Aankh ki Kirkiri - 34 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

आँख की किरकिरी - 34 - अंतिम भाग

(34)

आशा ने कहा - मन में कोई गाँठ मैं रखना तो नहीं चाहती हूँ मौसी, सब भूल जाना ही चाहती हूँ, मगर भूलते ही तो नहीं बनता।

 अन्नपूर्णा बोलीं - तू ठीक ही कहती है बिटिया, उपदेश देना आसान है, कर दिखाना ही मुश्किल है। फिर भी मैं तुझे एक उपाय बताती हूँ। जी-जान से इस भाव को कम-से-कम रखो, मानो भूल गया है। पहले बाहर से भुलाना शुरू कर, तभी भीतर से भी भूल सकेगी।

 आशा ने सिर झुकाए हुए कहा - बताओ, मुझे क्या करना होगा?

 अन्नपूर्णा बोलीं - बिहारी के लिए विनोदिनी चाय बना रही है तू। दूध, चीनी, प्याला - सब-कुछ ले कर जा। मिल कर काम करो!

 आशा आदेश-पालन के लिए उठी। अन्नपूर्णा ने कहा - यह आसान है - लेकिन मुझे एक बात और कहनी है, वह और भी सख्त है और उसका पालन तुझे करना ही पड़ेगा। जब-तब महेंद्र से विनोदिनी की मुलाकात होगी ही और तब तेरे मन में क्या होगा, मैं जानती हूँ। लेकिन वैसे मैं कभी कनखियों से भी महेंद्र या विनोदिनी के भाव को देखने की कोशिश तक न करना। कलेजा फटता रहे, लेकिन अडिग रहना पड़ेगा। महेंद्र यह समझेगा कि तुझे कोई शक नहीं रहा। टूटने के पहले जैसा था, जोड़ वैसा ही जुड़ गया है। महेंद्र या और कोई तेरी शक्ल देख कर अपने को दोषी नहीं समझेगा। चुन्नी, यह कोई मेरा उपदेश नहीं, आग्रह नहीं, यह तेरी मौसी का आदेश है। मैं जब काशी चली जाऊँ, तब तू एक दिन को भी यह बात न भूलना!

 चाय का प्याला लिए आशा विनोदिनी के पास पहुँची। पूछा - उबल गया पानी? मैं दूध ले आई हूँ।

 विनोदिनी अचरज से आशा का मुँह ताकने लगी। बोलीं - बिहारी भाई साहब बरामदे में बैठे हैं। तुम उनको चाय भेज दो। इतने में बुआ का मुँह धुलाने का इंतजाम करती हूँ। अब जग जाएँ शायद।

 विनोदिनी चाय ले कर बिहारी के पास नहीं गई। उसके प्रेम को कबूल करने के नाते बिहारी ने जो अधिकार उसे दिया था, उसके मनमाने इस्तेमाल में उसे संकोच हुआ। अधिकार पाने की जो मर्यादा है, उसे बचाना हो तो अधिकार के प्रयोग को संयत होना चाहिए। जितना मिलता है, उतने के लिए छीना-झपटी करना कँगले को ठीक लगता है।

 इतने में महेंद्र आ पहुँचा। आशा का दिल धक् कर उठा, तो भी अपने को जब्त करके उसने स्वाभाविक स्वर में महेंद्र से कहा - तुम इतनी जल्दी जग गए। रोशनी न आए इस वजह से मैंने खिड़कियाँ बंद कर दी थीं।

 विनोदिनी के सामने ही इस सहज भाव से आशा को बात करते देख कर महेंद्र के कलेजे पर मानो कोई पत्थर उतर गया। वह खुश हो कर बोला - देखने आ गया कि माँ कैसी है। वे सो रही हैं अभी तक?

 आशा ने कहा, हाँ, सो रही हैं। अभी वहाँ मत जाना! भाई साहब ने बताया - आज वे पहले से अच्छी हैं। बहुत दिनों के बाद कल रात-भर वे मजे में सोई हैं।

 महेंद्र निश्चिंत हुआ। पूछा - चाची कहाँ हैं?

 आशा ने चाची का कमरा दिखा दिया।

 आशा की यह दृढ़ता और संयम देख कर विनोदिनी को भी हैरत हुई।

 महेंद्र ने पुकारा - चाची!

 अन्नपूर्णा स्नान करके पूजा करने की सोच रही थी। फिर भी उन्होंने कहा - आ महेंद्र, आ!

 महेंद्र ने उन्हें प्रणाम किया। कहा - चाची, मैं पापी हूँ। तुम लोगों के सामने आते मुझे शर्म आती है।

 अन्नपूर्णा बोलीं - ऐसा नहीं कहते, बेटे! बच्चे तो गर्द में सन कर भी माँ की गोद में बैठते हैं।

 महेंद्र - मगर मेरी यह धूल कभी धुलने की नहीं, चाची!

 अन्नपूर्णा - दो-एक बार झाड़ देने से यह झड़ जाएगी। अच्छा ही हुआ, महेंद्र। तुझे अपने भले होने का अभिमान था। अपने पर तुझे बेहद विश्वास था। पाप की आंधी ने तेरे उस गर्व को तोड़ गिराया है, और कुछ नहीं बिगाड़ा।

 महेंद्र - अब तुम्हें मैं न जाने दूँगा, चाची। तुम्हारे चले जाने से ही मेरी यह दुर्गति हुई।

 अन्नपूर्णा - मैं रह कर तुझे जिस दुर्गति से बचाती, वह हो गई, अच्छा हुआ। अब तुमको मेरी कोई जरूरत न पड़ेगी।

 दरवाजे पर फिर पुकार मची - चाची पूजा करने बैठी हो, क्या?

 अन्नपूर्णा ने कहा - नहीं, तू आ!

 बिहारी अंदर आया। इतने तड़के महेंद्र को जगा देख कर वह बोला - जीवन में आज शायद पहली बार तुमने सूर्योदय देखा, भैया!

 महेंद्र ने कहा - हाँ भाई, मेरे जीवन में यह पहला सूर्योदय है। तुम्हें चाची से कोई राय करनी है शायद - मैं चलता हूँ।

 बिहारी ने हँस कर कहा - तुम्हें भी कैबिनेट का मिनिस्टर बना लिया गया समझो। तुमसे तो मैंने कभी कुछ छिपाया नहीं - ऐतराज न हो तो आज भी न छिपाऊँ।

 महेंद्र - मैं और ऐतराज! हाँ, दावा जरूर नहीं कर सकता। तुम अगर मुझसे कुछ न छिपाओ, तो मैं भी फिर से आप अपने ऊपर श्रद्धा करने का मौका पाऊँ।

 बहरहाल, बिहारी के लिए बे-हिचक सब-कुछ कहना मुश्किल था। बिहारी की जबान रुक-सी गई, मगर उसने जोर दे कर कहा - ऐसी बात आई थी कि मैं विनोदिनी से विवाह करूँगा - चाची से उसी के बारे में फैसला लेना था।

 महेंद्र सकुचा गया। अन्नपूर्णा चौंक कर बोलीं - यह कैसी बात है, बिहारी?

 महेंद्र ने बड़ा बल डाल कर अपने संकोच को हटाया। कहा - बिहारी, यह विवाह नहीं होगा।

 अन्नपूर्णा ने कहा - इस प्रस्ताव में क्या विनोदिनी का हाथ है?

 बिहारी ने कहा - बिलकुल नहीं।

 अन्नपूर्णा बोलीं- वह भला क्या राजी होगी इस पर?

 महेंद्र बोला - वह भला राजी क्यों न होगी, चाची! मैं जानता हूँ, वह हृदय से बिहारी की भक्ति करती है। ऐसे आश्रय को वह छोड़ सकती है भला!

 बिहारी ने कहा - विवाह का प्रस्ताव विनोदिनी से मैंने किया था, भैया। उसने शर्म से इनकार कर दिया है।

 सुन कर महेंद्र चुप रह गया।

 भले-बुरे राजलक्ष्मी के दो दिन निकल गए। एक दिन सुबह उनका चेहरा खिला-खिला दिख रहा था। पीड़ा का नामोनिशान नहीं था। उसी दिन उन्होंने महेंद्र को बुला कर कहा - मैं अब ज्यादा देर की मेहमान नहीं, बेटे, मगर मैं बड़े सुख से मर सकूँगी, महेंद्र, मुझे अब कोई दु:ख नहीं है। तू जब छोटा था, तो तुझे पा कर जो खुशी मुझे थी, आज उसी खुशी से मेरा हृदय भर उठा है - तू मेरी गोदी का लाड़ला है, मेरे कलेजे का रत्न - मैं तेरी सारी बला साथ लिए जा रही हूँ, यही मेरा सबसे बड़ा सुख है।

 इतना कह कर वह महेंद्र के मुखड़े और बदन पर हाथ फेरने लगीं। महेंद्र की रुलाई का बाँध टूट गया।

 राजलक्ष्मी ने कहा - रो मत बेटे! लक्ष्मी घर में रही। कुंजी मेरी बहू को देना। मैंने सब-कुछ सँजो कर रखा है, गिरस्ती में किसी बात की कमी न पड़ेगी तुम्हें। एक बात और कह लूँ, मेरी मौत से पहले किसी को मत बताना। मेरे बक्स में दो हजार के नोट पड़े हैं। वे रुपए विनोदिनी को दे रही हूँ। वह विधवा है, अकेली है, इन रुपयों के सूद से उसके दिन मजे में कट जाएँगे। मगर उसे अपने यहाँ मत रखना।

 राजलक्ष्मी ने बिहारी को बुलवाया। कहा - बेटे बिहारी, कल महेंद्र बता रहा था, तूने लाचारजनों की चिकित्सा के लिए एक बगीचा लिया है - भगवान तुम्हें लंबी आयु दे कर गरीबों का भला करे। मेरे ब्याह के समय मेरे ससुर ने मुझे एक गाँव दिया था; वह गाँव मैं तुझे देती हूँ, उसे गरीबों की सेवा में लगाना। इससे मेरे ससुर का पुण्य होगा।

 राजलक्ष्मी की मृत्यु के बाद श्राद्धादि खत्म करके महेंद्र ने कहा - भई बिहारी, मैं डॉक्टरी जानता हूँ। तुमने जो काम शुरू किया है, मुझे भी उसमें शामिल कर लो! चुन्नी अब ऐसी गृहिणी बन गई है कि वह भी तुम्हारी मदद कर सकेगी। हम सब लोग वहीं रहेंगे।

 बिहारी ने कहा - खूब अच्छी तरह सोच देखो, भैया - यह काम हमेशा के लिए कर सकोगे। वैराग्य के इस क्षणिक आवेश में ऐसा स्थायी भाव मत ले बैठो!

 महेंद्र बोला - तुम भी जरा सोच कर देखो, जीवन को मैंने इस तरह बखेड़ा किया है कि अब बैठे-बैठे उसके उपभोग की गुंजाइश न रही। इसे अगर सक्रियता में न खींचता चलूँ तो जाने किस रोज यह मुझे अवसाद में खींच ले जाएगा। अपने काम में मुझे शामिल करना ही पड़ेगा।

 यही बात तय रही।

 अन्नपूर्णा और बिहारी दोनों बैठ कर शांत उदासी लिए पिछले दिनों की चर्चा कर रहे थे। दोनों के एक-दूसरे से अलग होने का समय करीब था। विनोदिनी ने दरवाजे के पास आ कर पूछा - चाची, मैं यहाँ बैठ सकती हूँ।

 अन्नपूर्णा बोलीं - आ जाओ बिटिया, आओ!

 विनोदिनी आई। उसने दो-चार बातें करके बिछौना उठाने का बहाना करके अन्नपूर्णा चली गई।

 विनोदिनी ने बिहारी से कहा - अब मेरे लिए तुम्हारा जो आदेश हो, कहो!

 बिहारी ने कहा - भाभी, तुम्हीं बताओ, तुम क्या चाहती हो?

 विनोदिनी बोली - मैंने सुना है, गरीबों के इलाज के लिए तुमने कोई बगीचा लिया है। मैं वहीं तुम्हारा कोई काम करूँगी और कुछ न बने तो खाना पकाऊँगी।

 बिहारी बोला - मैंने बहुत सोच देखा है, भाभी! इन-उन हंगामों से अपने जीवन के जाल में बेहद गाँठें पड़ गई हैं। अब एकांत में बैठ कर एक-एक करके उन्हीं गाँठों को खोलने का समय आ गया है। पहले सबकी सफाई कर लेनी होगी।

 अब जी जो चाहता है, सबको मान लेने की हिम्मत नहीं पड़ती। अब तक तो गुजरा, जितना कुछ झेला, उन सबके आवर्तन और आंदोलन को शांत न कर लूँ तो जीवन की समाप्ति के लिए तैयार न हो सकूँगी। अगर सारे बीते दिन अनुकूल हों, तो संसार में केवल तुमसे ही मेरा जीवन पूर्ण हो सकता था। अब तुमसे मुझे वंचित होना ही पड़ेगा। सुख की कोशिश अब बेकार है ... अब तो धीरे-धीरे टूट-फूट कर मरम्मत कर लेनी है।

 इतने में अन्नपूर्णा आईं। उनके आते ही विनोदिनी ने कहा, माँ, तुम्हें अपने चरणों में मुझे शरण देनी पड़ेगी। पापिन के नाते तुम मुझे मत ठुकराओ।

 अन्नपूर्णा बोली, चलो मेरे ही साथ चलो।

 अन्नपूर्णा और विनोदिनी जिस दिन काशी जाने लगीं, मौका ढूँढ़ कर बिहारी ने अकेले में विनोदिनी से भेंट की। कहा, भाभी, तुम्हारी कोई यादगार मैं अपने पास रखना चाहता हूँ।

 विनोदिनी बोली, अपने पास ऐसा क्या है, जिसे निशानी की तरह पास रखो।

 बिहारी ने शर्म और संकोच के साथ कहा, अंग्रेजों में ऐसी रिवाज है, अपनी प्रिय पात्रा की कोई लट याद के लिए रख लेते हैं - तुम अगर...

 विनोदिनी - छि: कैसी घिनौनी बात! मेरे बालों का तुम क्या करोगे? वह मुई नापाक चीज कुछ ऐसी नहीं कि तुम्हें दूँ। अभागिन मैं, तुम्हारे पास रह नहीं सकती - मैं ऐसा कुछ देना चाहती हूँ, जो मेरा हो कर तुम्हारे काम में आए।

 बिहारी ने कहा, लूँगा।

 इस पर विनोदिनी ने आँचल की गाँठ से खोल कर हजार-हजार के दो नोट बिहारी को दिए।

 बिहारी गहरे आवेश के साथ विनोदिनी के चेहरे की ओर एकटक देखता रहा। जरा देर बाद बोला - और मैं क्या तुम्हें कुछ न दे पाऊँगा?

 विनोदिनी ने कहा - तुम्हारी निशानी मेरे पास है, वह मेरे अंग का भूषण है, उसे कभी कोई छीन नहीं सकता। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।

 यह कह कर उसने अपने हाथ की चोट का वह दाग दिखाया।

 बिहारी हैरान रह गया। विनोदिनी बोली, तुम नहीं जानते, यह आघात तुम्हारा है और यह आघात तुम्हारे ही योग्य है। इसे तुम भी वापस नहीं ले सकते।

 मौसी के इतना समझाने-बुझाने के बावजूद विनोदिनी के लिए आशा अपने मन को निष्कंटक न कर सकी थी। राजलक्ष्मी के सेवा-जतन में दोनों साथ जुटी रहीं, पर जब से उसकी नजर विनोदिनी पर पड़ी, तभी उसके दिल को चोट लगी - जबान से आवाज न निकली और हँसने की कोशिश ने उसे दुखाया। विनोदिनी की कोई मामूली सेवा लेने में भी उसका मन नाराज रहता। शिष्टता के नाते विनोदिनी का लगाया पान उसे लेना पड़ा, लेकिन बाद में तुरंत थूक दिया है। लेकिन आज जब जुदाई की घड़ी आई, मौसी दोबारा घर-बार छोड़ कर जाने लगीं और आशा का हृदय आँसुओं से गीला हो उठा, तो विनोदिनी के लिए भी उसका मन भर आया। जो सब-कुछ छोड़-छाड़ कर एकबारगी जा रहा हो, उसे माफ न कर सके, ऐसे लोग दुनिया में कम ही हैं। उसे मालूम था, विनोदिनी महेंद्र को प्यार करती है, क्यों न करे महेंद्र को प्यार! महेंद्र को प्यार करना कितना जरूरी है इसे वह खुद अपने ही मन से जान रही थी। अपने प्यार की उस वेदना से ही आज उसे विनोदिनी पर बड़ी दया हो आई। वह महेंद्र्र को छोड़कर सदा के लिए जा रही है, उसका जो दुस्सह द:ख है, आशा अपने बहुत बड़े दुश्मन के लिए भी उसकी कामना नहीं कर सकती। यह सोचकर उसकी आँखें भर आईं-कभी उसने विनोदिनी को प्यार भी किया था। वह प्यार उसके जी को छू गया। वह धीरे-धीरे विनोदिनी के समीप जा कर बड़ी ही करुणा के साथ, स्नेह के साथ, विषाद के साथ बोली, दीदी, जा रही हो?

 आशा की ठोड़ी पकड़ कर विनोदिनी ने कहा, हाँ बहन, जाने का समय आ गया। कभी तुमने मुझे प्यार किया था, अब अपने सुख के दिनों में उस प्यार का थोड़ा-सा अंश मेरे लिए रखना बहन, बाकी सब भूल जाना।

 महेंद्र ने आ कर नमस्ते करके कहा, माफ करना, भाभी!

 उसकी आँखों के कोनों से आँसू की दो बूँदें ढुलक पड़ीं। विनोदिनी ने कहा, तुम भी मुझे माफ करना, भाई साहब, भगवान तुम लोगों को सदा सुखी रखें!

समाप्त