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वो कौन था--भाग(१)

कुदरत जब सितम-ज़रीफ़ी (अत्याचार करने) पर उतर आए तो हज़रत इंसान का तमाशा बना देती है। ठाकुर साहब हरनाम सिंह ने कभी ख्वाब में भी न सोचा था कि उन्हें इतने बड़े इम्तिहान से दो-चार होना पड़ेगा। या तो औलाद देने ही में ख़ुदा ने गफ़लत की और जब दिए तो एकदम दो बेटे! बेटा तो उनके यहाँ एक ही पैदा हुआ लेकिन एक से दो कैसे हो गए? ये भी एक अजीबो-गरीब किस्सा है।

ठकुराइन जब ब्याह कर आई थीं तो मुश्किल से पंद्रह साल की होंगी। राजस्थानी हुस्नो-जमाल का अछूता मुजस्समा (साकार रूप), ठाकुर साहब उनसे बारह साल बड़े थे, खुद भी इकलौते थे और बड़ी जायदाद के तनहा वारिस। पिता का देहांत हो चुका था, बूढ़ी माँ को पोता खिलाने का बेइंतिहा अरमान था। लेकिन सारी मन्नतें-मुरादें मुँह देखती रह गईं। ठकुराइन की गोद न भरी। उन्होंने बेटे का दूसरा ब्याह करना चाहा। लेकिन वो अकड़ गए। ठकुराइन पर सौत लाने का वो ख्वाब भी न देख सकते थे।

लेकिन बीस बरस पूरे भी न होने पाए थे कि ख़ुदा को उन पर रहम आ गया। बच्चे की आमद की तैयारियाँ जोर-शोर से शुरू हो गई। माताजी ने इतने कुर्ते और पोतड़े सिलवाए कि चार बच्चों को पूरे पड़ जाते। एक अलग कमरा सजाया गया। नीला, हल्का नीला कमरा, जिसकी छत पर सितारे टँके थे। झाग जैसे लेस के पर्दे और सफ़ेद पंगूरा जिसके पाये-पटियों पर गंगा-जमुनी नक्श (चित्र) थे और छोटी-छोटी घंटियाँ जड़ी थीं कि बच्चा करवट भी ले तो गुनगुना उठें। उन घंटियों को कुछ इस तरह लगाया गया था कि जब हिलती थीं तो सातों सुर बजते थे और कुछ ऐसी सुरीली आसमानी मूसीकी (लय) उभरती थी जैसे फ़रिश्ते लोरियाँ गुनगुना रहे हो...और भी तरह-तरह के खिलौने सजाए गए। माताजी तो बच्चे के कमरे से ऐसे खेलती थीं जैसे बच्चियाँ गुड़ियों के घर से खेलती हों। एक तरफ़ छोटी-सी मेज़ पर घुटनों चलते बाल-कृष्ण जी सजा दिए गए, उनके सामने छोटे-छोटे दियों की कतार रखी थी जिसमें लौ की जगह लम्बूतरा आध इंची बल्ब जड़ा हुआ था।

ठकुराइन की तबीयत खराब रहती थी। माताजी उनके लिए इमलियाँ तुड़वा कर खट्टा-मीठा कचूमर बनवातीं। ये इमली का पेड़ रहमत माई के छोटे से आँगन में था। वो रोज़ाना साफ़-सुथरी पकी इमलियाँ तोड़ कर रंग-बिरंगी टोकरी में भर के दे जाती। ख़ुद उसकी बेटी के भी बाल-बच्चा होने वाला था। उसका मियाँ बलवे में मारा गया था। ठाकुर साहब ने उसे अपनी कोठी के अहाते में पनाह दे दी थी। रहमत माई को कुछ कम सुनाई देता था। उसकी बदनसीब बेटी सगीरा दुनिया से मुँह मोड़े खाट पर पड़ी आँसू बहाया करती थी, दिन-ब-दिन उसकी सेहत गिरती जा रही थी।

जिस वक़्त ठाकुर साहब के लाल ने जनम लिया. कोठी के कोने से मातम की सदा (आवाज़) बुलंद हुई, सगीरा बच्चा पैदा होने के दस मिनट बाद चल बसी। कोई दाई भी बुलाने की नौबत न आई। अचानक ही बच्चा पैदा हो गया। रहमत माई को कुछ सुझाई न दिया। आनूल कैसे काटा जाए। मेहतरानी को उसने हाथ न लगाने दिया। वैसे ही बच्चे को झोली में डालकर ठाकुर साहब के पास पहुँची। वो ख़ुद बौखलाए हुए थे।

इसे डॉक्टरनी के पास ले जाओ। नाल तो काट दें, कुछ हो न जाए बच्चे को! उन्होंने जल्दी से माई को अंदर भेजा, ऐसे समय रहमत माई का अंदर जाना कुछ माताजी को अच्छा न लगा, लेकिन इससे पहले कि वो रोकतीं, रहमत माई अंदर घुस गई। नर्स ने बच्चे को लेकर तौलिये में लपेटा और मेज़ पर लिटा दिया, क्योंकि उधर माई ने कमरे में कदम रखा बच्चे का नाल काटने तक नर्स ने माई के नवासे का भी नाल काट दिया। क्या गोल-मटोल बच्चे थे। डॉक्टरनी ने ठाकुर साहब के बच्चे को नहला कर सफेद फ्राक पहनाया। लेकिन बाँध कर उसकी दादी की गोद में डाल दिया। उनके आँसू निकल आये। झट हाथ से दस तोले के सोने के कड़े उतार कर डॉक्टरनी को पहना दिए और पोते की बलाएँ लेने लगीं। ठाकुर साहब भी खड़े मुस्कुरा रहे थे।
नर्स ने डॉक्टरनी से कुछ कहा, वो त्योरियाँ चढ़ा कर जल्दी से अंदर गई,
ठकुराइन बच्चे को पहलू में लिटाए मुस्कुरा रही थीं। थोड़ी देर के लिए डॉक्टरनी सन्नाटे में रह गई।

और कुदरत ने एक कहकहा लगाया, क्योंकि उसके बाद बौखलाहटों का एक तूफ़ान सारे घर पर टूट पड़ा। ठकुराइन कहती थीं जो बच्चा नर्स ने उनकी गोद में दिया वही उनका सपूत है। मगर दादी अम्मा ने जिस पोते की बलाएँ लेकर सोने के कड़े डॉक्टरनी को दिए थे वो अपनी गोद वाले बच्चे को ही पोता मानने पर बज़िद थीं। मगर ये सब हुआ कैसे? डॉक्टरनी पूरे यक़ीन के साथ कह सकती थी कि जो बच्चा उसने माताजी की गोद में दिया, वही ठाकुर साहब का बेटा है, लेकिन नर्स कहती थी उसे अच्छी तरह याद है कि उसने ठाकुर साहब के बच्चे को गुलाबी तौलिये में लपेटा था और माई का नवासा फ़ीरोज़ी तौलिये में लिपटा पड़ा था।

वाह! क्या में अपने बच्चे को न पहचानूँगी। ठकुराइन फ़ीरोज़ी तौलिये के चक्कर में नहीं पड़ना चाहती थीं और उनकी गोद का बच्चा बिलकुल बाप पर गया था, हाँ ठोढ़ी माँ पर थी। लेकिन ठाकुर साहब को दोनों बच्चे गोश्त की बोटी की शक्ल के मालूम हो रहे थे। माताजी कहती थीं कि उनकी गोद वाला बच्चा ही उनका पोता है, क्योंकि उसकी तरफ़ उनका कलेजा खिंच रहा है।

लेकिन फिर सब चुप हो गए। रहमत माई खम्भे से लगी बैठी आँसू बहा रही थी। मस्जिद से लोग बेटी का कफ़न-दफ़न करने आए हुए थे। वो नवासे को क्या पहचानती, वो तो ख़ुद को भूली हुई गम के बोझ से दबी जवान बेटी की मौत का धक्का सहारने में जुटी हुई थी।
ठकुराइन ने जब माई के नवासे को देखा तो भौंचक्की रह गई। न जाने क्या सनक सवार हुई कि रो-रो कर हलकान हो गईं। लोग उन्हें धोखा क्यों दे रहे हैं। ठीक कहती हैं माताजी, उनकी गोद का बच्चा ही उनका पूत है। लेकिन जब नर्स उनके पहलू से बच्चा उठाने लगी तो मचल गई।
फिर सब बिलकुल बदहवास हो गए। एकाएकी ठकुराइन दोनों बच्चों को समेट कर अड़ गईं कि मेरे तो जुड़वाँ पैदा हुए हैं, तुम लोग तूफ़ान जोड़ रहे हो।

दूसरे दिन एक हंगामा खड़ा हो गया। सब सोच रहे थे कि दिन की रोशनी में दूध का दूध और पानी का पानी अलग हो जाएगा। अपना बच्चा भला छुप सकता है! खून की कशिश भी कोई चीज़ है! लेकिन जैसे ही उनके पास से एक बच्चा उठाया जाता, वो अपना फैसला बदल देतीं। ठकुराइन की ऐसी हालत हो गई कि बड़ा डॉक्टर बुलवाना पड़ा।

और सारे मुहल्ले में खबर फैल गई कि बच्चे गहु-महु हो गए और मुहल्ले से बात शहर तक पहुँची। चैमीगोइयाँ होने लगीं। किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ...रहमत माई हर्राफ़ा (नीच औरत) है, जान-बूझ कर ड्रामा खेला गया है ताकि उसका नवासा ऐश करे और बेचारा ठाकुर साहब का बच्चा भीख माँगे। घोर पाप हो जाएगा! एक हिन्दू का बच्चा मुसलमान के घर पलेगा, संस्कृति को ठेस लगेगी, ये एक गिरोह के लोगों की राय थी।
दूसरे गिरोह (समुदाय) के लोगों का खयाल था कि ठाकुर साहब ने जानबूझ कर घपला किया है। इस तरह वो एक मुसलमान बच्चे को अपने कब्जे में करने पर तुले हुए हैं।
खूब बहसें चलीं। कई मुहल्लों में तनाव फैल गया। एक हिन्दू लड़के ने एक मुसलमान को थप्पड़ मार दिया।
बस दो-चार छुरियाँ चलीं। खून-खराबे होने लगे। पुलिस नाकों पर डट गई, बलवे पर काबू पा लिया गया। बाद में पता चला कि हिन्दू लड़के ने जिस मुसलमान को थप्पड़ मारा था वो मुसलमान नहीं, हिन्दू ही था।

सब झूठ! बलवे में दिलचस्पी रखने वाला गिरोह बोला और बलवा बढ़ता गया। दोनों फ़िरकों के जलसे और मीटिंगें होने लगीं। वफ़्द (प्रतिनिधि-मण्डल) अफ़सरों की खिदमत में हाज़िर हुए। फ़ौरन सुपरिन्टेंडेंट साहब मय-सारजेंटों के दौड़े आए।
"दोनों बच्चों को तस्फिया (फैसला) होने तक सरकारी अस्पताल में भेज दीजिए।"
"क्यों, मैं अपना इकलौता बच्चा खैराती अस्पताल में क्यों भेजूं?" ठाकुर साहब अकड़ गए।

लेकिन सवाल ये था कि उनका बच्चा कौन-सा है? ठकुराइन ने रो-रो कर बुरा हाल कर रखा था। कभी एक को छाती से लगातीं, फिर दिल दूसरे की तरफ़ खिंचने लगता। उन्होंने कह दिया कि एक भी बच्चे को किसी ने हाथ लगाया तो वो हश्र बरपा कर देंगी। पुलिस में हिम्मत है कि बच्चे को ले जाए!
ज़ाहिर है ऐसे वक़्त में ठकुराइन से ज़िद बाँधना उन्हें क़त्ल करने के बराबर था। उनका दिमागी तवाजुन (संतुलन) बिगड़ जाने का खतरा था। वैसे सभी का दिमागी तवाजुन डगमगा रहा था। ख़ुदा ने बरसों बाद एक बच्चा दिया और वो भी इस खटाई में पड़ गया। इसकी वजह से खून-खराबे हो रहे हैं। ठाकुर साहब हैरानो-परेशान थे और बेबस भी।
"बच्चों को ज़रा बड़ा होने दीजिए, हफ़्ते दो हफ्ते में कुछ नाक-नक्शा निकल आएगा। पहचान पड़ जाएँगे।" लोगों ने राय दी।

रहमत माई चौखट पर बैठी रो रही थी। मेहरबानी करके उसका नवासा दे दिया जाए तो वो अपने वतन पीलीभीत ले जाकर किसी आँखों वाली खुदा-तरस औरत की गोद में डाल दे। बिन माँ-बाप का बच्चा पल तो जाएगा, अब वही दुनिया में उसका सब कुछ था। इकलौती बेटी की आखिरी निशानी! और जब बुढ़िया को हकीक़त समझाने की कोशिश की गई तो वो पछाड़ें खाने लगी। मजबूरन ठाकुर साहब ने कहा, “दे दो कमबख्त को बच्चा कि पाप कटे!"
सवाल ये था, कौन-सा बच्चा?
"मुझ अंधी को कुछ नहीं सूझता, तुम आँख वालों के भी दीदे फूट गए।" रहमत माई बड़बड़ा रही थी, “गरीब बुढ़िया का टेटुआ दबाना है तो दूसरी बात है।"
बड़ी झक-झक के बाद एक बच्चे के हक़ में फैसला हुआ कि वो बुढ़िया का नवासा है। लेकिन उसमें एकदम माताजी को अपने पति यानी बच्चे के दादा की शबाहत (छाया) नज़र आने लगी। वो छाती पीटने लगीं।
अब तो रहमत माई को यक़ीन हो गया कि वो लोग उसे झांसा दे रहे हैं। वो फूटकर रोई कि कलेजे हिल गए!

डरते-डरते फिर दूसरे के हक़ में फैसला किया गया। लेकिन उसे लेकर रहमत माई अँगनाई तक मुश्किल से गई होंगी कि ठकुराइन के दाँत भिंच गये, मुँह से झाग जाने लगा।
"ज़रा सोचो तो जिसे बुढ़िया ले जा रही है, दरअसल वही उनका पूत है। कोई गारंटी कर सकता है कि गुत्थी वाक़ई सुलझ गई। फैसला ठीक हुआ है?"

बड़े सोच-विचार के बाद ठाकुर साहब ने रहमत माई को समझाया, “तुम बच्चा पाल तो सकतीं नहीं, किसी से पलवाओगी। मुझे पाल लेने दो। तुम भी जैसे रहती थीं, रहो। तुम्हारी नज़रों के सामने रहेगा।" ठाकुर साहब जानते थे कि बच्चे दोनों नज़रों के सामने रहेंगे। लेकिन उनका बच्चा तो खो गया। वो उसे पूरे यक़ीन के साथ नहीं देख सकते, शक कैसे दूर होगा? रहमत माई चुपचाप सुनती रहीं, फिर बोली, “साफ़ बात है ठाकुर साहब बच्चा आपके यहाँ पलेगा, आपके धरम पर चलेगा। ये कैसे हो सकता है, हश्र के दिन ख़ुदा को क्या मुँह दिखाऊँगी कि एक मोमिन का बच्चा काफ़िर बना दिया। मेरी आकिबत (परलोक) खराब हो जाएगी और फिर बड़े मौलवी साहब तो जमाअत से बाहर करने को कहते हैं। मेरी तो जैसे मिट्टी पलीद हो जाएगी। ख़ुदा का वास्ता मेरा बच्चा मुझे दे दो।"

"तुम्हारा बच्चा मैं देना चाहूँ तब भी नहीं दे सकता। हाँ, अगर तुम सोचती हो कि तुम अपना नवासा पहचान सकती हो तो मैं तुम्हारा बेहद शुक्र-गुज़ार होऊँगा। मेरी मुश्किल भी वही है जो तुम्हारी। मेरे ऊपर भी लोग दबाव डाल रहे हैं। समझते हैं मैं जानबूझ कर बन रहा हूँ, मुसलमान बच्चा हड़प करना चाहता हूँ।"
"और मुझे कह रहे हैं कि आपकी दौलत की लालच में जानकर मैंने ये सारा स्वांग रचाया है। आपको बेवकूफ़ बना रही हूँ।"
लेकिन शहर में तूफान उठा हुआ था। अख़बारों के ज़रिये खबर फैल रही थी। साथ-साथ आग भी फैल रही थी।
इस्लाम ख़तरे में!
हिंदू धर्म शिट हो रहा है!
नारे लग रहे थे। मज़हबी पार्टियों से आगे बढ़ कर सियासी पार्टियों ने बात लपक ली थी और जलसे हो रहे थे, फंड जमा किए जा रहे थे, एक-दूसरे पर गंदगी उछाली जा रही थी।
"मुल्क के साथ नाइंसाफ़ी और जुल्म!"
"मुल्क का बँटवारा काफ़ी नहीं, अब हर घर में एजेंट छोड़े जा रहे हैं।"
"नाज़ियों की तरह बच्चे मुलहिद (विधर्मी) बनाये जा रहे हैं।"
"ये सब नक्सलाइट की कारस्तानी है।"
"जम्हूरियत (लोकतन्त्र) पर ज़बरदस्त चोट!"
“इसमें चीन का हाथ है, हमारे निज़ाम (व्यवस्था) को दरहम-बरहम (तहस-नहस) करने के लिए।"
“सी.आई.ए. सबूताज कर रहा है।"
"गद्दी छोड़ो!"
और फिर पार्टियों में इस सवाल पर जूते चल गये...फूट पड़ने लगी...
वो कौन था? : 37
मिनिस्ट्रियाँ डगमगाने लगी...


क्रमशः....
इस्मत चुगताई...