Aakhir woh kaun tha - Season 2 - Part 4 books and stories free download online pdf in Hindi

आख़िर वह कौन था - सीजन 2 - भाग 4

करुणा की बातें सुनकर श्यामा ने कहा, “माँ परंतु मैं तो पढ़ी लिखी हूँ। अपने पैरों पर खड़ी हूँ। मैं क्या करूं? आदर्श ने केवल मुझे ही नहीं तीन लोगों को धोखा दिया है। उस गरीब मज़दूर की इज़्जत छीनी, मेरा स्वाभिमान छीना और उस बच्चे से पिता का नाम छीना। इसके अलावा मेरे परिवार की खुशियाँ भी छीनी। मुझे समझ नहीं आ रहा है माँ, मैं किस रास्ते पर जाऊँ। एक तरफ़ कुआं है तो दूसरी तरफ़ खाई।”

“माँ मैं उसे इतना प्यार करती हूँ कि उसे छोड़कर मैं भी कभी ख़ुश नहीं रह पाऊंगी। मैं ऐसे दोराहे पर खड़ी हूँ कि उस गरीब मज़दूर स्त्री को न्याय दिलाऊँ, उस बच्चे को पिता का नाम दिलवाऊँ और सब कुछ छोड़कर अलग हो जाऊँ या अपने परिवार को बचाऊँ और यह सब कुछ भूल कर जीवन में यूं ही आगे बढ़ती जाऊँ। हमें तो बचपन से सिखाया जाता है माँ पतिव्रता धर्म, पति परमेश्वर है तो फिर पुरुषों को यही सब संस्कार क्यों नहीं दिए जाते?”

बेचारी करुणा क्या करती, क्या कहती। उन्होंने केवल इतना ही कहा, “श्यामा बेटा, तुम बहुत पढ़ी-लिखी, बहुत समझदार हो। जो भी करना धैर्य के साथ सोच समझ कर करना।”

इसी उधेड़बुन में पंद्रह दिन निकल गए, श्यामा किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रही थी। उसे अपने बच्चे अमित और स्वाति जो अब जवानी की राह पर चल पड़े थे दिखाई देने लगते। जवान बच्चों को क्या जवाब दूंगी। वैसे भी स्वाति और अमित दोनों बहुत ही भावुक थे। अपने मम्मा और पापा की जान उनके कलेजे के टुकड़े।

आज श्यामा को उन दोनों की आपस में की हुई बातें याद आ रही थीं।

“हम कितने ख़ुश नसीब हैं जो हमने इतने अच्छे संस्कारी परिवार में जन्म लिया है। स्वाति कहती, देखना मैं तो बिल्कुल मम्मा की तरह वकील बनूँगी और अपने परिवार को शांति का मंदिर जैसा बना कर रखूंगी। अमित कहता और मैं पापा जैसा बनूँगा। पूरे शहर में मेरा भी पापा की ही तरह नाम होगा। स्वाति मैं कभी भी कुछ ग़लत नहीं करूंगा, देखना। हाँ तो अमित पापा जैसा बनना है तो ग़लती की गुंजाइश ही कहाँ है।”

यह सोचते-सोचते श्यामा अचानक चौंक गई। वह उन ख़्यालों से बाहर आई और फिर वापस अपने जीवन की उलझन को सुलझाने की कोशिश करने लगी लेकिन उसका मन किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले ही वापस लौट आता।

इस बीच जब भी आदर्श उसके नज़दीक आता वह मुँह फेर लेती। आदर्श को समझ ही नहीं आ रहा था कि आख़िर श्यामा को हुआ क्या है। उसके चेहरे की लालिमा मानो कहीं खो गई थी। आदर्श के घर आते ही उस पर सवालों की झड़ी लगा देने वाली श्यामा इतनी शांत, इतनी गंभीर और उदास क्यों हो गई है। सुशीला के मामले में तो वह बिल्कुल बेफ़िक्र था। कितने वर्ष बीत चुके थे, कहाँ किसी को कुछ भी पता चला था। उस लड़की ने तो अपने होंठ सिल रखे थे।

आदर्श भले ही बेफ़िक्र हो लेकिन श्यामा को फ़िक्र खाए जा रही थी। बड़े-बड़े बच्चों के सामने उनके पिता की क्या इज़्ज़त रह जाएगी, यही सोचकर वह चुप थी। किंतु उसका मन मान ही नहीं रहा था। फिर आख़िर एक दिन वह अपनी कार लेकर उस मज़दूर स्त्री सुशीला से मिलने पहुँच ही गई।

सुशीला की खोली के पास पहुँचते ही उसने सुशीला को देख लिया और आवाज़ लगाई, “अरे सुनो मुझे तुमसे कुछ काम है। कुछ बात करना है, गाड़ी में आकर बैठो।”

सुशीला तो श्यामा को जानती ही थी कि वह आदर्श की पत्नी है। वह चुपचाप कार में आकर बैठ गई।

“जी मैडम।”

“तुम्हारा नाम क्या है?”

“जी सुशीला।”

“क्या बात है मैडम?”

“देखो सुशीला मैं घुमा फिरा कर बात नहीं करूंगी। मैं सीधे मुद्दे पर आती हूँ। मैं तुमसे जो भी प्रश्न पूछूं, उसका सीधा और सच-सच जवाब देना।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः