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बेमेल - 1

गांव का धनाध्य जमींदार राजवीर सिंह। मां लक्ष्मी की असीम कृपा थी उसपर। सैंकडों एकड जमीन और अथाह सम्पत्ति का मालिक। आकाश छुती अमीरी ने कभी भी उसके पांव जमीन से न डगमगाने दिए। ना कभी कोई घमंड किया और न ज्यादा पाने की लालच ने कभी उसे मुनाफाखोरी की दलदल में ढकेला। गरीब और बेसहारों की मदद के लिए सदैव तत्पर रहता। परिणाम यह हुआ कि देखते ही देखते उसके रसुख और दरियादिली की चर्चा आस-पडोस के गांवों तक फैल गई। पर कहते हैं न कि घर को सबसे बडा खतरा घर के चिरागों से ही होती है। राजवीर सिंह के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। राजवीर सिंह का ब्याह रूपवती सुनंदा देवी से हुआ था और देखते ही देखते उनकी बगिया में प्यार के चार फूल खिले। एक के बाद एक तीन बेटियां और सबसे बाद में एक बेटा हुआ। दिन बीतने के साथ बच्चे कब बडे हो गए, पता ही न चला। दानपूण्य करने वाला राजवीर कभी भी सन्मार्ग से पथभ्रष्ट न हुआ और न ही कभी दरिद्रता ने उसके दरवाजे पर दस्तक दिया।

राजवीर सिंह अपने चारों बच्चों को एक समान स्नेह देता। पर सबसे छोटा मनोहर मंदबुद्धि वाला था और ये बात उसे भीतर ही भीतर खाए जा रही थी। आखिर कोई तो योग्य उत्तराधिकारी चाहिए था जो उसके बाद इस भरे-पूरे जायदाद को सम्भाल सके। पर मनोहर का मंदबुद्धि होना उसकी तीनों बहनों के लिए हश्र का विषय था। वैसे तो राजवीर सिंह ने अपनी तीनों बेटियों- नंदा, सुगंधा और अमृता की शादी सुयोग्य वर तलाशकर की थी और वे सभी शहर में अपने परिवार में सुखी-सम्पन्न थे। पर छोटे भाई मनोहर के मंदबुद्धि होने से उन सबकी निगाह पिता की जायदाद पर थी। फिर मंदबुद्धि की वजह से ही मनोहर की अबतक शादी भी नहीं हो पाई थी।

एकदिन तीनों बहनें पतियों संग मायके पहुंची। उनकी असली मंशा से अंजान पिता की आंखे सबको एकसाथ देख खुशी से चमक उठी।

“तुम सबके आने से घर में रौनक-सी लौट आई है! आते रहा करो। हम बुढे हो चले हैं। बुढापे में मां-बाप को बच्चों की आस सदा बंधी रहती है!” – कमरे में प्रवेश कर मां सुनंदा देवी ने हर्षोल्लास से कहा। उसकी बातें सुन बहनों ने आंखों ही आंखों में एक-दूसरे से बातें की, मानो आने का प्रयोजन साधने के लिए कूच करने को कह रही हो। पिता राजवीर सिंह की परिपक्व निगाहें बेटियों की उलझन को ताड रही थी।

“क्या हुआ? तुमलोग कुछ परेशान दिख रही हो? मन में जो बात है दिल खोलकर कहो! हम पिता हैं तुम्हारे! बच्चों की समस्या का हल करना हमारा परम कर्तव्य है! कहो...बेझिझक होकर कहो, जो भी कहना है!” – पिता राजवीर सिंह ने विवाहिता बेटियों से कहा। उनकी बातों पर कमरे में मौजुद तीनों दामाद मन ही मन मुस्कुराकर अपनी अर्धागिनियों की तरफ निहारने लगे। पिता की बातें सुन बेटियों को भी अपने मन में दबी बात रखने का बल मिला।

“मां, सही कहा तुमने! उम्र के इस पडाव में हम बच्चे ही तो काम आएंगे। इसी ज़िम्मेदारी को समझ हमसब आज यहाँ जमा हुए हैं। अब आपसब की भी आराम करने की उमर हो चुकी है। आखिर कब तक काम करोगे आप सब! समझती हूँ अब मनोहर की जो हालत है उसपर भी इतनी बडी ज़िम्मेदारी सौंपना सुरक्षित नहीं होगा। फिर वो तो अपनी ज़िम्मेदारियों का भी सही तरीके से वहन नहीं सकता! इसिलिए हम सबने तय किया है कि क्यूं न इस पूरी सम्पत्ति की ज़िम्मेदारी हमसब उठाए और आपलोग आराम करिए। हम सब हैं न आपकी सेवा करने के लिए!” – बडी बेटी नंदा ने बडी चपलता से कहा। पिता राजवीर सिंह उसकी बातें सुन चुप थे।

“पर... मनोहर! उसका क्या होगा? ऐसा करना तो उसके साथ सरासर अन्याय होगा!” – मां सुनंदा ने अपनी उलझन जाहिर की।

“क्यूं? अन्याय क्यूं होगा? हम बहनें अपने छोटे भईया मनोहर के लिए ही तो ये सब कर रही हैं! अब आपसब ही सोचो कि पिताजी के बाद किसी ने मनोहर से सारी सम्पत्ति हडप ली तो क्या होगा! वो ठहरा पागल, किसी के कहने या डराने-धमकाने पर कहीं भी अंगुठा लगा देगा! पिताजी की ज़िंदगी भर की मेहनत को हम बहनें ऐसे कैसे ज़ाया होने देंगे! इसिलिए अपने पतियों से राय-सलाह करके हमसब यहाँ आयी हैं! क्यूं जी, आपसब क्या कहते हो?” – नंदा ने पांव पे पांव चढाकर दावत उडा रहे जमाईयों से पुछा।

“हाँ हाँ, बिल्कुल! सोलह आने सही कह रही हो आप! पिताजी, आप बिल्कुल चिंता मत करिएगा। हमसब भी आपके ही बच्चे हैं और आपकी, मां की और समूचे जमीन-जायदाद की देखभाल करना हमारी ज़िम्मेदारी बनती है। अब मनोहर भईया से तो ये सब सम्भल नहीं पाएगा। इसिलिए हमसब आए हैं ताकि आपदोनों का भी ख्याल रख सकें और मनोहर भईया का भी! पर मनोहर भईया है कहाँ? दिखाई नहीं दे रहे!” – मंझले दामाद ने बडी चालबाजी से अंधेरे में एक लौ अपने ससुर राजवीर सिंह के दिमाग में जला दी थी।

तभी अपने कमीज की कोर दांतों से कुरेदता हुआ मनोहर कमरे में आया।

“अरे दीदी, जीजाजी? आप सब कब आये? शहर से मेरे लिए उडने वाली हवाई जहाज लाए हो या मोटर कार! ही...ही...ही!! और छोटी दीदी, मैने आपको पिछली बार ही कहा था न कि अबकी आना तो मेरे लिए मोतीचूर वाले लड्डू लेकर आना! ह्म्म...जाओ मैं तुमसे बात नहीं करता! अपने भाई का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखते तुमलोग! तुमसब से कट्टी, कट्टी, कट्टी!!” – कहते हुए मनोहर धडाम से कमरे के फर्श पर बैठ गया।

मनोहर के इस बचकाने हरकत पर तीनों बहनों और उनकी पतियों ने एक-दूसरे की तरफ देखा और उनके चेहरे पर कुटिल मुस्कान उभर आयी।

बहनें झट से उठी और फर्श पर बैठकर आंसू बहा रहे तेईस वर्षीय मनोहर को उठाकर सोफे पर बिठाया। बडी बहन नंदा ने अपने साथ लाया एक डब्बा मनोहर की तरफ बढा दिया। छोटी बहन अमृता ने भी अपने पति की तरफ इशारा किया और उसके हाथ से एक डब्बा लेकर मनोहर के आगे कर दिया। मनोहर की तो बांछे खिल चुकी थी। डब्बे में मोतीचूर के लड्डू थे और अमृता अपने हाथो से अपने छोटे भईया को लड्डू खिलाने लगी।

बडी बहन नंदा ने भी हवाईजहाज में चाभी भरकर फर्श पर दौडा दिया और अपने पंख फैलाए जहाज सरपट फर्श पर दौडने लगा।

“हे.....मेरा हवाईजवाज आ गया! अब मैं इसपर बैठकर पूरी दुनिया की सैर करुंगा! हे....!!” –लड्डूओं से भरे मुंह से मनोहर बोलता गया और हवाईजहाज पूरे कमरे में दौडाता हुआ फिर कमरे से बाहर चला गया।

राजवीर सिंह और पत्नी सुनंदा की आंखे भाई के प्रति बहनों की मोह देखकर द्रवित हो चुकी थी।

“शायद तुमलोग ठीक कह रहे हो! मेरी हड्डियां भी अब बुढी हो चली है और इनमें इतना दम नहीं बचा कि हर तरफ फैली सम्पत्ति और ज़िम्मेदारियों का निर्वहण भलि-भांति कर सकूं! बहुत दिन से मेरे मन भी यही सवाल उमड रहे थे कि क्या होगा इन सबका? पर तुमलोगों ने खुद से मदद का हाथ आगे बढाकर हम बुढे मां-बाप और अपने लाचार भाई पर बहुत उपकार किया। मैं वकील साहब को बुलाकर जल्द ही अपनी वसीयत लिख सबकुछ तुमलोगों को सौंप देता हूँ। अब यह तुम बहनों और जमाई बाबू पर निर्भर करता है कि कितनी दक्षता से तुम ये सब आगे बढाते हो।” – राजवीर सिंह ने अपना फैसला बताते हुए कहा।

तीर बिल्कुल निशाने पर लगा था। एक-दूसरे की तरफ देख जमाईयों ने चेहरे पर दबी हुई मुस्कान बिखेरी। तीनों बहनें भी चहकती हुई अपने पिता के चरणों से लिपट गई और घड़ियाली आंसू बहाते हुए कहा- “पिताजी, कन्यादान करके आप अपनी ज़िम्मेदारी से तो उबर गये। पर हम बच्चे सदा आपके कर्जदार रहेंगे और जितना भी बन पड़ेगा हर हालत में अपने पति संग आप माता-पिता की सेवा करेंगे। हमें तो लज्जा आती है कि आप सोचेंगे ब्याही बेटियां पिता की धन-सम्पत्ति पर अपना हक़ जमाने आ गई!” बोलकर तीनों बहनें सुबकने लगी। पिता ने उसके सिर पर हाथ फेरा और आंसू उनके चेहरे पर लुढक आये। फिर अपनी पत्नी की तरफ इशारा कर बेटियों को सम्भालने के लिए कहा।

सुनंदा, जिसकी आंखे यह दृश्य देखकर द्रवित हो चुकी थी, ने आगे बढ़कर पितृभक्ति में विलाप करती बेटियों को चुप कराया। तभी नौकर का कमरे में प्रवेश हुआ और बोला – “मालकिन खाना लगा दिया है।”

“मनोहर बाबू ने खा लिया?” – बडी बहन नंदा ने आडम्बर से पुछा।

“जी बिटिया! छोटे बाबू को खिला दिया और वो अपने कमरे में हवाई जहाज उड़ा रहे है।” – बुढ़े नौकर ने बताया और नंदा के चेहरे पर मुस्कान उभर आयी।

“ठीक है, तुम चलो! हमसब आते हैं।” – मां सुनंदा ने कहा। फिर तीनों बहनें और दामाद खाने की मेज पर आकर दावत उड़ाने लगे। अपना साध्य सिद्ध होते देख आज सबों का हृदय प्रफुल्लित था।

कुछ दिनों बाद राजवीर सिंह ने वसीयत कर अपने सारे खेत-खलिहान और जायदाद तीनों बेटियों के नाम कर दिया। बेटे के नाम गांव का एक मकान लिख दिया ताकि कभी कोई धोखे से भी उसे हड़पने का प्रयास करे तो कोई ज्यादा लाभ न हो। साथ ही अपनी वसीयत में बेटी-दामाद के लिए यह शर्त भी डाल दिया कि ताउम्र अपने छोटे भाई मनोहर और उसके भावी परिवार की सुरक्षा और देखभाल करेंगे।...

क्रमशः...