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बेमेल - 4

…बंशी की बातें सुन श्यामा मुस्कुरायी और कहा – “काका, बचपन में माँ ने सिखाया था कि पालनहार ने जितना दिया है उसी को अपनी नियती मान ईमानदारी से आगे बढ़ने का प्रयास करती रहना। परिस्थिति चाहे कितनी भी बुरी आए, चाहे कितना भी दु:ख सहना पड़े, कभी किसी का अनिष्ट मत करना! माँ का साथ तो बचपन में ही छूट गया! पर उसकी सीखायी बातें मैंने अभेऐ तक गांठ बांध रखी है। फिर ननद-ननदोई भी कोई पराए थोड़े ही है, वे भी तो अपने ही है न! वे जैसा भी करते हैं वो उनका स्वभाव है और मैं जो करती हूँ या चुपचाप सह लेती हूँ वो मेरा स्वभाव है! खैर...हटाओ, मैं भी कहाँ अपनी ही बात लेकर बैठ गई!”
दरवाजे की चौखट पर खड़ा बंशी अभी श्यामा से बात कर ही रहा था कि भीतर कमरे से मनोहर के ठठाकर हंसने की आवाज आने लगी। दोनों भीतर कमरे में दाखिल हुए, जहाँ मनोहर अपनी बेटी के पास बैठकर खेल रहा था।
पर ये क्या?? कमरे में दाखिल होते ही श्यामा के होश उड़ गए।
हाथो में जिंदा सांप पकड़े मनोहर उससे खिलवाड़ कर रहा था और पास ही बिस्तर पर लेटी नौनिहाल अपने पांव इधर-उधर हवा में लहरा रही थी। अपनी परवाह किए बगैर श्यामा ने तेजी से लपककर मनोहर के हाथो से सांप को अलग किया फिर लाठी के सहारे बंशी ने उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाया।
आज तो ये मुसीबत टल गई। पर पता नहीं आगे अभी और क्या-क्या देखना बाकी था। भयभीत श्यामा अपनी बेटी को कलेजे से लगाकर फूट-फूटकर बिलखने लगी।
“मत रो बिटिया। हिम्मत रख! जाको राखे साईयां, मार सके न कोय! साक्षात भगवान नीलकंठ रक्षा करेंगे तुम सबके प्राणों की!”- श्यामा का हिम्मत बंधाते हुए बंशी ने कहा। उसे स्मरण हुआ कि हवेली में सभी बहनें-जमाई और यहाँ तक कि अधिकांश गाँववाले भी श्यामा की बेटी को मनहूस कहते हैं। इस बारे में उसने श्यामा से कुछ कहना चाहा, पर हिम्मत न हुई। ज़ुबां पर आए शब्दों को भीतर ही दबाए वह हवेली वापस लौट आया। पर उसे कहाँ पता था कि श्यामा ने उसके मन की बात पढ ली थी। बिस्तर पर लेटी श्यामा दूधमुंही को निहारती हुई सोच रही थी कि क्यूँ लोग बिना किसी वजह के बेगुनाह के मत्थे कोई भी इल्जाम मढ़ देते हैं। हे ईश्वर ये कहाँ का न्याय है!
कुछ दिन लगे श्यामा को अपने नए घर में रचने-बसने में। अभाव ने कभी भी उसका दामन न छोड़ा। वैसे भी बचपन से ही उसने अभाव को जीया था। विकट परिस्थितियों में गुजर-बसर करना, घर चलाना उसे बखुबी आता था। दिनभर हवेली में खटने के बाद पति और बिटिया के लिए खाने का इंतजाम हो जाता। उसमें एक कुशल गृहणी के सारे गुण विद्यमान थे। काम से थोड़े-बहुत जो पैसे मिलते, उससे हर महीने घर में कुछ नया सामान खरीद लाती और यथासंभव बचत भी कर लेती।
ऐसे ही दिन बीतने लगे। एक बेटी के बाद श्यामा ने दो और बच्चो को जन्म दिया। अब उसकी कुल तीन संताने थी, तीनों बेटियां – सुलोचना, अभिलाषा और कामना। जहाँ संघर्ष ने कभी भी उसका दामन न छोड़ा, वहीं श्यामा भी परिश्रम के साथ कदम से कदम मिलाकर बढ़ती रही। मन में सबूरी के बीज दबाए अपने पति और बच्चों का पेट पालती रही। कुछ वर्षों तक तो अपने ही ससुराल में ननद-ननदोईयों का जूठा मांज कर गुजारा चलाया।
तभी एक दिन।
“श्यामा....ओ श्यामा! कहाँ मर गई!! एकबार में तो इसके कानों पर जू भी नहीं रेंगते!!!” – आईने के सामने बैठकर अपने बाल संवारती बड़ी ननद नंदा ने गला फाडकर आवाज लगाते हुए कहा।
“जी दीदी, बुलाया मुझे?” – साड़ी के पल्लू में अपने गीले हाथ पोछते हुए श्यामा कमरे में प्रवेश करते हुए बोली.
“उफ्फ....दूर हट, दूर हट! क्या हालत बना रखा है अपना! तूझे देखकर लगता ही नहीं कि तू इस खानदान की बहू है!”- घृणित निगाहें श्यामा पर फेरते हुए नंदा ने कहा।
“अच्छा सुन..... हम बहनें कुछ दिनों के लिए शहर जा रही हैं! पति घर पे ही रहेंगे! तू उनके खाने-पीने का ख्याल रखना! अपने उस पगले पति में मत खो जाना! समझ में आया कुछ, मैं क्या कह रही हूँ?” – अपने गले में पहने नवलक्खा हार को देख खुद पर इतराती हुई नंदा बोली।
“जी दीदी, मैं समझ गई। आप बिल्कुल चिंता न करें। मैं उन्हे जरा भी तकलीफ नहीं होने दुंगी। आपसब आराम से जाइए!” –मन में दबे कष्ट, अभाव, सबूरी को मुस्कानरूपी उद्गार में बदलकर श्यामा ने कहा।
“हाँ...हाँ! चल ठीक है! जा अपना काम कर!” –वितृष्णा भाव से नंदा ने कहा फिर खुद में ही खो गई।
तीनों ननदों की अनुपस्थिति में श्यामा ने ननदोईयों की सेवा में कोई कोर-कसर न छोड़ा। उनके सुबह के चाय से लेकर रात के खाने तक का वह पूरा ध्यान रखती। अपने बच्चे भले ही भूख से बिलख रहे हों, लेकिन ननदोईयों की एक आवाज पर वह भागती चली जाती। हाँ, इन सबके बीच राहत देने वाली बात यह थी कि अब मनोहर में पहले से काफी सुधार आने लगा था। उसकी पागलपन भरी हरक़ते थोड़ी कम हो चुकी थी। खिलौने की जगह अब सारा दिन अपनी बेटियों के आसपास ही बिताता। बेटियां भी उससे काफी घुलमिल गई थी।
एक शाम।
ठठाकर हंसते हुए तीनों ननदोई हवेली में दाखिल हुए जब श्यामा रसोई में उन सबके लिए रात का खाना पका रही थी। मर्दों के ठहाके सुन उसने झांककर देखा तो आंगन में बैठे तीनों ननदोई मदिरापान में धूत थे।
“बहूरानी, जमाईबाबू ने पकौड़े मांगे हैं!” – रसोई में आकर बंशी ने कहा।
“जी काका! ये कुछ तिलौरे तले हैं। आप इन्हे देकर आओ! तबतक मैं झट से गरमागरम पकौड़े तैयार कर देती हूँ।” –कुछ तश्तरियों को एक ट्रे में सजाकर बंशी की तरफ बढ़ाते हुए श्यामा ने बोली।
“अरे ओ....श्यामा की बच्ची!! कहाँ मर गई! दिखाई नहीं देता....हमसब दिन भर काम से जुतकर आए हैं! अरे...कुछ लाज शरम है कि नहीं या फिर सब अपनी ननदों के संग शहर रवाना कर दिया!” – नशे में झुमते हुए मंझले जमाई ने आवाज लगाया।
“जमाई बाबू, बहूरानी ने ये तिलौरी भेजे है! जरा इसे चखकर देखें, तबतक पकौड़े भी आ रहे हैं!” – तश्तरियों को टेबल पर रखते हुए बंशी ने बताया।
“तिलौरी...!! ये किसने मांगा? स्साले बुड्ढे....तूझे सुनाई पड़ता क्या? मैने पकौड़े लाने को कहे हैं न! उठाकर ले जा इसे!!!” –आंखें दिखाते हुए बड़े जमाई ने कहा, जो नशे में धूत होने की वजह से ठीक से बैठ तक नहीं पा रहा था।
“एकबार चख कर तो देखिए बाबू! बडे अच्छे लगेंगे!” –चेहरे पर मुस्कान बिखेरकर बंशी ने कहा।
“जितना कहता हूँ, उतना सुन! हमपर हुक्म चलाने की कोशिश मत कर!!!”- मंझला जमाई चिल्लाया। तभी संझले जमाई ने प्लेट में रखे तिलौरी को उठाकर मुंह में डाला जो काफी स्वादिष्ट बने थे।
“ह्म्म...ठीक है, तुम जाओ यहाँ से और श्यामा को बोलो कि जल्दी पकौड़े तलकर लाएगी!” – संझले जमाई ने कहा फिर एक-एक करके सभी तिलौरी के टूकड़े उठाकर खाने लगा।
“कैसे हैं? अच्छे बने हैं क्या?” – बड़े जमाई ने संझले से पुछा जिसपर उसने हामी में सिर हिला दिया और देखते ही सबकी तश्तरियां खाली हो गई।
तभी हाथों में ट्रे लिए श्यामा आयी और सबके तश्तरियों में पकौड़े डालती हुई बोली- “भईया जी, ये रहे आपके पकौड़े!”
“अरे....श्यामा! तुम...कितना ख्याल र...रखती हो हम सबका! आओ तुम भी बैठो हम सबके बीच!” – नशे में झुमते हुए बड़े ननदोई ने श्यामा का हाथ अपनी तरफ खींचते हुए कहा। उसकी बातों पर मंझले ननदोई ने ठहाके लगाते हुए अपने बगल में उसके बैठने के लिए थोड़ी जगह बनायी। उनकी नजरों पर विराजमान कामदेव को श्यामा ने ताड़ लिया था जो उसके उभरे उरोज़ों पर टिके थे। असहज होती श्यामा साड़ी से अपने बदन को ढंकने का प्रयास कर रही थी।
वहीं दूसरी चारपाई पर बैठा संझला ननदोई शराब के घूंट लगाता सब चुपचाप देख रहा था।
“श्यामा, अभी तुम जाओ। कोई जरुरत पड़ेगी तो मैं बुला लुंगा!”- संझले ननदोई ने कहा। उसकी बातों से श्यामा को आत्मबल मिला और पलटकर तेज कदमों से वह रसोई की तरफ भाग खड़ी हुई।
काफी देर तक शराब का सेवन करते हुए तीनों आंगन में कहकहे लगाते रहे। फिर जब शराब की बोतल पकड़ने की-सी भी ताकत न बची तो लड़खड़ाते हुए अपने-अपने कमरे की तरफ बढ़ गये। रात भी काफी हो चुकी थी। बंशी के हाथों श्यामा ने घर पर बेटियों और पति के लिए खाना भिजवा दिया था। सारे काम से निपकटकर श्यामा भी अब वापस घर जाने लगी। तभी एक कमरे से आवाज आयी – “श्यामा, जरा इधर आना!” श्यामा ने इधर-उधर नज़र फेरा तो संझले जमाई के कमरे की बत्ती जल रही थी।
“बंशी काका! ओ बंशी काका!!”- श्यामा ने आवाज लगाया। पर शायद बंशी और सभी नौकर-चाकर सो चुके थे तभी तो वापसी में कोई आवाज नहीं आयी। झिझकते हुए फिर श्यामा के पैर संझले ननदोई के कमरे की तरफ बढ़ने लगे। दिमाग में कुछ घंटों पहले की बात याद आयी जब नशे में धूत बड़े और मंझले ननदोईयों ने उसके पल्लू खींचकर उसे अपने पास बैठने के लिए ज़िद्द किया था और संझले ननदोई ने उन दोनों से उसे बचाया था। नशे में तो वो भी थे, पर थोड़ी समझदारी और इंसानियत अभी भी उनके भीतर कहीं शेष लगी श्यामा को। खुद को समझाती श्यामा संझले जमाई के दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई।
“मंझले भईया, कहिए क्या काम है?” – दरवाजे के बाहर खड़ी श्यामा ने पुकारा। पर भीतर से कोई आवाज नहीं आयी। “संझले भईया, सो गए क्या?” – श्यामा ने दूबारा आवाज लगायी।
“भीतर आ जाओ। दरवाजा खुला है!” – कमरे के भीतर से संझले ननदोई की आवाज आयी।
थोड़ी झिझक के साथ श्यामा ने अपने पैर कमरे के भीतर रखे फिर शरमा कर अपनी नज़रें नीची कर ली। आंख मूंदे संझला ननदोई बिस्तर पर खुले बदन पर पड़ा था। कपड़े के नाम पर उसने मात्र एक सफेद धोती डाल रखी थी और उसकी चौड़ी छाती को घने बालों ने ढंक रखा था। अपना सिर नीचे किए श्यामा खड़ी रही।…

क्रमशः....

© Shwet Kumar Sinha