Mamta ki Pariksha - 113 books and stories free download online pdf in Hindi

ममता की परीक्षा - 113



रामलाल ने जमनादास को आगे बताया,
"बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अमर ने शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला ले लिया। उससे पहले अमर दो साल हमारे साथ हमारे घर में ही रहा, बसंती और बिरजू का बड़ा भाई बनकर। इन दो वर्षों में मैंने अमर को आपके और गोपाल के बारे में सब बता दिया था। अमर यह जान गया था कि शहर के मशहूर उद्योगपति गोपाल अग्रवाल उसके पिताजी हैं। अपनी माँ साधना के साथ हुए अन्याय से उसका मन बेहद आक्रोशित था। वह साधना के त्याग, हौसले व ईमानदारी से बेहद प्रभावित था और किसी देवी की तरह उसकी पूजा करता था। अपनी माँ की मर्जी के खिलाफ वह एक कदम भी नहीं उठा सकता था, सो साधना की आज्ञानुसार वह शहर में रहकर ही पढ़ाई करने लगा।
ट्यूशन वगैरह के साथ ही मिलनेवाली छात्रवृत्ति से वह अपना खर्च चलाता रहा लेकिन कभी पैसों की माँग नहीं की न मुझसे न अपनी माँ साधना से ...."

अचानक उनकी बात काटते हुए जमनादास जी बीच में ही बोल पड़े, "शुक्र है भगवान का,साधना जिंदा है, लेकिन कहाँ है ? उस दिन अमर के कमरे में दीवार से टंगी साधना की तस्वीर देखकर मैं समझ तो गया था कि अमर साधना का ही बेटा है, लेकिन तस्वीर से ही यह गलतफहमी भी हो गई थी कि अब शायद वह नहीं रही।"

अब बारी अमर की थी। दर्द की लकीरें उसके चेहरे पर खींची हुई स्पष्ट नजर आ रही थीं। जमनादास की तरफ देखते हुए वह बोला, "सही सोचा था आपने सेठजी!"

तड़पते हुए जमनादास जी प्रतिवाद कर बैठे, "अब जबकि सब बातें साफ हो चुकी हैं, हमारे आँखों पर बँधी पट्टी उतर चुकी है, कम से कम अब तो हमें सेठजी कहकर ताना ना मारो बेटा ! हमें माफ कर दो !" कहते हुए जमनादास अमर के सामने दोनों हाथ जोड़ते हुए गिड़गिड़ा पड़े।

उसकी तरफ कोई ध्यान न देते हुए अमर ने कहना जारी रखा, "आपने जो धोखा मेरी माँ को दिया था उससे तो वह जीते जी ही मर गई थी। भरी जवानी में जिसका पति उसे छोड़ जाय उस औरत का जिस्म भले जिंदा हो लेकिन ये हमारा समाज जो औरत का हिमायती होने का दम भरता है अपने तानों और नीच हरकतों से उसे जीते जी ही मार डालता है। कोई और औरत होती तो शायद जिंदा भी न रहती लेकिन मेरी माँ कायर और डरपोक नहीं थी जो पलायन का रास्ता चुनती। मेरी माँ एक आदर्श माँ हैं जिसने इतनी विषम परिस्थितियों में भी समाज से दो दो हाथ करते हुए ममता की परीक्षा दी। मुझे किसी चीज की कमी नहीं होने दी। अच्छे संस्कार के साथ ही अच्छी शिक्षा भी दी। उसने बड़ी बहादुरी से इस समाज का मुकाबला किया और मुझे पाल पोसकर इस काबिल बनाया कि आज आप के जैसा बड़ा रईस चलकर इस नाचीज़ के पास उसका पता पूछते हुए आया है।" कहते हुए अमर के आँखों की चमक बढ़ गई थी।

जमनादास उसके चेहरे की दर्द में डूबी हुई मुस्कान देखकर आशंकित हो उठे और गिड़गिड़ा उठे, "बेटा, अब जो हो गया उसे लौटाया तो नहीं जा सकता। हो सके तो मुझे माफ़ कर दो और रजनी को अपना लो बेटा। वह पगली है, कुछ भी कर बैठेगी। हालाँकि एक बाप अपनी बेटी के बारे में ऐसा कहे यह अपने सामाजिक दायरों के मुताबिक ठीक तो नहीं है, लेकिन क्या करूँ, सच बोले बिना रह भी नहीं सकता। सच कहता हूँ बेटा, उसकी आँखोँ में मैंने तुम्हारे लिए जो प्यार देखा है मैं दावे से कह सकता हूँ कि वह तुम्हारे बिन नहीं रह पाएगी। रजनी से शादी कर लो बेटा ! वह तुम्हारे बच्चे की माँ बननेवाली है।" कहते हुए जमनादास फफक कर रो पड़े थे। अश्रुभरी आँखों के साथ ही उनके दोनों हाथ अमर के सामने जुड़े हुए थे।

लेकिन इस सबसे बेअसर अमर खटिये पर से उठकर चहलकदमी करता हुआ बोला, "कितनी अजीब बात है सेठ जी कि कई बार दूसरों के जख्मों के दर्द का अहसास इंसान को तब तक नहीं होता जब तक कि उसे खुद कोई जख्म नहीं मिल जाता। आज जब तुम्हें यह पता चल गया है कि तुम्हारी बेटी किसी के बच्चे की माँ बनने वाली है तो तुम्हारे पैरों तले की जमीन खिसक गई है। अब तुम्हें अपनी बेटी का दर्द महसूस हो रहा है। अपने इज्जत की चिंता हो रही है। काश ! यही दर्द तुमने तब महसूस किया होता जब मेरे पापा से झूठ बोलकर उनको यहाँ से शहर मेरी माँ से दूर ले गए थे। तब तुम्हारे दिमाग में यह बात क्यों नहीं आई कि मेरी माँ भी किसी के बच्चे की माँ बननेवाली थी ? तब मेरी माँ और नाना के इज्जत की चिंता तुम्हें क्यों नहीं हुई ? आज जब वही कुछ तुम्हारी बेटी के साथ हुआ है तो तुम्हें सब कुछ याद आ रहा है। दर्द का अहसास हो रहा है ? ...नहीं सेठ जी, इतनी आसानी से माफी तुम्हें मिलने से रही चाहे जितना....…."

तभी नजदीक ही किसी कार के इंजिन की आवाज सुनकर अमर का वाक्य अधूरा रह गया। उसने पलटकर देखा।
जमनादास की कार के बगल में ही अपनी कार खड़ी करके ड्राइविंग सीट से उतरकर रजनी उनकी ही तरफ आ रही थी।

अमर को देखते ही रजनी उसकी तरफ दौड़ पड़ी, लेकिन जमनादास पर नजर पड़ते ही उसके चेहरे के भाव बदल गए। उसके कदम सहसा थम से गए और फिर सधे कदमों से चलकर वह अमर के नजदीक पहुँची।
उसके कंधे पर अपना सिर रखकर सिसक पड़ी रजनी, "तुम अचानक क्यों गायब हो गए अमर ? इतना भी ना सोचा कि मेरा क्या होगा तुम्हारे बिन ?"
और फिर जमनादास की तरफ देखते हुए बोली, "लेकिन अब मैं सब समझ रही हूँ। तुम्हें मजबूर कर दिया गया होगा। पैसे की ताकत का धौंस दिखाया गया होगा...लेकिन नहीं अमर ! अब तुम अकेले नहीं हो। मैं भी हूँ तुम्हारे साथ ! न्याय अन्याय की लड़ाई में न्याय के साथ। पैसे वालों को उनका पैसा मुबारक, हमें तो बस सिर्फ प्यार चाहिए .....हाँ ! सिर्फ प्यार ! जब प्यार हो मन में तो सूखी रोटी भी किसी पकवान से कम नहीं लगती। चलो हम मिलकर अपने लिए ऐसा जहां बनाएंगे जहाँ सिर्फ प्यार ही प्यार हो, नफरत और ऊँच नीच के लिए कोई जगह ही न हो !"
फिर जमनादास के हाथों में अपने कार की चाबी थमाते हुए रजनी बोली, "ये लो पापा, अपनी अमानत ! आपको अपनी दौलत पर ही घमंड है न ? तो ये आपकी दौलत आपको मुबारक। हमें नहीं चाहिए आपकी दौलत। बस हो सके तो आप हमें आशीर्वाद दे दें पापा ! हमें और कुछ नहीं चाहिए।...लेकिन आप तो हमें शायद आशीर्वाद देने की दरियादिली भी न दिखाएं।... अब देखिए न ! अमर को धमकी देकर गायब कराकर भी आपकी आत्मा को शांति नहीं मिली तो उसका पीछा करते हुए यहाँ भी आ पहुँचे। सच तो है,और साबित भी हो गया है कि पैसे में बहुत ताकत होती है........."

रजनी के ख़ामोश होने के कोई चिन्ह नजर नहीं आ रहे थे सो उसकी बात बीच में ही काटते हुए चौधरी रामलाल बोल पड़े, "अरे बिटिया ! तुम्हें गलतफहमी हो गई है अपने पापा को लेकर। अभी अभी आई हो ! थोड़ी देर बैठो, पानी वानी पियो। अभी सब पता चल जाएगा।"

"मुझे अब कुछ नहीं जानना है अंकल ! मैं सब जान और समझ गई हूँ। मगर हाँ, ये सच है कि अब तक अपने पापा को ही नहीं जान पाई थी।.. खैर ! अब जब अमर मेरे साथ हैं तो मुझे किसी और चीज की चाह भी नहीं है और ......."

बात अधूरी रह गई थी रजनी की क्योंकि चौधरी बीच में ही बोल पड़े थे, "तुमने यह सोचा कि तुम्हारे पापा यहाँ कैसे पहुँच गए ?"

रजनी खामोशी से चौधरी की तरफ देखती रही। उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। सच ही तो था, उसने इस बारे में तो सोचा भी नहीं था कि उसके पापा यहाँ तक कैसे पहुँच गए ? और उस दिन कमरे में अमर के माँ की तस्वीर देखकर भी उसके पापा उन्हें पह्चानने का दावा करने लगे थे। इसका क्या राज हो सकता है ? यही तो उसे पता नहीं था।

उसे असमंजस की स्थित से निकालते हुए चौधरी ने साधना और गोपाल की प्रेम कहानी के बीच जमनादास से हुई गलती तक की पूरी कहानी रजनी को सुना दी।

पूरी कहानी सुनने के बाद अमर ने देखा रजनी का चेहरा आँसुओं से तर था लेकिन आँखों में क्रोध की ज्वाला भड़क रही थी।

क्रमशः