Bus ab aur nahi - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

बस अब और नहीं! - 2

भाग- 2

दो भाईयों की इकलौती बहन और घर में सबसे बड़ी। अपने पापा के तो दिल का टुकड़ा थी वो। भाइयों से भी ज्यादा उसे प्यार करते थे पापा।

हां मम्मी भी उसे खूब चाहती थी लेकिन पापा की तरह दिखाती नहीं थी।

बहुत ही शांत स्वभाव की थी मम्मी। शायद उसनेे ये शांत स्वभाव मां से ही पाया था लेकिन इसी शांत और सरल स्वभाव का ही तो परिवार वालों ने फायदा!!!!

उसने मन में आए नकारात्मक विचारों को जल्दी से एक और झटक दिया। वह इतने शुभ दिन वहीं बातें याद कर अपने मन को खराब नहीं करना चाहती थी।

वह फिर से अपने बचपन की गलियों में विचरने लगी।

उसकी मां को गांव से शहर आए इतने साल हो गए थे लेकिन उनका पहनावा व बोलने का लहजा अब भी वहीं गांव वाला था। बहुत ही सीधा सरल जीवन व स्वभाव था मां का।

हमेशा अपने काम से काम रखती। अपनी बातों को भी शब्दों में कम चेहरों के भावों से ज्यादा दिखाती।

उन्हें गुस्सा कभी आया हो शायद !

विद्या को तो याद नहीं। हर वक्त चेहरे पर एक मुस्कान सजी रहती थी उनके।

और ऐसी ही विद्या थी। अपने भाइयों से दो चार साल ही बड़ी थी लेकिन परिपक्वता किसी बड़े बुजुर्ग जैसी।

स्कूल में हो या बाहर हमेशा उन्हें अपने सानिध्य की छांव में रखती। अपने हिस्से की कोई भी चीज उन्हें हंसी खुशी दे देती। बच्चों जैसी चपलता ना थी उसमें!! ठहराव था बड़ों जैसा।

शायद ईश्वर उसे आने वाले समय के लिए तैयार कर रहा था।

पापा तो कितनी बार उसकी दानवीरता और सीधापन देख झल्ला जाते थे।

"अरे, इतना सीधा बनने की क्या जरूरत है। तेरे भाइयों को अलग से ला कर देता हूं ना। फिर क्यों उन्हें अपनी चीजें देती है। फायदा उठाते हैं तेरे सीधेपन का!!" पापा हमेशा उसे समझाते।

"पापा आप क्यों इतना परेशान हो रहे हो। भाई है वो मेरे !!

और वैसे भी मैं बड़ी हूं तो उनका ध्यान रखना तो पड़ेगा ना मुझे!! भाई बहनों में क्या फायदा क्या नुकसान!!"

"इस लड़की को समझाने का कोई फायदा नहीं बिल्कुल अपनी मां पर गई है!!

उसका तो चल गया लेकिन जरूरी तो नहीं, तुझे भी ऐसा घर परिवार मिले!!

बेटा थोड़ी दुनियादारी सीख। इतने सीधे सरल लोगों को दुनिया वाले जीने नहीं देते!!"

उस समय विद्या को अपने पापा की कुछ बातें समझ आती, कुछ नहीं। बस मुस्कुरा भर देती थी।

और अपनी लाडली की यह मुस्कुराहट देख उसके पापा प्यार से उसके सिर पर हाथ रख देते थे।

विद्या निहाल हो जाती अपने पापा का हाथ अपने सिर पर पाकर। लगता सारी दुनिया की खुशी इन हाथों के नीचे समाई है।

लेकिन ईश्वर को उसकी खुशियों शायद मंजूर ना थी।

दसवीं कक्षा में थी वो। जब पहली बार उसके पापा को दिल का दौरा पड़ा।

किसी को विश्वास नहीं हुआ। इतना जिंदादिल इंसान। जिसने कभी कोई उल्टा सीधा शौक ना किया था। अपने खान-पान से लेकर व्यायाम हर बात का तो ध्यान रखते थे पापा फिर भी!!

सही समय पर उपचार मिलने से पापा की जान तो बच गई लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें कोई भी भारी काम और तनाव लेने से मना कर दिया था।

तनाव तो अब जिंदगी में आ ही गया था। घर का मुखिया और वह भी ऐसी बीमारी !!! जो ना जाने कब फिर से पांव दबाकर आ जाए और क्या पता!! हर बार किस्मत साथ नहीं देती।

बच्चे तो अभी कंधे से ऊपर भी ना हुए थे। कोई जिम्मेदारी भी तो पूरी ना हुई थी।

जीवनसंगिनी इतनी सीधी!! अगर कुछ हो गया तो क्या होगा इन सबका!!

यह सोच पापा को अंदर ही अंदर घुन की तरह खाए जा रही थी।

हां पापा, सबके सामने खुश रहने और सबको खुश रखने की पूरी कोशिश करते।

उस दिन के बाद तो विद्या पापा की परछाई सी बन गई थी। घर पर उनके आने के बाद और काम पर जाने से पहले, वह पापा की हर जरूरत का ध्यान रखती और कोशिश करती कि पापा अकेले ना बैठे।

पापा भी तो कहां उससे अलग रहना चाहते थे। जरा सा वह इधर-उधर होती तो पापा की नजर उसे ही ढूंढती थी।

पहले से ही वह समझदार थी और पापा की बीमारी ने तो उसे पहले से और ज्यादा जिम्मेदार बना दिया था।

पापा की तरह हमेशा उसका दिल किसी अनहोनी की आशंका से आशंकित रहता । दिन में ना जाने कितनी बार उसका दिल भर आता और वह अकेले में आंसू बहा लेती।

ईश्वर ने ना जाने उसकी किस्मत में क्या आंसुओं का सागर लिख कर भेजा था। जो आज तक भी खत्म होने में  नहीं आ रहा था।

3 साल बहुत अच्छे से गुजर गए थे। पापा के साथ साथ सब सामान्य होने लगे थे।

सबको लगने लगा था कि वह एक बुरा स्वप्न था, जो टल गया।

लेकिन वह सपना नहीं था। वह तो किस्मत का लिखा था। जो आज नहीं तो कल सच होना ही था।

और पापा का दूसरा दिल का दौरा !!!

मां तो इस बार बदहवास सी हो गई थी। हमेशा निर्विकार सी रहने वाली मां की आंखों के आंसू नहीं थम रहे थे। मंदिर के सामने हरदम हाथ जोड़ मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करती रहती ।

मां की प्रार्थना कहें या पापा की ईश्वर से कुछ सांसे और उधार देने की गुहार ।

या हम बहन भाइयों की ईश्वर से विनती कि पापा का साया हमारे सिर पर बना रहे ।

जो कुछ कहो। हम सबकी प्रार्थना भगवान ने सुन ली और पापा को फिर से नई जिंदगी मिल गई।

हम सभी ईश्वर का धन्यवाद देते ना थक रहे थे। सभी खुश थे लेकिन इस बार पापा के चेहरे पर चिंता साफ-साफ झलक रही थी। शायद उन्हें लगने लगा था कि अब उनके पास वक्त ज्यादा नहीं।।

अब पापा हमेशा उसकी तरफ सूनी आंखों से देखते। जब भी उसके सिर पर हाथ रखते उनकी आंखों में आंसू आ जाते। वह भी तो पापा के आंसू देख अपने आंसुओं को कहां रोक पाती लेकिन उन्हें दुख ना हो इसलिए उन्हें अंदर ही अंदर पीकर मुस्कुरा देती।

घर में उसकी शादी की बात चलने लगी थी। पापा चाहते थे जाने से पहले अपने हाथों से उसका कन्यादान कर जाएं। दिली इच्छा थी उनकी और वह!!

उसने तो परिवार में किसी भी बात के लिए ना करना सीखा ही ना था।

और यह तो उसके पापा की दिली इच्छा थी तो भला उन्हें कैसे मना कर देती।

हर पिता की तरह उसके पापा ने भी उसके लिए कुछ अच्छा ही सोचा होगा।

विद्या जी ने करवट बदली तभी उनकी नजर सामने दीवार पर टंगी अपने पति मनोज जी की तस्वीर पर गई। विद्या जी की आंखों में आंसू आ गए।

सचमुच पापा की पारखी नजरें कहे या मम्मी पापा के पुण्य प्रताप या उसकी खुद की किस्मत जो उन्होंने मनोज जैसा जीवनसाथी उसके लिए चुना।

अपने बीमार पिता की इच्छा का सम्मान रखते हुए बीस वर्ष की उम्र में मनोज जी से शादी कर उसने ससुराल में कदम रखा।

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आह!! 26 बरस हो गए। कितनी जल्दी इतने साल पंख लगा कर उड़ गए। घर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारियों में पता ही ना चला।

मनोज जी, बहुत सरल स्वभाव के सीधे व्यक्ति थे। उनके घर में माता पिता और एक बड़े भाई भाभी व बहन थी।

भाई भाभी की माता-पिता से बनती ना थी इसलिए वह ऊपर की मंजिल पर अलग रहते।

विद्या जी के ससुर बीमार रहते थे इसलिए सारे घर की जिम्मेदारी मनोज पर ही थी। जिसे वह बहुत अच्छी तरह से निभा भी रहे थे और शादी के बाद विद्या जी भी इन जिम्मेदारियों में साझीदार बन गई थी।

उसके आते ही सास और ननद ने घर के कामकाज की जिम्मेदारी पूरी तरह उसके ऊपर डाल दी थी।

उसने भी सहर्ष ही इन जिम्मेदारियों को स्वीकार कर लिया और एक समय तक पूरी लगन से निभाया भी।

मनोज जी की स्पेयर पार्ट्स की दुकान थी। जिससे अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी।

मनोज जी जितना परिवारवालों का ध्यान रखते थे, उतना ही विद्या का। वह उसकी मां की तरह मितभाषी थे।

हां, मां की तरह उनका चेहरा नहीं, आंखे बोलती थी।

और विद्या के प्रति उनका प्रेम शब्दों में कम आंखों से ज्यादा बयां होता था।

विद्या के कहने से पहले ही उसकी हर बात समझ जाते थे वो।

वैसे तो विद्या ही कहां ज्यादा बोलती थी। वह तो शुरू से ही शर्मीले स्वभाव की थी। अपने माता-पिता से ही कितना कम अपने मन के भाव कह पाती थी। फिर यह तो ससुराल था।

मनोज जी से भी तो शादी से पहले बस एक बार ही मिली थी। जब वह उन्हें देखने आए थे।

तब भी दोनों कहां बोले थे लेकिन हां आंखों ही आंखों में दोनों ने ना जाने जीवन भर साथ निभाने के कितने वादे कर डाले थे।

और घर वालों को भी इस रिश्ते के प्रति मौन सहमति दी थी दोनों ने।

शादी के बाद पति के इस मौन प्रेम में भी विद्या को  असीम सुख की अनुभूति मिलती थी।

मनोज जी की आंखों में अनोखा आकर्षण था और उसी आकर्षण के मोह पाश में बंधी विद्या मनोज जी के प्रेम में हमेशा डूबी रहती।

इसी बीच सुरभि के पापा की तबीयत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी। सुरभि का एक पैर ससुराल में और एक मायके में!! क्योंकि पापा के दूसरे दिल के दौरे के बाद तो मां भी इस सदमे से उबर ना पाई थी और भाई अभी इतने समझदार ना थे । जो सब कुछ अकेले संभाल सके।

मनोज जी वाकई में ही बहुत अच्छे इंसान थे। एक तरह से उन्होंने पापा की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। जितना अपने माता-पिता के प्रति समर्पित थे। उतना ही शादी के बाद उसके पापा के लिए।

वही उन्हें डॉक्टर के पास चैक अप के लिए लेकर जाते थे और पापा के साथ साथ उसे भी हमेशा हौसला देते ।

विद्या के सास ससुर ने कभी भी उसे इतनी जल्दी जल्दी अपने मायके जाने से मना नहीं किया और ना ही मनोज जी को उसके पापा की सेवा पानी के लिए टोका।

सचमुच विद्या खुद को भाग्यवान समझने लगी थी। ऐसे सास ससुर शायद ही किसी को मिले!!

हां शायद ही!!! क्योंकि वह दोनों तो!!!!

सोचते हुए विद्या का मन उनके प्रति घृणा से भर गया। वह तो उनकी पूजा करती थी लेकिन!!!

1 वर्ष पूरा होते-होते सुरभि ने उसे मां बनने का सौभाग्य दिया। जितनी विद्या ख़ुश थी। उतना ही मनोज जी भी। उनकी खुशी में पूरा परिवार शामिल था।

उसके मम्मी पापा भी तो खुशी से झूम उठे थे। वह खुशी मम्मी के लिए शायद आखरी थी क्योंकि उस दिन के बाद  मम्मी कभी नहीं हंसी मुस्कुराई।

पापा तो शायद उसका भरा पूरा घर देखने के लिए ही रुके थे। जब पापा उसकी तरफ से पूरी तरह आश्वस्त हो गए तो उन्होंने भी संसार को अलविदा कह दिया।

सुरभि 6 महीने की थी उस समय।

पापा के जाने की खबर सुन विद्या तो अपनी सुध बुध खो बैठी थी। कितने ही दिन लग गए उसे इस सदमे से बाहर निकलने में!!

अगर मनोज जी ना होते तो शायद ही वह सामान्य हो पाती।

लेकिन मां!! मां तो उस दिन के बाद एक चलती फिरती लाश सी बन गई थी। जिनकी सांसे तो चल रही थी लेकिन संवेदनाएं शायद खत्म हो गई थी।

जी रही थी वह!! शायद पापा से वादा किया होगा उन्होंने कि उनकी छोड़ी हुई जिम्मेदारियां वह पूरी करेंगी।

वैसे भी ईश्वर ने हम स्त्रियों को एक अलग ही मिट्टी से बनाया है।

जो बड़ी से बड़ी विपदाओं को भी हंसकर कहो या रोकर झेल ही जाती है और अपनी जिम्मेदारियों को शायद ही अधूरा छोड़ इस दुनिया को अलविदा कहती हो।

तो मम्मी कैसे छोड़ सकती थी यह दुनिया। उन्हें तो पापा की छोड़ी हुई जिम्मेदारियां जो पूरी करनी थी।

क्रमशः

सरोज ✍️