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सौगन्ध--भाग(१)

रात्रि का दूसरा पहर,आकाश में तारों का समूह अपने धवल प्रकाश से धरती को प्रकाशित कर रहा है,चन्द्रमा की अठखेलियाँ अपनी चाँदनी से निरन्तर संचालित है,चन्द्रमा बादलों में कभी छुपता है तो कभी निकलता है एवं कभी किसी वृक्ष की ओट में छिप जाता है,वहीं एक वृक्ष के तले वसुन्धरा अपने प्रेमी देवनारायण की गोद में अपना सिर रखकर उससे वार्तालाप कर रही है,वो उससे कहती है....
देव!मैं सदैव सोचा करती थी कि मैं कभी किसी से प्रेम नहीं करूँगीं,मेरे पिताश्री जिससे भी मेरा विवाह करना चाहेगें तो मैं उसी से विवाह कर लूँगी,किन्तु अब मुझे भय लगता है कि मेरे पिताश्री मेरा विवाह किसी और से ना कर दें,मैं यदि तुमसे विलग हुई तो कैसे रह पाऊँगी तुम्हारे बिना?
मैं तुम्हें कभी स्वयं से विलग ही नहीं होने दूँगा?मैं तुम्हारे पिताश्री से शीघ्र ही हम दोनों के सम्बन्ध की बात करूँगा,देवनारायण बोला।।
किन्तु तुम एक मूर्तिकार हो एवं मैं इस राज्य की राजकुमारी,पिताश्री हम दोनों का सम्बन्ध किस प्रकार स्वीकार करेगें,मुझे समझ नहीं आता,वसुन्धरा बोली।।
मैं उनसे कहूँगा कि मैं आपकी पुत्री से अत्यधिक प्रेम करता हूँ,उसे सदैव प्रसन्न रखने का प्रयास करूँगा तो वें कदाचित हाँ कर दें,देवनारायण बोला।।
देव!तुम मेरे पिताश्री के स्वाभाव से परिचित नहीं हो,वें अत्यधिक क्रोधित प्रवृत्ति वाले हैं एवं क्रोध में वें किसी के भी संग कुछ भी कर सकते हैं,वसुन्धरा बोली।।
वें यदि तुमसे प्रेम करते होगें तो तुम्हारी प्रसन्नता हेतु इस सम्बन्ध को स्वीकार कर लेगें,देवनारायण बोला।।
मुझे तो अत्यधिक भय लग रहा है,ना जाने हमारे प्रेम का परिणाम क्या होने वाला है?वसुन्धरा बोली।।
मुझ पर विश्वास रखों प्रिऐ!मैं सदैव तुम्हारे संग हूँ,देवनारायण बोला।।
और फिर इतना सुनकर वसुन्धरा देवनारायण के हृदय से लग गई,दोनों के मध्य कोई भी अन्तर ना रह गया था,दोनों एकदूसरे के अंकपाश में समा गए,प्रातः होने को थी,जिस वृक्ष के तले दोनों रात्रि भर थे उस वृक्ष पर अब खगों का स्वर गूँज रहा था,खगों के स्वर से वसुन्धरा की आँख खुल गई और वो देवनारायण से बोली....
प्रिऐ! अब मुझे जाना होगा,प्रातः होने वाली है।।
कुछ समय और रूकों ना!अभी मेरा जी नहीं भरा,देवनारायण बोला।।
नहीं!रुक सकती देव!पिताश्री को कुछ ज्ञात हो गया तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगी?वसुन्धरा बोली।।
यही कि तुम मुझसे प्रेम करती हो,देवनारायण बोला।।
ये परिहास का समय नहीं है,मैं जाती हूँ और इतना कहकर वसुन्धरा वहाँ से उठ कर खड़ी हो गई,उसे जाते देख देव बोला....
एक बार हृदय से लग जाती तो अच्छा होता,तुम्हारे आने की प्रतीक्षा का समय सरलता से कट जाता,देव का असीम प्रेम देखकर वसुन्धरा भावुक हो गई एवं उसके हृदय से लग गई,हृदय से लगें हुए बोली....
अब जाऊँ कि अभी भी कुछ शेष बचा है,
मेरी तो यही इच्छा है कि तुम कभी भी ना जाओ,परन्तु तुम्हारा जाना भी आवश्यक है,देवनारायण बोला।।
ठीक है तो अब मैं चलती हूँ और यही कहकर वसुन्धरा चली गई एवं देव उसे उदास सा खड़ा देखता रहा....
वसुन्धरा छुपते-छुपाते राजमहल पहुँची तो वहाँ का दृश्य देखकर उसकी आँखें खुली की खुलीं रह गई,क्योंकि उसके कक्ष के समक्ष उसके पिताश्री महाराज वीरबहूटी सिंह खड़े थे,उन्होंने जैसे ही वसुन्धरा को देखा तो पूछा....
कहाँ से आ रही हो?
जी!मैं तो वाटिका की ओर गई थी,प्रातःकाल की स्वच्छ वायु शरीर के लिए लाभप्रद होती है इसलिए,वसुन्धरा बोली।।
सत्य कह रही हो ना!वीरबहूटी ने पूछा।।
जी!हाँ!मुझे आपसे झूठ बोलने की क्या आवश्यकता है भला?वसुन्धरा बोली।।
किन्तु!दासी तो कहती थी कि तुम रात्रि अपने कक्ष में नहीं थी,वीरबहूटी बोले।।
जी!उसने ध्यानपूर्वक नहीं देखा होगा,वसुन्धरा बोली।।
ठीक है!अपने कक्ष में जाओ एवं स्नानादि के उपरान्त मुझे मेरे कक्ष में मिलो,तुमसे आवश्यक बात कहनी है,वीरबहूटी बोले।।
जी!पिताश्री!वसुन्धरा इतना कहकर अपने कक्ष में चली आई एवं वहाँ आकर उसकी श्वास में श्वास आई,उसने मन में सोचा....
आज तो बस पिताश्री को ज्ञात होने ही वाला था मेरे प्रेमप्रसंग के विषय में.....
वो अपने रेशमी बिछौने पर विश्राम करने लगी और देवनारायण को याद करके मुस्कुराने लगी , देवनारायण की बातों को याद करके उसने लज्जा से अपनी आँखें मींच लीं....
कुछ समय पश्चात वो स्नानादि करके अपने पिताश्री के कक्ष में पहुँची,महाराज वीरबहूटी ने उसे आसन ग्रहण करने को कहा,वो चुपचाप उस आसन पर बैठ गई,तब महाराज बोलें....
आज चन्दनगढ़ के राजकुमार नीलेन्द्र आने वाले हैं और उनके स्वागत की तैयारियाँ तुम्हें करनी होगी...
जी!अवश्य !मैं तत्पर हूँ,वसुन्धरा बोली।।
तुम्हें ज्ञात है कि वो क्यों आने वाले हैं?महाराज ने पूछा।।
जी!मुझे ज्ञात नहीं,वसुन्धरा बोली।।
मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा सम्बन्ध उनके साथ हो जाएं,वीरबहूटी जी बोलें....
जी!?इसमें इतनी शीघ्रता क्यों?वसुन्धरा ने पूछा।।
पुत्री वसुन्धरा!हर पिता चाहता है कि उसकी पुत्री को अच्छा वर मिले,जो देखने में सुन्दर हो एवं जिसके पास धन की कमी ना हो तो,नीलेन्द्र में मुझे ये सब गुण दिखें,वो तुम्हारे लिए पूर्णतः योग्य वर है,इसलिए मुझे लगा कि तुम्हारा सम्बन्ध उसके साथ होना चाहिए,वीरबहूटी जी बोलें.....
परन्तु पिताश्री!मैं उनसे विवाह नहीं कर सकती?वसुन्धरा बोली।।
परन्तु क्यों पुत्री?महाराज ने पूछा।।
जी!मैं किसी और से प्रेम करती हूँ,वसुन्धरा बोली।।
क्या वो किसी राज्य का राजकुमार है?महाराज ने पूछा।।
जी!नहीं!वो हमारे राज्य का मूर्तिकार देवनारायण है,वसुन्धरा बोली।।
वो साधारण सा मूर्तिकार! तुम उससे प्रेम करती हो,महाराज ने कहा,
जी!पिताश्री!मैं ने उसे वचन दिया है कि मैं उससे से ही विवाह करूँगी,वसुन्धरा बोली।।
किन्तु!मैं कभी भी नहीं चाहूँगा कि तुम उससे विवाह करो,महाराज बोले।।
किन्तु !मैं उससे ही प्रेम करती हूँ और किसी के लिए मेरे हृदय में कोई स्थान नहीं है,वसुन्धरा बोली।।
ये प्रेम-व्रेम केवल चार दिनों का आकर्षण है,धन के बिना जीवन जीना सम्भव नहीं,वो मूर्तिकार भला तुम्हें किस प्रकार प्रसन्न रख सकता है,तुम्हें राजसी भोग विलास का अभ्यास है पुत्री!तुम एक गरीब मूर्तिकार के साथ कैसे रहोगी?महाराज वीरबहूटी ने पूछा।।
पिताश्री!धन-सम्पत्ति और वैभव ही संसार में सबकुछ नहीं है,एक निर्मल हृदय के व्यक्ति के संग जीवन बिताना ही सौभाग्य की बात होती है,वसुन्धरा बोली।।
किन्तु!जब भूख लगेगी तो क्या खाओगी?धन के बिना जीवन इतना सरल नहीं है जितना कि तुम समझती हो,महाराज बोलें।।
उस के संग किसी भी स्थिति में रह लूँगी,परन्तु आप कितने भी धनी व्यक्ति के संग मेरा विवाह कर दें तो मैं कदापि प्रसन्न नहीं रह पाऊँगीं,वसुन्धरा बोली।।
यदि तुम्हें ऐसा लगता है तो मैं आज रात्रि ही देवनारायण के निवासस्थान जाकर उस सम्बन्ध में बात करता हूँ,तुम मेरी पुत्री हो और मैं तुम्हें कभी भी दुखी नहीं देख सकता,यदि राजकुमार नीलेन्द्र आते हैं तो तुम उनसे व्यावाहरिक बातें तो कर ही सकती हो,तब तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होगी,मैं उनसे विवाह के विषय में कुछ नहीं कहूँगा,अब तो प्रसन्न हो ना!महाराज बोलें।।
जी!पिताश्री!मुझे आपसे यही आशा थी,वसुन्धरा बोली।।
तो ठीक है रात्रि में जाऊँगा मैं देवनारायण के पास,तब तक तुम निश्चिन्त रहों,महाराज बोलें।।
जी!मैं आपके इस निर्णय से अत्यधिक प्रसन्न हूँ,आप जैसे पिता को पाकर मैं धन्य हो गई,वसुन्धरा बोली।।
ऐसे ही दिन ब्यतीत हो गया,राजकुमार नीलेन्द्र के आने पर वसुन्धरा ने उनसे व्यवाहारिकता दिखाई एवं बिना किसी संदेह के उनका स्वागत किया,उनका पूर्णतः ध्यान रखा,रात्रि हुई तो महाराज वीरबहूटी अपने कुछ सैनिकों के संग अपने स्वर्ण रथ पर बैठकर देवनारायण के निवासस्थान पहुँचें,अपने द्वार पर महाराज को देखकर देवनारायण प्रसन्न हुआ और मन में ये सोचा कि वसुन्धरा ने उन्हें यहाँ कदाचित सम्बन्ध की बात करने भेजा है,वो शीघ्र ही महाराज के समक्ष गया एवं उनका स्वागत करते हुए बोला....
महाराज!आप यहाँ पधारें,आपको यहाँ देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई..
परन्तु! तुम्हारी करनी से मैं प्रसन्न नहीं हूंँ,महाराज बोलें।।
मैं आपका आशय नहीं समझा,देवनारायण बोला।।
अब तुम इतने भी बुद्धिहीन नहीं हो जो मेरी बात समझ ना सकों,बुद्धिमान हो तभी तो तुमने एक राजकुमारी को अपने प्रेमजाल में फँसाया,महाराज बोलें।।
महाराज की बात सुनकर देवनारायण एक क्षण को चिन्ता में पड़ गया,तभी उसने कुछ सोचा और बोला....
महाराज! आपका कथन सही नहीं है,मैं राजकुमारी से प्रेम करता हूँ,देवनारायण बोला।।
हाँ....हाँ...राज्य की इकलौती राजकुमारी है वो,मेरे पश्चात सबकुछ वसुन्धरा को ही मिलेगा,यही सोचकर तो तुमने उसका जीवनसाथी बनने की योजना बनाई होगी,महाराज बोले।।
महाराज!आपकी सोच एकदम निराधार है,देवनारायण बोला।।
मेरी सोच कभी निराधार नहीं होती,महाराज बोलें।।
तो क्या आप नहीं चाहते कि वसुन्धरा और मेरा विवाह हो,देवनारायण ने पूछा।।
कदापि नहीं!तुम जैसे भिखारी से मैं अपनी पुत्री का विवाह कभी नहीं करूँगा,महाराज बोले।।
एवं इतने में महाराज वीरबहूटी ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि इस अपराधी को मारकर किसी नदी में बहा दो,सैनिकों ने महाराज के आदेश का पालन किया और देवनारायण पर प्रहार करना आरम्भ कर दिया,कुछ ही क्षणों में देवनारायण अचेत होकर धरती पर गिर पड़ा,सैनिकों ने देवनारायण को उठाया और नदी की ओर बढ़ चले,वें नदी पर पहुँचें और उसे नदी में बहा दिया....
इधर जब महाराज राजमहल लौटें तो वसुन्धरा ने उत्सुकता से उनसे पूछा....
क्या उत्तर दिया देवनारायण ने?
मैं तुमसे उसकी बात कैसें कहूँ पुत्री?वो तो केवल तुमसे प्रेम का अभिनय कर रहा था,महाराज बोलें,
क्या कहते हैं आप?वसुन्धरा अचंभित थी।।
हाँ!मैं ने उससे तुम संग विवाह का प्रस्ताव रखा था तो वो बोला कि पहले मुझे अपने राज्य का राजा घोषित करों,तभी तुम्हारी पुत्री से विवाह करूँगा,ये सुनकर मेरा हृदय काँप उठा पुत्री!तुम एक दम्भी से प्रेम कर बैठी हो और ऐसे व्यक्ति से मैं अपनी पुत्री का विवाह नहीं कर सकता,तब यह सोचकर मैनें उससे कहा कि अब मैं तुम जैसे व्यक्ति से अपनी पुत्री का विवाह नहीं करना चाहता तो वो बोला...
कि मैं भी तुम्हारी पुत्री से विवाह नहीं कर सकता,मुझे तो इस राज्य का राजा बनना था तभी तो मैनें वसुन्धरा से प्रेम का झूठा अभिनय किया,मैं अब ये राज्य छोड़कर किसी और राज्य जाऊँगा,संसार में और भी तो राजकुमारियांँ है केवल वसुन्धरा ही नहीं है,
और बोला कि...
आप चिन्तित ना हो!मैं प्रातः होते ही यहाँ से चला जाऊँगा,वसुन्धरा जैसी रुपवती और भी मिल जाएंगी मुझे,मुझे रूपवती स्त्री तो चाहिए ही परन्तु उस के संग संग राज्य का उत्तराधिकारी भी बनना है,वसुन्धरा नहीं तो और कोई....
उसकी ऐसीं विषभरी बातों ने मेरे हृदय को वेध दिया,मैं वहाँ और नहीं रह सका वापस आ गया,ये पिता आज पराजित हो गया पुत्री!तेरी प्रसन्नता के लिए वो तेरा मनपसंद संगी ना ला सका,मुझे क्षमा कर दे मेरी पुत्री !मैं विवश हूँ,महाराज ने अभिनय करते हुए कहा....
पिता की ऐसी दशा देखकर पुत्री का मन द्रवित हो गया और उसे देवनारायण के प्रति घृणा हो गई,वो अब देवनारायण को भूलने का प्रयास करने लगी,देवनारायण उसके साथ साथ उसके पिता का भी अपमान कर चुका था इसे वो सहन नहीं कर सकती थीँ,उसका हृदय पीड़ा से चित्कार उठा था....
ऐसे ही दो महीनें ब्यतीत हुए और उसे एक दिन ज्ञात हुआ कि वो माँ बनने वाली है,वो इस चिन्ता से इतनी ग्रसित हो गई कि उसका स्वास्थ्य गिरने लगा,ये बात महाराज तक पहुँची और उन्होंने उसे शिशु के जन्म तक अपनी बहन के घर भेज दिया....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....