Param Vaishnav Devarshi Narad - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

परम् वैष्णव देवर्षि नारद - भाग 5

एक समय की बात है, नारद ने विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए परब्रह्म की कठोर साधना की। वे हिमालय पर्वत के एक निर्जन स्थान में जाकर समाधिस्थ हो गए और परब्रह्म की आराधना करने लगे। उनको इस प्रकार कठोर साधना करते देख देवराज इंद्र भयभीत हो गए। उन्होंने इस विषय में देव गुरु बृहस्पति से परामर्श करने का विचार किया।
वे आचार्य बृहस्पति के पास पहुँचे और उनसे कहा “आचार्य! नारद हिमालय पर्वत पर बड़ी कठिन साधना कर रहे हैं। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि वे इतना कठोर तप किस उद्देश्य के लिए कर रहे हैं?"
देवगुरु बृहस्पति बोले "इंद्र! संभव है नारद के मन में तुम्हारे सिंहासन को प्राप्त करने की लालसा पैदा हो गई हो। शायद इसीलिए वे इतनी कठोर साधना कर रहे हैं। "
देवगुरु की बात सुनकर इंद्र और भी भयभीत हो गए। उन्होंने आचार्य बृहस्पति से पुन: पूछा " आचार्य ! यदि ऐसा हुआ तो मेरे लिए यह बहुत दुखदायी बात होगी। मुझे परामर्श दीजिए कि ऐसी हालत में मैं क्या करूं?"
आचार्य बृहस्पति बोले "इंद्र, तुम तो देवों के राजा हो, सर्वशक्ति सम्पन्न हो, सामर्थ्यवान हो, मैं तुम्हें इस विषय में क्या परामर्श दे सकता हूँ, तुम स्वयं ही कोई उपाय सोचो?"
"आप ठीक कहते हैं आचार्य जी, मुझे ही कोई न कोई उपाय सोचना पड़ेगा?" कहते हुए इंद्र वहाँ से चले गए।
अपने महल में पहुँच कर उन्होंने कामदेव को बुलवाया और उनसे कहा "कामदेव ! नारद हिमालय पर्वत पर एक निर्जन स्थान में बैठे कठोर तपस्या कर रहे हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम उनके पास जाओ और अपनी मायावी शक्ति द्वारा जैसे भी हो, उनकी तपस्या भंग कर दो।"
"जैसी आपकी आज्ञा। "कामदेव ने कहा और तत्काल उस स्थान को चल पड़े जहाँ नारद तपस्या कर रहे थे। वहाँ पहुँच कर कामदेव ने अपनी मायावी शक्ति का जाल बिछाया। उनके संकेत मात्र से उस बियाबान क्षेत्र में बहार आ गई। भाँति-भाँति के फूल खिल उठे। चारों ओर हरीतिमा फैल गई। शीतल, मंद, सुगंधित वायु बहने लगी। कलियों पर भंवरे गुंजन करने लगे तथा भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे पक्षी कलरव करने लगे। कुछ ही क्षण में स्वर्गलोक की एक अप्सरा प्रकट हुई और नारद के सामने मनोहारी नृत्य करने लगी। उसके घुंघरूओं की मधुर ध्वनि वातावरण में गूंजने लगी।
लेकिन कामदेव का यह प्रयास व्यर्थ ही साबित हुआ। अप्सरा नृत्य करते-करते थक गई, किन्तु नारद का ध्यान नहीं टूटा। थक-हारकर अप्सरा वापस लौट गई। तप पूरा होते ही नारद ने आँखें खोली। कामदेव ने सोचा "यदि नारद को बाद में यह पता लग गया कि मैंने उनकी तपस्या में विघ्न डालने की चेष्टा की है तो वह मुझे शाप दे देंगे, उचित यही है कि मैं स्वयं ही उन्हें सच्ची बात बता दूं। यही सोचकर उन्होंने नारद के समक्ष पहुँचकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।
नारद ने उन्हें आशीर्वाद देकर कहा "आओ कामदेव! कामदेव ने कहा "अपराध क्षमा हो देवर्षि। मैंने आपकी तपस्या भंग करने का प्रयास किया था।"
नारद ने पूछा "पर क्यों? किसके आदेश से तुमने ऐसा किया।" कामदेव बोले "देवर्षि! मुझ अकिंचन में इतनी हिम्मत नहीं जो स्वयं ही आपको तप से डिगाने का कार्य करता। मुझे ऐसा करने को कहा गया था।"
नारद बोले “किसने ऐसा करने को कहा था कामदेव?
“देवराज इंद्र ने। उन्होंने ही मुझे यहाँ भेजा था।" कामदेव ने सच्ची बात बता दी। कामदेव की बात सुनकर नारद ने मुस्कराकर कहा "मैंने तुम्हें क्षमा किया कामदेव। अब तुम जाओ और देवराज को बता देना कि नारद ने इच्छाओं को वश में कर लिया है। अब मैं संसार के किसी भी भौतिक आकर्षण में नहीं फंस सकता।
"जान बची तो लाखों पाए।" कामदेव ने सोचा और जल्दी से वहाँ से चले गए।
काम पर विजय प्राप्त करने के बाद नारद बेहद उत्साहित अपने पिता ब्रह्मा के पास गये। उन्हें अपनी उपलब्धि बतायी मगर ब्रह्मा जी ने नारद के काम पर विजय प्राप्त करने को अधिक महत्त्व नहीं दिया। नारद जी इसके बाद शिवलोक में भगवान् शिव के पास गये और उन्हें भी अपनी उपलब्धि बतायी मगर शिव ने भी नारद की उपलब्धि पर कोई ध्यान नहीं दिया। उलटा उन्होंने नारद को इस बात को लेकर भगवान् विष्णु के पास न जाने की सलाह दे डाली। देवर्षि नारद हैरान थे। वे खिन्न थे। उन्हें यह आशा न थी कि उनकी काम विजय पर उनके पिता ब्रह्मा और शिव प्रसन्न न होंगे? वे शिव को सीधा-साधा, भोला-भाला मानते थे। सभी का कहना था कि शिव का किसी से कोई बैर नहीं है, पर ऐसा था नहीं। नारद को विश्वास हो गया था कि उनकी काम-विजय ने शिव में ईर्ष्या का संचार कर दिया। वे सोचने लगे शिव कहाँ जीत पाये थे काम को? काम पर विजय प्राप्त करने की जगह वे तो क्रोध नामक विकार की पकड़ में आ गए थे। तभी तो गुस्से में आकर उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया था। क्या यही है योगी का लक्षण? नारद के कानों में शिव के यह शब्द "वत्स, तुमने अपने पिता और मुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी विजय का समाचार दिया, पर श्रीहरि को यह बताने उनके पास न जाना, बार-बार गुंज रहे थे।"
"वे मेरे इष्ट हैं, मेरे स्वामी हैं। क्यों न उन्हें अपनी सफलता का समाचार दूं?" नारद बड़बड़ाए जा रहे थे।
इसी चिंतन में न जाने कब शिवलोक से विष्णुलोक की यात्रा तय हो गयी और मार्ग में कौन-कौन मिला, नारद को कुछ पता नहीं चला। विष्णुलोक के प्रमुख द्वारपाल जय-विजय आश्चर्यचकित थे। उन्होंने नारद की ऐसी अस्त-व्यस्त दशा इससे पहले कभी न देखी थी और फिर नारद की वीणा की तारें भी तो मौन थीं। उन्होंने नारद जी को प्रणाम किया।
नारद ने उनकी ओर गहरी दृष्टि से देखा। वे जानना चाहते थे कि उनकी विजय का समाचार विष्णुलोक में उनसे पहले ही तो नहीं पहुँच गया। लेकिन ऐसे कोई लक्षण न देख नारद ने अभिवादन के जवाब में सिर्फ अपना सिर हिला दिया। यह अभिवादन की परंपरा के विरुद्ध था। लेकिन नारद तो परंपरा अपरंपरा से परे मात्र अपने अस्तित्व के नए स्वरूप की स्वीकृति में लगे हुए थे। नारद ने द्वारपालों के सामने अपना निश्चय रखा "मैं भगवान् के दर्शन करना चाहता हूँ।"
यह सुनकर जय-विजय को और भी ज्यादा हैरानी हुई। वे सोचने लगे "देवर्षि के लिए तो किसी भी लोक में किसी प्रकार का विधि-निषेध नहीं है, वे कहीं भी पहुँच सकते हैं। फिर यह औपचारिकता कैसी?" यह सोच दोनों भागे-भागे भगवान् विष्णु के सामने उपस्थित हुए। उन्होंने देवर्षि के आगमन की सूचना भी दी और यह भी निवेदन किया कि आज देवर्षि बदले हुए हैं। भगवान् ने अपनी आँखें खोले बिना जय-विजय की सारी बाते सुनी, अंत में मुस्कराए और देवर्षि को ससम्मान लाने की अनुमति प्रदान कर दी।
देवर्षि ने भगवान् के श्री चरणों को स्पर्श किया। भगवान् ने बिना कोई आशीर्वाद दिए पूछा "कैसे हो नारद? आज देवर्षि विषाद और खिन्न कैसे दिख रहे हैं?"
नारद की आँखों से अश्रुधारा बह चली। बोले "आप तो सर्वज्ञ हैं प्रभु! पर मुझ अज्ञानी को आज पहली बार ज्ञात हुआ कि किसी की सफलता पर कोई प्रसन्न नहीं होता, यहाँ तक कि पिता भी नहीं और देवों में भी कोई नहीं, भले ही वे चाहे शिव ही क्यों न हों? वे भी ईर्ष्या से मुक्त नहीं हैं। आप ही बताएं, उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि मैं अपनी विजय गाथा आपको न बताऊ?"
श्रीहरि ने प्रश्न किया "विजय गाथा ? कैसी विजय गाथा नारद जी ?"
नारद बोले "हाँ भगवन्, विजय गाथा। जिस पर आज तक कोई विजय प्राप्त नहीं कर पाया, मैंने उस कामदेव को परास्त कर दिया। उसने हारने के बाद मेरे पैरों में गिर कर मुझसे, आपके दास से क्षमा मांगी।"
"लेकिन नारद! तुम तो ब्रह्मचारी हो, तुमने विवाह नहीं किया, तो क्या, काम पर तुमने पहले विजय नहीं पाई थी? "श्रीहरि ने मुस्कराते हुए जब यह प्रश्न पूछा, तो महालक्ष्मी भी बिना मुस्कराए न रह सकीं। श्रीहरि के इन वाक्यों में किसी प्रकार का व्यंग्य नहीं था। वे नारद को भीतर से कुरेदकर कुछ बाहर निकालना चाहते थे। नारद के पास श्रीहरि के इस प्रश्न का कोई उत्तर न था।
श्रीहरि बोले “देवर्षि! तुम तो सहज रूप से काम से परे हो। उस पर विजय की बात सोच स्वयं को अपने स्वरूप से नीचे क्यों गिराते हो। सहज विचरण करो, विजय-पराजय से परे जनहित का कार्य करो। यही एक सच्चे भक्त की पहचान होती है।"

यह सुनकर नारद का मुखमंडल आँसुओं से धुल चुका था। ऐसा क्यों हुआ था, इसे तो श्रीहरि भी जानते थे। महालक्ष्मी ने अपना स्नेह भरा हाथ देवर्षि के माथे पर रखा। नारद कुछ सहज हुए। उन्होंने श्रीहरि को प्रणाम किया। श्रीहरि ने आशीर्वाद दिया "जो चाहते हो, वह प्राप्त करो।"
नारद के मुख से निकला "भक्ति दें भगवन, अपनी भक्ति दें।"
समय बीता। पृथ्वीलोक में विचरते हुए नारद की दृष्टि समुद्र के किनारे बसे एक सुंदर नगर पर पड़ी। नारद उस ओर मुड़े। नगर में प्रवेश किया। लगा, मानो इन्द्रपुरी पहुँच गये। राजमहल के प्रवेश द्वार पर जा खड़े हुए। नारद का सभी ने अभिवादन किया। महाराज को देवर्षि के आगमन का समाचार मिला। वे महारानी के साथ अगवानी करने आ पहुँचे।
“देवर्षि का मायानगरी में स्वागत है।" इतना कह महाराज ने देवर्षि को दण्डवत प्रणाम किया। वेदों का सस्वर पाठ आरंभ हो गया। देवर्षि आश्चर्यचकित थे। उन्हें लगा सब कुछ पूर्वनियोजित था लेकिन...। देवर्षि इस समय विचारो की उलझन में नहीं उलझना चाहते थे। उन्हें बस इतना पता चल गया था कि उस नवीन नगरी का नाम मायानगरी था। मन ही मन वह यह भी सोच रहे थे कि नगर की भव्यता के हिसाब से मायानगरी नाम सार्थक ही है।
देवर्षि राज भवन में पहुँच चुके थे। वे राजसिंहासन पर आसीन थे। समूचा राजपरिवार देवर्षि के चरणों में बैठा। महाराज ने महारानी के कानों में कुछ कहा। महारानी प्रणाम कर वहाँ से उठीं और रतिवास की ओर चल दीं। थोड़ी देर बाद देवर्षि उठ खड़े हुए, बोले "राजन्, मैं अब चलता हूं फिर कभी! अभी देवर्षि कुछ कहते कि सामने से आती सौंदर्य की साक्षात् प्रतिमा को देखकर स्तंभित रह गए। देवर्षि ने ऐसा सौंदर्य तो कभी भी कहीं भी नहीं देखा था। महाराज ने देवर्षि को परिचय देते हुए बताया 'भगवन्! यह है मेरी पुत्री महालक्ष्मी।' राजकुमारी ने देवर्षि को प्रणाम किया।
देवर्षि की तंद्रा तो तब टूटी जब महारानी ने निवेदन किया "देवर्षि आशीर्वाद के लिए झुकी हुई आपकी अनन्य भक्ता। "
'अनन्य भक्ता' महारानी का यह शब्द चौंकाने वाला था। राजकुमारी ने अपनत्व-सा दिखाते हुए, इठलाते हुए देवर्षि की और अपना बायां हाथ बढ़ा दिया और बोली “महर्षि आप तो प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं, त्रिकालदर्शी हैं, बताइए मेरा भविष्य कैसा है?"
"पहले बैठने का आग्रह करो, फिर जो चाहती हो पूछो।" महारानी ने राजकुमारी को प्यार भरी डांट दी।
देवर्षि कब फिर आसन पर बैठ गए, उन्हें कुछ पता नहीं चला। उन्होंने राजकुमारी के हाथ पर जब दृष्टि डाली, तो वे आश्चर्यचकित रह गए। ऐसा हाथ! जो इससे विवाह करेगा, वह विश्वपति बनेगा। जो विश्वपति होगा, उसी का इससे विवाह होगा। खुद में ही उलझ कर रह गए देवर्षि नारद। कुछ समझ नहीं आ रहा था इसलिए वे मौन हो गये थे।
"क्यों परेशान कर रही हो देवर्षि को फिर कभी पूछ लेना अपना भविष्य।" महाराज ने राजकुमारी को यह कहते हुए देवर्षि के श्री चरणों में निवेदन किया "इसी पूर्णिमा के दिन मेरी पुत्री का स्वयंवर हो रहा है। आप आशीर्वाद दें कि यह सुयोग्य वर के गले में जय माला डाले। आप तो जानते हैं देवर्षि, यह निर्णय के पल कितने दुष्कर होते हैं।"
स्वयंवर! इसी पूर्णिमा को महालक्ष्मी के हाथों की रेखाएं। महालक्ष्मी का भविष्य। सभी कुछ समेट लिया था देवर्षि ने अपने मन-मस्तिष्क में। वे उठ खड़े हुए। उन्होंने झटपट सारी औपचारिकताएं पूरी कीं। वे उस वातावरण से सरपट निकल जाना चाहते थे। 'जल्द आऊंगा' यह आश्वासन उन्होंने महाराज को दिया और चल दिए– कहाँ, ये वे उस समय स्वयं भी नहीं जानते थे।
नारद को देखते ही श्रीहरि के होंठों पर मुस्कराहट फैल गई। नारद के अभिवादन का उत्तर देते हुए माता लक्ष्मी ने पूंछा क्या बात है पुत्र? आज चिंतित लग रहे हो?"
"पुत्र", इस शब्द ने नारद को भीतर तक झकझोर दिया। इतना स्नेह तो ब्रह्माणी से भी उन्हें कभी नहीं मिला था। उन्हें लगा कि अब जो वे चाहते हैं, पा लेंगे।
"नहीं माँ, ऐसी कोई बात नहीं है। जिसकी आप जैसी माँ हो, उसे चिंता कैसी? नारद चतुर हो गए थे। स्वार्थ व्यक्ति को स्वयं चतुरता सीखा देता है।
अब श्रीहरि की बारी थी। "देवर्षि वैसे आप तो सभी कामनाओं से परे हैं? लेकिन, आज मुझे लग रहा है मानो आपके मन में किसी कामना का अंकुर फूटा है।"
देवर्षि चुप थे, लेकिन हैरान भी। उन्हें विश्वास हो गया था कि उनकी लक्ष्य प्राप्ति के सभी साधन सहज रूप से एकत्रित होते जा रहे हैं। सब अनुकूल था।
“भगवन्! ऐसी कोई बात नहीं है। आपके श्री चरणों में मात्र छोटी-सी प्रार्थना थी।"
"कहो पुत्र!"
"पूर्णिमा के दिन सिर्फ एक दिन के लिए मुझे अपना रूप देने की कृपा करें।"
"और मैं किस रूप में रहूँ?"
"आप तो कोई भी रूप ले सकते हैं?" देवर्षि उतावले हो रहे थे। उन्हें डर था कि कहीं श्रीहरि उन्हें मना न कर दें।
"ठीक है, पूर्णिमा को हरिरूप हो जाएगा तुम्हारा।" श्रीहरि ने हरिरूप देने का वर दे दिया देवर्षि को। देवर्षि उठ खड़े हुए। उन्होंने एक बार अपने इष्ट की आँखों में यह सोचकर झांका कि कहीं छल तो नहीं कर रहे हैं श्रीहरि ।
श्रीहरि ने नारद के मन को भांप लिया, "देवर्षि, परेशान न हो, संतों से छल मेरी मर्यादा नहीं है। मैं तो भक्तों का धर्म रक्षक हूं।" हरि बोले।
नारद झेंप गए। चोरी पकड़ी गई थी। इष्ट के प्रति शंका!
पूर्णिमा के दिन मायापुरी सजी हुई थी। नगर में राजकुमारों का तांता लगा हुआ था। एक से एक सुन्दर, एक से एक महारथी। सभी आशा-निराशा के बीच झूल रहे थे। राजकुमारी महालक्ष्मी के पास भी सभी के गुण-दोषों की जानकारी पहुँच चुकी थी। सांझ हुई। दरबार सजा था। राजकुमार अपने-अपने आसनों पर आसीन थे। महाराज ने अपनी पुत्री के स्वयंवर की घोषणा की– "आप सभी का इस सभा और पावन आयोजन में स्वागत है। आप सभी गुणसंपन्न हैं। मेरी दृष्टि में समान हैं। मेरी पुत्री महालक्ष्मी जिसके भी गले में वरमाला डालेगी वही इस मायानगरी का जामाता होगा।"
महाराज का यह वक्तव्य समाप्त ही हुआ था कि शहनायिया गुंज उठीं राजकुमारी महालक्ष्मी अपनी सखियों के साथ दरबार में प्रविष्ट हुई– शालीनता और सौम्यता की साक्षात् प्रतिमा, दिव्य अलौकिक तेज से सभी को मंत्र मुग्ध करती हुई चली जा रही थी। दरबार में सन्नाटा था। जिसके सामने से गुजर जातीं, वह निराशा की गहरी खाई में गिर-सा जाता।
राजकुमारी जब एक आसन के सामने पहुंची तो ठिठक गई। उस आसन पर बैठे भद्र पुरुष ने अपनी गरदन आगे का दी। उसे देखकर सखियां खिलखिला उठीं। राजकुमारी आगे चल दी। लेकिन आश्चर्य! वह भद्र पुरुष अगले रिक्त आसन पर जा बैठा ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ उसे मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसका वरण नहीं किया जा रहा।
सभी के देखते-देखते विष्णु समान एक राजकुमार ने दरबार में प्रवेश किया। उसे देखकर राजकुमारी खिल उठी। अभी वह आसन पर बैठा भी नहीं था कि राजकुमारी ने उसके गले में वरमाला डाल दी। तभी भवन में सामूहिक स्वर गूंजा "यदि राजकुमारी ने पहले से ही किसी का चुनाव पति के रूप में किया था। तो यह नाटक करने की क्या आवश्यकता थी?"
सबने राजकुमारी को घेरना चाहा। लेकिन न जाने क्या दिखा सभी को, सब भय से सुन्न हो गए। नारद बौखलाए हुए थे। उन्हें आश्चर्य था कि श्रीहरि के रूप पर भी राजकुमारी मुग्ध नहीं हुई। कहाँ गया मोहिनी का वह आकर्षण, जिसने शिव को भी मूढ़ बना दिया था।
"दर्पण में अपना मुंह तो देखिए, हमें तो इस बात पर आश्चर्य है कि आपको इस सभा में द्वारपालों ने आने कैसे दिया?" एक सैनिक ने नारद पर व्यंग्य कसा।
यह सुनकर नारद की आँखों से क्रोध की ज्वाला फूटने लगी। सैनिक घबरा गए। फिर भी साहस करके एक सैनिक ने उन्हें दर्पण थमा दिया। जब नारद की दृष्टि दर्पण पर पड़ी, तो वे आश्चर्यचकित रह गए। उनकी मुखाकृति तो वानर की थी। नारद आपे से बाहर हो गए। इतना बड़ा छल! अपमान!
अब वे विष्णुलोक के मार्ग पर चले जा रहे थे। अभी थोड़ी दूर ही गए होंगे कि श्रीविष्णु का रथ दिखाई दिया। नारद की गति वायु-सी तीव्र हो गई। रथ के पास पहुँच नारद ने देखा, तो उन्हें विश्वास न हुआ। श्रीहरि के साथ राजकुमारी महालक्ष्मी थीं।
"यह क्या श्रीहरि, आपने मुझसे, अपने भक्त से घात किया। मैं आपको शाप देता हूँ कि जैसे मैं स्त्री न मिलने के कारण दुखी हुआ, वैसे ही आप भी पत्नी दुख से पीड़ित रहेंगे।" यह सिर्फ क्रोध की अभिव्यक्ति नहीं थी, शाप था अपने ईष्ट को। काम के बाद अब क्रोध से भी हार गए नारद।
श्रीहरि मुस्कराए, "वत्स, तुम्हारा कथन मुझे स्वीकार है। मैं पत्नी दुख सह लूंगा, पर मुझसे यह नहीं सहा जाएगा कि मेरा भक्त अपने मार्ग से विमुख हो जाए।"
"अब तुम्हें यह बात समझ आ गई होगी कि तुम्हारे पिता ने और सदाशिव ने मुझे काम विजय का समाचार देने को क्यों मना किया था।"
श्रीहरि के ये शब्द सुनकर देवर्षि की आँखों से माया और अंहकार का पर्दा हट गया था। वे राजकुमारी से नजरे चुरा रहे थे।
"वत्स माता-पिता को संतान का हित सर्वोपरि है। उनका कार्य है संतान को सही मार्ग पर लाना।" यह माँ लक्ष्मी की वाणी थी।
नारद ने नजरें उठा कर राजकुमारी की ओर देखा, तो देखते ही रह गए। वह राजकुमारी नहीं माँ लक्ष्मी थीं। नारद दोनों के श्री चरणों में गिर पड़े।
कथा है कि इसी शाप के कारण भगवान विष्णु ने रामावतार लिया और सीता जी के विरह में जंगल-जंगल भटके। यहाँ तक कि उन्हें अंत में सीता जी को वन में छुड़वाना पड़ा।