊँ और मौसी की क्षमा तथा चरणों की धूल ले आऊँ। क्या यह मुमकिन नहीं?

 महेंद्र ने आशा के मन की पीड़ा को समझा और इस बात पर राजी भी हुआ कि वह कुछ दिनों के लिए अपनी मौसी के पास जाए। लेकिन फिर अपनी पढ़ाई का हर्ज करके खुद उसे काशी ले जाने में उसे हिचक होने लगी।

 आशा ने कहा - मेरी बड़ी चाची जी तो जल्दी ही काशी जाने वाली हैं। उनके साथ चली जाऊँ तो क्या हर्ज है?

 महेंद्र ने जा कर राजलक्ष्मी से कहा - माँ, बहू एक बार चाची से मिलने के लिए काशी जाना चाहती है।

 राजलक्ष्मी ने व्यंग्य से कहा - बहू जाना चाहती है, तो जरूर जाए। जाओ, उन्हें ले जाओ!

 बिहारी राजलक्ष्मी से मिलने आया, तो वह बोलीं - अरे, बिहारी, सुना तूने? अपनी बहू काशी जा रही है?

 बिहारी बोला - कह क्या रही हो माँ, महेंद्र भैया फिर पढ़ाई हर्ज करके जाएँगे?

 राजलक्ष्मी बोली - न-न, महेंद्र क्यों जाएँगे? महेंद्र यहीं रहेंगे। बहू अपने बड़े चाचा के साथ जाएगी।

 बिहारी भीतर-ही-भीतर परेशान हुआ। वह सोचने लगा, आखिर माजरा क्या है। महेंद्र काशी गया तो आशा यहाँ रही और वह लौटा, तो अब आशा काशी जा रही है। दोनों में कुछ ऐसा हुआ है। आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? दोस्त हो कर भी हम इसका कोई प्रतिकार नहीं कर सकते - दूर से खड़े-खड़े तमाशा देखते रहेंगे?

 माता के व्यवहार से बड़ा ही कुढ़ कर महेंद्र अपने कमरे में आ कर बैठा था। विनोदिनी ने इस बीच महेंद्र से भेंट नहीं की थी, सो आशा उसे बगल के कमरे से यहाँ ले आने के लिए अनुरोध कर रही थी।

 ऐसे में बिहारी आया। उसने महेंद्र से पूछा - आशा भाभी का काशी जाना तय हुआ है?

 महेंद्र बोला - क्यों न हो, कोई अड़चन है?

 बिहारी बोला - अड़चन की बात कौन कह रहा है! मगर अचानक तुम्हारे दिमाग में यह आया कैसे?

 महेंद्र ने कहा - अपनी मौसी को देखने की इच्छा, परदेस में रहने वाले आत्मीय के लिए व्याकुलता मानव चरित्र में होती है।

 बिहारी ने पूछा - साथ तुम जा रहे हो?

 पूछते ही महेंद्र के दिमाग में आया, बड़े चाचा के साथ भेजना ठीक नहीं - बिहारी इसी पर बात करने आया है। - ज्यादा बोल-चाल से कहीं गुस्सा न फट पड़े, इसीलिए उसने संक्षेप में कहा - नहीं।

 बिहारी महेंद्र को पहचानता था। वह नाराज है, यह बिहारी से छिपा न था। वह यह भी जानता था कि उसने जिद पकड़ ली, तो उसे टस से मस नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने फिर उसके जाने का जिक्र ही न किया। सोचा - बेचारी आशा अगर जी में कोई पीर ही छिपाए जाती हो, तो विनोदिनी के साथ जाने से उसे थोड़ी-सी राहत मिलेगी। उसने धीरे से कहा - उनके साथ विनोद भाभी जाएँ, तो अच्छा न रहेगा?

 महेंद्र चीख उठा- बिहारी, अपने मन की बात खोल कर ही कहो! मेरे साथ टेढ़े-टेढ़े चलने की क्या जरूरत है? मैं समझ रहा हूँ, तुम्हें शुबहा है कि मैं विनोदिनी को प्यार करता हूँ। गलत है। प्यार मैं नहीं करता। मुझे बचाने के लिए पहरा देते फिरने की जरूरत नहीं। अपने को सम्हालो!

 जहाँ पर काफी दर्द हो, वहाँ अगर कोई बेरहमी के साथ पाँवों से मसल डाले तो चोट खाया हुआ आदमी चोट करने वाले पर जिस तरह बिना कुछ विचारे टूट पड़ना चाहता है, उसी तरह रुद्ध गले से बदरंग पड़ा चेहरा लिए बिहारी कुर्सी से उठ कर महेंद्र की ओर लपका और, सहसा रुक कर किसी तरह बोल पाया- ईश्वर तुम्हें क्षमा करें, मैं चला।

 लड़खड़ाता हुआ वह कमरे से बाहर निकल गया। बगल के कमरे से विनोदिनी झपट कर आई- बिहारी बाबू!

 दीवार का सहारा लिए हँसने की कोशिश करते हुए बिहारी ने कहा - क्या है, विनोद भाभी!

 विनोदिनी बोली - किरकिरी के साथ मैं भी काशी जाऊँगी।

 बिहारी ने कहा - नहीं-नहीं भाभी, यह न होगा। मैं आरजू करता हूँ, मेरे कहने से कुछ मत करना। मैं यहाँ का कोई नहीं होता, यहाँ की किसी भी बात में मैं दखल नहीं देना चाहता। तुम देवी हो, जो तुम्हें ठीक जँचे, वही करना! मैं चला।

 विनोदिनी को नम्रता से नमस्कार करके बिहारी जाने लगा।

 विनोदिनी बोली - मैं देवी नहीं हूँ भाई साहब, सुनो तो सही। तुम चल दोगे, तो किसी का भला न होगा। फिर मुझे दोष मत देना!

 बिहारी चला गया। महेंद्र ठगा-सा बैठा रहा।

 विनोदिनी बिजली-सी कटाक्ष करती हुई बगल के कमरे में चली गई जहाँ आशा मारे शर्म के मरी-सी जा रही थी। बिहारी उसे प्यार करता है - महेंद्र के मुँह से ऐसा सुन कर वह मुँह नहीं उठा पा रही थी। लेकिन उस समय उस पर विनोदिनी को दया न आई। आशा ने अगर निगाह उठा कर देखा होता, तो वह डर जाती। सारे संसार पर मानो खून चढ़ आया था। विनोदिनी का झूठ! बेशक विनोदिनी को कोई भी नहीं प्यार करता।

 आवेश में वही जो एक बार महेंद्र के मुँह से निकल पड़ा था कि मैं नालायक हूँ, उसके बाद जब वह आवेश जाता रहा तो अपने उस अचानक उबल पड़ने की वजह से बिहारी से वह सकुचा गया था। उसे लग रहा था कि उसकी सारी बातें खुल गई हैं। वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता, फिर भी बिहारी का खयाल है, प्यार करता है। जो कुढ़न बढ़ रही थी, आज वह अचानक भभक पड़ी।

 लेकिन बगल के कमरे से विनोदिनी दौड़ती आई, और उसने बिहारी को रोकने की कोशिश की और बिहारी के कहे मुताबिक वह काशी जाने को तैयार हो गई - यह सब महेंद्र की कल्पना के भी बाहर था। इस दृश्य ने महेंद्र को एक चोट पहुँचा कर अभिभूत कर दिया। उसने कहा था कि वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता लेकिन जो कुछ सुना, जो कुछ देखा, उसने उसे चैन न लेने दिया। चारों तरफ से उसे बेचैन बनाने लगा। और बार-बार निरे अफसोस के साथ उसके जी में होने लगा कि विनोदिनी ने मुझे यह कहते सुना कि मैं उसे प्यार नहीं करता।

 महेंद्र ने सोचा, गलत, मैं विनोदिनी को प्यार नहीं करता। शायद प्यार न भी करता हूँ, मगर कहना कि नहीं करता हूँ यह तो और भी कठिन है। इससे चोट न पहुँचे, ऐसी स्त्री कौन है? इसके प्रतिवाद की गुंजाइश कैसे हो?

 महेंद्र ने बक्स से निकाल कर उसकी तीनों चिट्ठियों को फिर से पढ़ा। वह मन-ही-मन बोला - इसमें कोई संदेह नहीं कि विनोदिनी मुझे प्यार करती है। मगर कल वह बिहारी के सामने इस तरह क्यों आई? शायद मुझे दिखाने के ही लिए। मैंने जब साफ जता दिया कि मैं उसे प्यार नहीं करता, तो फिर किसी मौके से मेरे सामने प्यार को ठुकराए नहीं तो और क्या करे? हो सकता है, मुझसे इस तरह ठुकराई जाने पर वह बिहारी को प्यार भी करने लगे।

 महेंद्र का क्षोभ इस तरह बढ़ चला कि अपनी उतावली से वह आप ही अचरज में पड़ गया। डर उठा। और, विनोदिनी ने सुन ही लिया तो क्या कि महेंद्र उसे प्यार नहीं करता? इसमें दोष भी क्या?

 आँधी आने पर नाव की जंजीर जैसे लंगर को कस कर पकड़ती है, वैसे ही अकुलाहट में महेंद्र ने आशा को और भी कस कर पकड़ा।

 रात को महेंद्र ने आशा का मुँह अपनी छाती से लगा कर पूछा - चुन्नी, ठीक बताओ, तुम मुझे कितना प्यार करती हो?

 आशा सोचने लगी - यह सवाल कैसा! बिहारी के बारे में जो शर्मनाक बात निकली है, क्या उसी से उस पर संदेह की ऐसी छाया पड़ी?

 वह शर्म से मुई-सी हो कर बोली - छि:, आज यह क्या पूछ रहे हो तुम! तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, साफ बताओ, मेरे प्यार में तुम्हें कब क्या कमी दिखाई दी?

 उसे सता कर उसका माधुर्य निचोड़ने की नीयत से महेंद्र बोला - फिर तुम काशी क्यों जाना चाहती हो?

 आशा बोली - मैं नहीं जाना चाहती। कहीं भी नहीं जाऊँगी मैं।

 महेंद्र - लेकिन चाहा तो था पहले?

 आशा बहुत दुखी हो कर बोली - तुम्हें पता है, मैंने क्यों चाहा था? मजे से रहने के लिए नहीं जाना चाहती थी मैं।

 महेंद्र ने कहा - सच कहूँ चुन्नी, और किसी से विवाह किया होता तो तुम इससे कहीं ज्यादा सुखी होती।

 सुनते ही चौंक कर आशा महेंद्र से छिटक पड़ी और तकिए में मुँह गाड़ कर काठ की मारी-सी पड़ी रही। कुछ ही क्षण में उसकी रुलाई रोके न रुकी। सांत्वना देने के लिए महेंद्र ने उसे कलेजे से लगाने की कोशिश की, पर आशा तकिए से चिपकी रही। पतिव्रता के ऐसे रूठने से महेंद्र सुख, गर्व और धिक्कार से क्षुब्ध होने लगा।

 विनोदिनी सोचने लगी, आखिर ऐसी तोहमत लगाए जाने पर बिहारी ने प्रतिवाद क्यों नहीं किया? उसने झूठा प्रतिवाद भी किया होता, तो मानो विनोदिनी को खुशी होती। ठीक ही हुआ कि महेंद्र ने बिहारी पर ऐसी चोट की। यह उसका पावना ही था। आखिर बिहारी-जैसा आदमी आशा को प्यार क्यों करेगा? इस चोट ने बिहारी को दूर जो हटा दिया, मानो वह अच्छा ही हुआ। -विनोदिनी निश्चिंत हो गई।

 लेकिन मृत्यु-बाण से बिंधे बिहारी का रक्तहीन पीला मुखड़ा विनोदिनी के हर काम में उसके पीछे-पीछे घूमता-सा रहा। विनोदिनी के अंदर जो एक सेवापरायण नारी प्रकृति थी, वह उस कातर चेहरे को देख कर रोने लगी।

 दो-तीन दिन तक वह सभी कामों में अनमनी रही। आखिर उससे न रहा गया। उसने एक सांत्वना पत्र लिखा -

 भाई साहब, तुम्हारा जो सूखा चेहरा देखा, है, तब से मैं हृदय से यही कामना करती हूँ कि तुम भले-चंगे हो जाओ, जैसे तुम थे, वैसे ही हो जाओ - तुम्हारी वह सहज हँसी फिर कब देखूँगी - वह उदार बातें फिर कब सुनूँगी एक पंक्ति में अपनी कुशल मुझे लिख भेजो! - तुम्हारी विनोदिनी भाभी।

 दरबान की मार्फत चिट्ठी उसने बिहारी को भेज दी।

 बिहारी आशा को प्यार करता है, इस बात को महेंद्र इस रुखाई और इस बेहयाई से जुबान पर ला सकता है - बिहारी ने यह कभी स्वप्न में भी न सोचा था। क्योंकि उसने खुद भी कभी ऐसी बात को दिल में जगह न दी थी।

 लेकिन बात जब एक बार मुँह से निकल पड़ी, तो एकबारगी मार तो नहीं डाला जा सकता। उसमें सच्चाई का बीज जितना था, देखते-ही-देखते वह अँकुराने लगा।

 अब उसने खुद को कसूरवार समझा। मन-ही-मन बोला - मेरा गुस्सा करना तो शोभा नहीं देता, महेंद्र से माफी माँग कर विदा लेनी होगी। उस रोज मैं कुछ इस तरह चला आया था, मानो महेंद्र दोषी है, मैं विचारक हूँ... अपनी यह गलती मुझे कबूल करनी पड़ेगी।

 बिहारी समझ रहा था, आशा चली गई है। एक दिन शाम को वह धीरे-धीरे जा कर महेंद्र के दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ। राजलक्ष्मी के दूर के रिश्ते के मामा साधुचरण पर नजर पड़ी। कहा - कई दिनों से इधर आ नहीं सका - सब कुशल तो है?

 साधुचरण ने कुशल कही। बिहारी ने पूछा - भाभी काशी कब गईं?

 साधुचरण ने कहा - कहाँ, गई कहाँ? उनका जाना अब न होगा।

 यह सुन कर बिहारी सब कुछ भूल कर अंदर जाने को बेचैन हो उठा। पहले वह जैसे ग्रहण भाव से खुशी-खुशी अपनों-सा परिचित सीढ़ियों से अंदर जाया करता था, सबसे हँसता-बोलता था, जी में कुछ होता न था, आज उसकी मनाही थी, दुर्लभ था वह - इसकी याद आते ही उसका मन पागल हो गया। बस एक बार, केवल अंतिम बार इसी तरह अंदर जा कर परिवार के सदस्य-सा राजलक्ष्मी से, घूँघट निकाले आशा भाभी से दो बातें मात्र कर आना उसके लिए परम आकांक्षा का विषय बन बैठा।

 साधुचरण ने कहा - अरे, अँधेरे में खड़े क्यों रह गए, अंदर आओ!

 बिहारी तेजी से दो-चार डग की तरफ बढ़ा और मुड़ कर बोला - नहीं, चलूँ मैं, काम है। और जल्दी से लौट गया।

 उसी रात बिहारी पश्चिम की ओर कहीं चला गया।

 बिहारी घर पर नहीं मिला - दरबान विनोदिनी की चिट्ठी ले कर लौट आया। महेंद्र डयोढ़ी के सामने वाले बगीचे में टहल रहा था। उसने पूछा - किसकी चिट्ठी है?