Palayan - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

पलायन - 2

नोटबंदी व जीएसटी लागू करने के साथ ही सरकार ने बड़े शहरों में चलने वाले ऑटो वगैरह की अधिकतम उम्र निर्धारित कर दी जिसके तहत उम्र पूरी कर चुके अच्छी स्थिति वाले ऑटो को भी कबाड़ में देकर ऑटो चालकों को कर्ज लेकर नया ऑटो खरीदना पड़ा। इसका खामियाजा न सिर्फ ऑटोवालों को बल्कि मेरे पिताजी जैसे छोटे दुकानदारों को भी भुगतना पड़ा। ऑटोचालक जहाँ ऑटो की कीमत के रूप में बैंक की किश्त भरने के दबाव में थे वहीं ऑटो पार्ट्स वाले दुकानदार अचानक आई मंदी के शिकार होकर तनाव की स्थिति में आ गए थे।
नई गाड़ियों की वजह से सारी दुकानदारी ठप्प पड़ गई थी और धीरे धीरे उन्हें यह एहसास होने लगा था कि उनकी दुकान में पड़ा अधिकांश स्टॉक जो अब बंद हो चुकी गाड़ियों के थे, कबाड़ हो जानेवाले थे। ऑटो पार्ट्स वालों को पहले भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता रहा है लेकिन स्थिति इतनी खराब कभी नहीं हुई थी। इस बार प्रशासनीक सख्ती की वजह से कुछ ही दिनों में सभी ऑटोवालों ने नए नए ऑटो खरीद लिए थे। सड़कों पर चमचमाती ऑटो चला रहे ऑटो चालकों के मुख पर बैंकों की किश्तें भरने का अतिरिक्त भार वहन करने का दुःख सहज ही महसूस किया जा सकता था। समय से किश्तें न चुका पाने की वजह से बैंक वालों के दुर्व्यवहार से पिताजी भी दुःखी रहने लगे थे। इस व्यवसाय से जुड़ी कई फर्म बंद हो गईं।
यही वह समय था जब मुझे पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री मिल गई थी और पिताजी का सहारा बनने के लिए मैंने नौकरी के लिए हाथ पाँव मारना शुरू कर दिया था। सरकारी नौकरी ही पाना मेरा उद्देश्य बिल्कुल नहीं था, लेकिन कम से कम अपनी शिक्षा के अनुरूप सम्मानजनक नौकरी पाने का मेरा प्रयास अवश्य था पर हाय रे मेरी किस्मत ! पुरजोर प्रयास के बाद भी मुझे कोई नौकरी नहीं मिली। इतना ही नहीं, जो पहले से निजी क्षेत्रों में कार्यरत थे उनकी नौकरियाँ भी अब खतरे में आ गई थी निजी कंपनियों की छँटनी नीति के चलते। बेरोजगारी के इस भयानक दौर से हम गुजर ही रहे थे कि देश में पकौड़े तलने के रोजगार का अनावश्यक विवाद हम बेरोजगारों के लिए जले पर नमक छिड़कने जैसा ही था।
देश की अर्थव्यस्था डाँवाडोल थी, महँगाई चढ़ान पर थी, औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े कम से कम होते जा रहे थे कि ऐसे में कोरोना जैसी जानलेवा महामारी ने पूरे विश्व के साथ हमारे देश में भी पैर पसारने शुरू कर दिए।
एहतियातन लॉकडाउन पूरे देश में लगा दिया गया बिना किसी कारगर योजना के जिसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ा। देश के सभी महानगरों से प्रवासी मजदूरों को पैदल ही अपने गाँव तक का हजारों किलोमीटर का सफर तय करने को मजबूर होना पड़ा जिसमें कइयों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा। यह कुदरत की मार थी जिसे दैवीय प्रकोप समझकर सबने सरकार की विफलता को भी सहन कर लिया। इसकी मार से क्या अमीर क्या गरीब कोई नहीं बच सका यह तो आप सब जानते हैं लेकिन इससे उबरने के बाद सरकार की संवेदनहीनता ने हमें कुछ सोचने पर मजबूर किया और धीरे धीरे हमारा इस सरकार से मोहभंग होता गया। देश के मुखिया के एक मंत्र ' आपदा में अवसर ' को देश के कई नेताओं व डॉक्टरों ने बड़ी संजीदगी से आत्मसात किया और उसी के अनुरूप आपदा के इस बुरे दौर में भी पी पी इ किट का एक बड़ा घोटाला प्रकाश में आया। हजार से दो हजार की कीमत वाले जीवन रक्षक ऑक्सीजन के सिलिंडर बेचनेवालों ने पच्चीस से तीस हजार रुपए प्रति सिलेंडर के वसूल कर आपदा में अवसर के मूलमंत्र को आत्मसात कर लेने का सबूत दिया।
कोरोना की पहली लहर से सबक न लेते हुए सरकार ने इस बीमारी से लड़ने का कोई कारगर उपाय नहीं किया जिसका नतीजा यह निकला कि गंगा का पानी लाशों से पट गया। गंगा किनारे रेत में गड़े इंसानी जिस्मों को कुत्तों द्वारा नोचने का शर्मनाक दृश्य पूरी दुनिया ने देखा। सभ्यता, संस्कृति व धर्म की दुहाई देनेवाली यह सरकार जीते जी अपने नागरिकों को इलाज की सुविधा तो नहीं ही उपलब्ध करा पाई, मरने के बाद कइयों को चिता की अग्नि भी नसीब ना हुई। सब कुछ ठीक होने जा ही रहा था कि कोरोना का नया दौर फिर शुरू हो गया।
रोजगार की माँग करते युवाओं पर सरकारी जुल्म देखकर मन बहुत दुःखी था। उन्हें उनके हॉस्टल से निकालकर पीटा गया। क्या कसूर था उनका ?
और एक दिन अचानक मुझपर ईश्वर का कहर टूट पड़ा। मेरे पिताजी इस भयानक संक्रमण का शिकार हो गए। उनके इलाज के लिए मैंने पिताजी को बताए बिना दुकान भी पड़ोस के दुकानदार को औने पौने दाम में बेच दी। मजबूरी थी, क्योंकि और कोई खरीदता भी तो नहीं उस हालत में जबकि पिताजी अस्पताल में थे। पूरा प्रयास करने के बाद भी आखिर पिताजी हमें रोता बिलखता छोड़ गए। मैं अनाथ हो गया था। पिताजी मेरा कितना बड़ा सहारा थे इसका अनुभव मुझे उनके जाने के बाद ही हुआ। घर में अब माँ अकेली रह गई हैं क्यूँकि पिताजी की देखभाल और इलाज के चलते मैं भी कोरोना संक्रमित हो गया हूँ। नहीं चाहता कि यह भयानक बीमारी मेरी माँ या अन्य किसी को अपनी चपेट में ले। माँ मुझे अपनी जान से भी अधिक प्यारी है और अपने जीते जी उन्हें कोई तकलीफ हो यह मुझे गवारा नहीं। कहीं कोई सहारा नहीं बचा है और न ही अब मेरे अंदर परिस्थितियों से लड़ने की कोई क्षमता बची है। बहुत कुछ सोच समझकर मैंने यह फैसला कर लिया है कि अब मुझे जीने का कोई हक नहीं। मैं गंगा में जल समाधि लेने जा रहा हूँ, आखिर मरने के बाद मुझे भी तो यहीं फेंक दिया जाएगा अन्य लावारिस लाशों की तरह ! यह मेरा अपराध बोध है जिसने मुझे जीने नहीं दिया। मुझे लगता है देश के करोड़ों लोगों की तरह मैं भी इस देश की दुर्दशा और साथ ही अपनी बरबादी के लिए खुद जिम्मेदार हूँ। मैं अपनी तरह के उन तमाम युवा साथियों से कहना चाहता हूँ कि कभी भी किसी भी नेता पर विश्वास न करो, अपनी अक्ल का इस्तेमाल करो। जाति धर्म व अगड़े पिछड़े की बात करनेवाली कोई भी सरकार तुम्हें रोजी रोटी और रोजगार नहीं देगी, जिसकी हमें सबसे अधिक जरूरत है। जाति धर्म के नाम पर सिर्फ तुम्हें बहकाया जाएगा और अपना उल्लू सीधा किया जाएगा। सोच समझकर अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करो, उम्मीदवार की जाति धर्म के बदले जनता के लिए उसकी भावनाओं को देखो, उसके चरित्र को देखो, यही तुम सबके लिए और देश की बेहतरी के लिए अति आवश्यक है। कहने के लिए बहुत कुछ है लेकिन बस... बहुत लंबा भाषण हो गया ..अब अलविदा !"
क्रमशः