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सपने - (भाग-3)

सपने.....(भाग-3)

आस्था के सिर पर लटकी शादी की तलवार पूरी तरह से हटी तो नही थी, पर शायद कुछ दिन का ब्रेक मिल गया है, इस बात को आस्था बखूबी समझती थी।
सूरज कुमार नाम का खतरा ही टला है बस, ये ख्याल आस्था को जागने और शादी के झंझट से कुछ साल दूर रहने का उपाय सोचने के लिए उसके दिलो दिमाग में खींचतान चल रही थी......जब सोचते सोचते थक गयी तो अपनी सहेली स्नेहा माथुर का ख्याल आया और मुस्कुरा कर सोने की कोशिश करने लगी.....पर सोने से पहले स्नेहा को मैसेज करना नहीं भूली। सुबह नाश्ता करके उसके घर जाने का प्लान बन गया था.....स्नेहा उसकी बचपन की सहेली जो सिविल लाइन्स में रहती है, अपने मम्मी पापा, दादी और छोटे भाई के साथ.....उसकी मम्मी स्कूल में हिंदी की टीचर हैं और पापा एक प्राइवेट नौकरी करते हैं......स्कूल से कॉलेज तक का सफर दोनों सहेलियों ने बखूबी तय किया है..... स्नेहा ने M.A में दाखिला ले लिया है और साथ ही एक पार्ट टाइम जॉब भी करती है दोपहर 3 बजे से 7 बजे तक....किसी ऑफिस में डाटा एंट्री का काम है। छोटा भाई अभी 10 वीं में पढता है.....स्नेहा पढने में होशियार तो है, साथ ही आस्था की हर परेशानी का हल भी उस के पास मिलता है। दोनो को एक दूसरे पर अटूट विश्वास है, तभी दोस्ती का ये रिश्ता इतने सालों के बाद भी बहुत खूबसूरत है.....शायद दुनिया में माँ और बच्चे के बाद बस दोस्ती का ही रिश्ता सबसे अनमोल होता है। इस रिश्ते की सबसे खूबसूरत बात ये है कि अपनी बात एक दूसरे पर नहीं थोपी जाती, सारा खेल आपसी समझ का होता है चाहे फिर रिश्ता कोई भी हो....।
आस्था सुबह 9बजे उठी और झटपट नहा धो कर तैयार हो गयी.....फटाफट नाश्ता करके, "माँ स्नेहा के पास जा रही हूँ थोड़ा लेट हो जाएगा कह कर ये जा और वो जा"! स्नेहा ने उसका मैसेज उठते ही पढ़ लिया था तो वो अपना सब काम निपटा कर उसी का इंतजार कर रही थी, उसकी पसंद के हीरा हलवाई के समोसे और जलेबी के साथ.....हीरा हलवाई सिविल लाइंस का मशहूर हलवाई है। जहाँ से दोनो सहेलियों की बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं.....स्कूल और कॉलेज टाइममें हर खुशी को उन्होंने यहाँ कि मिठाई और समोसे खा कर ही तो सेलिब्रेट किया है.....! आस्था ने स्नेहा के घर में घुसते ही सीधा रसोई में रखे फ्रिज की तरफ कदम बढाएँ," महारानी जी पहले हाथ तो धो ले फिर हाथ लगा फ्रिज को"....! उसके कदम वॉशबेसिन की तरफ मुड़ गए......आस्था हमेशा ऐसा ही करती थी और स्नेहा उसे ऐसे ही याद दिलाती थी.....आस्था ने जब तक हाथ धोए तब तक स्नेहा ने पानी का गिलास उसके हाथ में पकड़ा दिया। पानी पीने के बाद दोनो सहेलियों की गपशप शुरू हो गयी। समोसे और जलेबी पर दोनो जन हाथ साफ करते करते बतियाने में लगी थीं। आस्था ने अपने पापा के ऐलान से ले कर सूरज कुमार के हुलिए तक सब जैसे एक साँस में कह डाला। स्नेहा आस्था के बताने के स्टाइल पर ही हँस हँस कर लोट पोट होती जा रही थी...........फिर बात सीरियस मैटर पर आ कर रूक गयी कि, "पापा का ध्यान आस्था की शादी से कैसे डाइवर्ट किया जाए....और अपना एडमिशन एक्टिंग स्कूल में कैसे कराया जाए"? स्नेहा को आस्था के पापा का गुस्सा भी पता था और उनकी जिद से भी अच्छी तरह वाकिफ थी। बहुत सोच विचार करने के बाद स्नेहा ने आस्था को एक रास्ता सूझा ही दिया," आस्थू ऐसा कर तू अंकल जी की बात मान कर M.A में एडमिशन ले कर उन्हें खुश कर दे, मेरी तरह Correspondence में ही ले, पर उन्हें बोल की तुझे दिल्ली के कॉलेज से करना है M.A ....फिर तू वहाँ जा कर N.S.D में एडमिशन ले कर अपना सपना पूरा कर सकती है....क्या कहती है"? "यार तेरा आइडिया तो मस्त है, पर तुझे पता तो है कि पापा कहेंगे यहीं से पढो दिल्ली जा कर पढने की क्या तुक है"? आस्था की बात सुन कर स्नेहा फिर सोच में पड़ गयी, क्योंकि जो आस्था कह रही थी वो गलत नहीं था......"चल अभी मेरा काम पर जाने का टाइम हो गया है, दूसरा आइडिया सोचते हैं"! स्नेहा आस्था से बात करते करते प्लेटस किचन में रखने चली गयी।आस्था ने घड़ी में टाइम देखा तो 1:30 बज गया था....."यार बातों में टाइम का पता ही नहीं चलता", कह कर वो स्नेहा के तैयार होने तक वॉशबेसिन पर लगे शीशे में खुद को निहारने लगी। स्नेहा पर आस्था को यकीन है कि वो जरूर कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेगी......पर आस्था कहाँ जानती है कि उसके पापा को अपनी बेटी को विदा करने की जल्दी है...सो हर रविवार कोई न कोई लड़का निखिल और विजय जी देखने चल देते.......इधर आस्था अपना टाइम पास और अपने सीखे गए हुनर मतलब डांस....अपने मोहल्ले ही की छोटी छोटी लडकियों को सिखाने लग गयी, विजय जी को तो वैसे भी ये नाच गाना पसंद नहीं था पर निखिल और अनिता जी के जोर देने पर उन्हें मानना ही पडा..... पर ज्यादा दिन ये आजादी वाली फीलिंग ले नहीं पायी ...पापा जी ने एक और सुयोग्य लड़का आस्था के लिए ढूँढ निकाला.......लड़का रेलवे डिपार्टमेंट में ही था.....शेखर, इस बार सब परख कर ही विजय जी ने रविवार को अपने घर आने को कह दिया। आस्था को अपनी ये नुमाइश पसंद नहीं आ रही थी, पर जब तक कोई रास्ता नहीं दिखता तब तक पापा से पंगा नहीं लेना चाहती थी! क्योंकि आस्था जानती थी कि अभी तक उसके पापा उसकी पसंद को अहमियत दे रहे हैं, अगर उन्हें मेरे इरादे पता चल गए तो जिस मर्जी से उसकी शादी करके घर से विदा करके ही दम लेंगे.....
क्रमश: