Mamta ki Pariksha - 54 books and stories free download online pdf in Hindi

ममता की परीक्षा - 54



घर के लिए वापस आते हुए साधना को ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसके पैरों में मनों वजनी कोई भार बाँध दिया गया हो। एक एक पग उठाने के लिए उसे खासी मशक्कत करनी पड़ रही थी। अधिकांश गाँव वाले उससे सहानुभूति के साथ दिलासा देने का अपना दायित्व पूरा करते हुए अपने अपने घरों को लौट चुके थे। कुछ अभी भी उसके साथ थे और बोझिल क़दमों से धीरे धीरे चलते हुए उसका साथ दे रहे थे।

साथ चलते हुए मास्टर रामकिशुन बेटी के मनोभावों से अनभिज्ञ न थे। आँखें उनकी भी डबडबाई हुई थीं। गम की अधिकता उनके चेहरे पर भी साफ़ देखा जा सकता था। वह मन ही मन गोपाल को शहर भेजने के साधना के फैसले का समर्थन करने के अपने फैसले की समीक्षा कर रहे थे। उन्हें अब अपने इस फैसले में कोई औचित्य नजर नहीं आ रहा था सिवा इसके कि उसे शहर भेजने का प्रस्ताव खुद साधना ने दिया था।
'तो क्या हुआ प्रस्ताव साधना ने दिया था ?' उनका दिल उन्हें लताड़ लगाते हुए बोला, 'वह तो अभी बच्ची है। उसने अभी देखा ही क्या है ? भावना में बह गई लेकिन तुम ?.. तुम तो उसे सही गलत का भान करा सकते थे ? उसे समझाने की बजाय तुम खुद क्यों उसका ही समर्थन कर बैठे ? ..अगर कल को गोपाल किसी मुसीबत में फँसता है तो सारा दोष तुम्हारा ही होगा। तुम इस इल्जाम से बच नहीं सकते।'

मन ही मन वह खुद को कोसते रहे लेकिन अब क्या हो सकता था ? अब तो तीर कमान से निकल चुका था। घर पहुँच कर मास्टर हाथ मुँह धोकर तैयार होने लगे घर आये विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिये। साधना अंदर कमरे में पहुँच कर खटिये पर औंधे मुँह गिर कर तकिए में मुँह छिपाकर फफक पड़ी।
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कच्ची सड़क पर कार धीरे धीरे हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ रही थी। दिनभर के अपने प्रवास को ख़त्म कर सूर्यदेव भी अस्ताचल में अपने गंतव्य को पहुँच कर विश्राम कर रहे थे। उनकी अनुपस्थिति में चारों तरफ अँधेरे का साम्राज्य फ़ैल गया था । हिचकोले खाती गाडी के हेडलाइट की रोशनी सड़क पर ऊपर नीचे हो रही थी। रास्ता अस्पष्ट नजर आ रहा था। खेतों के बीच खड़े इक्कादुक्का पेड़ ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो कोई विशालकाय दानव खेतों के बीच खड़े हों और सुरक्षित दूरी रखकर कार का पीछा कर रहे हों, उसके साथ चल रहे हों अपनी सीमा तक और फिर वहीँ रुक जा रहे हों।

बाहर फैले अँधेरे में घूरते हुए गोपाल की आँखें छलक पड़ी थीं साधना की याद आते ही।
'निश्चित ही साधना की हालत भी उससे अच्छी नहीं होगी' उसका मन उससे हमदर्दी जताते हुए बोल पड़ा, 'भले ही उसने माँ के प्रति हमदर्दी जताते हुए उसे शहर जाने के लिए कहा हो लेकिन मन ही मन वह अपने फैसले पर पछता अवश्य रही होगी।'

तमाम तरह के ख्यालों से घिरा हुआ वह गुमसुम सा बैठा हुआ था जबकि जमनादास कुशलता से गाड़ी भगाए जा रहा था। गाँव की कच्ची सड़क को पीछे छोड़ कार अब पक्की चिकनी सड़क पर फर्राटे से भागी जा रही थी। घुप्प अँधेरे में कोई फर्क नहीं आया था और न ही दृश्यों में कोई फर्क आया था। शहर की झिलमिलाती रोशनी अब दूर से दिखाई पड़ने लगी थी। कुछ ही मिनटों में कार अग्रवाल विला के सामने रुकी।
जमनादास की गाड़ी को पहचानकर दरबान ने झट से बंगले का गेट खोल दिया और हाथ उठाकर उनका अभिवादन किया।
मुख्यद्वार से हटकर एक तरफ बने गैराज में गाडी पार्क करके गोपाल और जमनादास बंगले के मुख्य द्वार पर पहुँचे। हॉल में कोई नहीं था। जमनादास आगे आगे चल रहा था और गोपाल उसके पीछे पीछे। ऐसा लग रहा था जैसे यह घर गोपाल का न होकर जमनादास का ही हो। जमनादास सीधे बृंदा देवी के कमरे की तरफ बढ़ा। गोपाल ने भी उसके साथ ही अपनी माँ के कमरे में प्रवेश किया।

कमरे का दृश्य देखते ही गोपाल चौंक गया। उसकी उम्मीद के विपरीत उसकी माँ बृंदा देवी पलंग पर पैर पसार कर सिरहाने की तरफ रखे ग्रामोफोन पर कोई मनपसंद गीत सुन रही थीं और फ़ाइल से अपने नाखूनों को तराशते हुए संग संग गुनगुना भी रही थीं। बेहद प्रसन्न चित्त नजर आ रही थीं उसकी माँ बृंदा देवी।
गोपाल के सामने अब जमनादास के झूठ की पोल खुल चुकी थी। गुस्से से भरे हुए गोपाल ने कहर भरी निगाह जमनादास पर डाली और सर्द लहजे में उसे खा जानेवाली निगाहों से घूरते हुए बोला, "बहुत खूब मेरे दोस्त, लेकिन मुझे तुमसे ये उम्मीद नहीं थी। आज तो तुमने दोस्ती शब्द को ही कलंकित कर दिया। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि ये तुम हो मेरा जिगरी दोस्त, जिसे मैं अपने सगे भाई से भी बढ़कर चाहता था।"

"अरे गोपाल, यार मेरी बात तो सुन। मैंने कुछ गलत नहीं किया। आंटी की तबियत वाकई ख़राब थी। हो सकता है अभी उन्हें थोड़ा ठीक लग रहा हो।" जमनादास अभी भी अपने झूठ पर कायम था।

"हाँ, तुम बिल्कुल सही कह रहे हो। बेटे की जुदाई का दर्द तो उनके चेहरे पर साफ साफ दिख रहा है और मैं समझ रहा हूँ कि तुम भी वही देख रहे हो जो मैं देख रहा हूँ।.. लेकिन मैं वह भी महसूस कर रहा हूँ जमना जो तुम शायद कभी महसूस नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारे अंदर भी इन्हीं अमीरों का बेगैरत दिल धड़क रहा है जिनकी नज़रों में प्यार मोहब्बत ,जज्बात सिर्फ अफसानों और किताबों तक ही सीमित होते हैं , हकीकत में नहीं। जबकि मैं महसूस कर रहा हूँ साधना का दर्द , उसकी आँसुओं में डूबी निगाहें और उसका गमगीन चेहरा.......!"

" खामोश !.. बदजात ! " बृंदा देवी की तेज चीख से उसका वाक्य अधूरा रह गया। कुछ ही मिनटों में बृंदा के चेहरे का सुकोमल हिरणी से किसी भयानक शेरनी में रूपांतर हो गया था। कर्ण कर्कश आवाज में चीखते हुए वह बोली, "घर में घुसा नहीं कि उस महारानी का गुणगान शुरू कर दिया जिसके नाम से भी मुझे नफ़रत है। कान खोलकर सुन ले, अब आगे से तेरी जुबान पर उसका नाम भी आया तो मुझसे बुरा कोई न होगा। जब मैं तुझपर इतने पैसे खर्च कर सकती हूँ तो उसे वसूल भी सकती हूँ।"

" वाह, वाह ! माँ ..आखिर दिल की बात तुम्हारे जुबान पर आ ही गई। हकीकत ये नहीं कि मैं तुम्हारा बेटा हूँ इसलिए तुम्हें मेरा ख्याल है बल्कि हकीकत ये है कि मैं तुम्हारा निवेश हूँ इसलिए मेरा ख्याल करती हो। ..लेकिन तुम भी कान खोलकर सुन लो माँ, अब साधना मेरी है और मैं उसका। हमने शादी कर ली है और हमें कोई जुदा नहीं कर सकता।.. कोई भी नहीं !" कहते हुए गोपाल आवेश में हांफने लगा था।

"हा हा हा .... दस बीस जाहिलों की भीड़ के बीच फेरे लेने और मंतर पढ़ लेने से कोई पति पत्नी नहीं हो जाता। हमारे समाज में इस शादी की कोई जगह नहीं.. और खबरदार जो किसी के सामने इस बात की चर्चा भी की।" एक जोरदार ठहाका लगाने के बाद बृंदा ने उसे एक और धमकी दी, "सेठ अम्बादास की इकलौती बेटी सुशीला को हमने तेरे लिए पसंद कर लिया है। दर्जनों फैक्ट्रियों के मालिक सेठ अम्बादास की सभी संपत्तियों की सुशीला अकेली वारिस है। इससे बढ़िया रिश्ता हमें और नहीं मिल सकता।"

" ये रिश्ता तुम्हें मुबारक हो माँ ! मुझे तो तुम्हें माँ कहते हुए भी शर्म आ रही है। कोई माँ ऐसी भी हो सकती है ?" कहने के बाद गोपाल तेजी से बाहर की तरफ भाग पड़ा। जब तक बृंदा और जमनादास कुछ समझते गोपाल बंगले के मुख्य दरवाजे से बाहर निकलकर अँधेरे में सड़क पर गुम हो गया।

क्रमशः