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संत हरिहर बाबा

पुरुषारथ स्वारथ सकल परमारथ परिनाम।
सुलभ सिद्धि सब साहिबी सुमिरत सीताराम॥ — गोस्वामी तुलसीदास


राम नाम का स्मरण करने से निस्सन्देह सद्गति मिल जाती है, संसार-सागर से पार उतरने का सहज साधन एक मात्र राम-नाम है। राम-नाम में प्रीति वृद्धि समस्त मुक्ति की प्रतीक है। सन्त हरिहर बाबा राम नाम के परम रसिक महात्मा थे। जीवन के अन्तिम काल तक मुक्तिक्षेत्र काशी में भगवती भागीरथी में नाव पर निवास कर उन्होने अपनी अविचल राम-नाम-निष्ठा का जो रसास्वादन कराया वह सन्त जगत के लिये एक मौलिक देन है।
हरिहर बाबा राम के बहुत बडे उपासक थे। उनकी कृपा से असंख्य प्राणियो ने आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त की।

हरिहर बाबा का जन्म बिहार प्रान्त के छपरा जनपद में जाफरपुर गॉव मे लगभग डेढ़ सौ साल पहले एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनका बचपन का नाम सेनापति तिवारी था। उनके माता-पिता बडे पवित्र विचार के थे। दैवयोग से सेनापति की अल्पावस्था में ही माता-पिता ने परलोक की यात्रा की। सेनापति का मन सहसा भगवान की ओर लग गया। कुछ समय तक सोनपुर और भागलपुर में विद्याध्ययन किया। इसी समय उनके एक भाई हरिहर का देहान्त हो गया। इस घटना ने सेनापति के जीवन की गतिविधि बदल दी। वे हरिहर की याद लेकर भगवान राम के पवित्र-धाम अयोध्या में चले आये। भगवती सरयू का पवित्रदर्शन कर वे निहाल हो गये। उन्होंने भगवान राम की पवित्र लीलाभूमि की श्रद्धापूर्वक वन्दना की। सरयू के पवित्र तट पर रहकर उन्होंने कठिन तपस्या का जीवन अपनाया, कठोर से कठोर उपवास व्रत मे संलग्न होकर वे परमात्मा के चिंतन में निमग्न हो गये। अल्पाहार से ही संतोष कर लेने का उन्होंने स्वभाव बना लिया। काशी-दर्शन की उनकी बडी इच्छा थी। वे तप करने के लिये विश्वनाथ की नगरी काशी में आ गये। काशी आने पर भगवती गंगा मे ही नाव पर निवास करने का उन्होंने नियम लिया और आजीवन उन्होने इस नियम का अपने जीवन में पालन किया। उनकी काशी और गंगा के प्रति भक्ति असाधारण कोटि की थी। काशी में वे नगवा से अस्सी घाट के बीच में गंगाजी में रहते थे। कभी कभी तुलसीघाट और संकटमोचन आदि पर आया करते थे। काशी मे वे हरिहर भैया के नाम से प्रसिद्ध हुए। काशी निवासकाल मे वे वीतरागानन्द नाम के एक महत्मा के सम्पर्क में आये। उनके चरण में हरिहर बाबा की बड़ी निष्ठा थी। महात्मा वीतरागानन्द की उन पर बडी कृपा थी।
हरिहर बाबा शौच आदि के लिये गंगा के उस पार जाया करते थे। कड़ी से कड़ी गरमी, भयानक शीत और अपार जलवृष्टि का सामना कर वे अपने नियम का आजीवन पालन करते रहे। कभी-कभी तो नाव के अभाव में वे तैर कर गंगा के उस पार जाते थे। निस्सन्देह वे असाधारण हठयोगी थे। वे परमहंस थे। उन्होने परमात्मा के अनन्याश्रय का वरण किया, संसार के पदार्थ और प्राणियों में उनकी तनिक भी ममता न रह गयी।
एक दिन वे एक घटना से क्षुब्ध होकर नगवा से अस्सी घाट पर आये। काशी विश्वविद्यालय का एक छात्र जूता पहनकर उनकी नाव-हरिहर आश्रम पर चला आया। हरिहर बाबा के शिष्यों ने उसको समझाया कि सन्त के सान्निध्य में ऐसा आचरण अपराध माना जाता है। छात्र ने इस पर ध्यान नही दिया और अपने अनेक साथियो के साथ उसने बड़ा उत्पात किया। बाबा ने नगवा छोड़ दिया, उनके संकेत पर नाव अस्सी घाट की ओर चल पड़ी। उन दिनो विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय काशी में नहीं थे। काशी आने पर वे विश्वविद्यालय के प्राध्यापको को साथ लेकर बाबा से सतापराध के लिये क्षमा मांगने गये। उन्होने एक पैर पर खड़े होकर क्षमा माांगी और विनम्रता पूर्वक नगवा लौट चलने का आग्रह किया। हरिहर बाबा अपने नियम के बड़े कड़े थे। वे असी घाट पर ही रह गये और मालवीय जी के विशेष अनुरोध पर उन्होने कृपापूर्वक आज्ञा दी कि तुलसीघाट का जीर्णोद्धार करा दिया जाय। मालवीय जी ने इसे अपना परम सौभाग्य माना हरिहर बाबा ने नश्वर शरीर छोड़ने की अवधि तक असीघाट पर ही गंगा जी में नाव पर निवास किया। रामायण-पाठ और राम नाम की मधुर कीर्तन-ध्वनि से काशी नगरी धन्य हो उठी। भक्ति, मुक्ति, विरक्ति और शक्ति सन्त हरिहर बाबा के आश्रम में नाव पर निवास करने लगीं।
सन्त का जीवन दिव्य घटनाओ से प्रायः सम्पन्न होता है, वे चमत्कार और प्रदर्शन से दूर रहते हैं। सन्त हरिहर बाबा के जीवन में अनेक दिव्य घटनाओ का होना पाया जाता है। एक समय की बात है, उनके तलवे मे नागफनी का काटा लग गया, वे शान्त रहे पर जब उन्होंने सुना कि महाराज वीतरागानन्द को भी नागफनी ने अमित कष्ट दिया है तो वे कह पड़े कि नागफनी सब को कष्ट देती है इसलिये उसे नष्ट ही हो जाना चाहिये। लोगो के देखते ही देखते गंगा के दोनो तटों पर नागफनी का अस्तित्व तक समाप्त हो गया। वे वाग्सिद्ध महात्मा थे, एक शब्द भी व्यर्थ कभी नही बोलते थे।
राम-नाम में उनकी बड़ी निष्ठा थी। एक समय की बात है कि वे शौच आदि से निवृत्त होने के लिये नाव से उस पार जा रहे थे। गंगा का जल बाढ़ पर था, धारा वेगवती थी। नाव डूबने लगी, केवट ने बडा श्रम किया पर कोई फायदा नहीं हुआ। बाबा ने केवट को यत्न करने से मना किया। उनके आदेश से लोग राम नाम जपने लगे। बात की बात में उनकी राम-नाम-निष्ठा से नाव डूबने से बच गयी। राम-नाम के प्रताप से जल में शिला तैरती है, काठ की नाव डूबने से बच गयी, यह कोई आश्चर्य की घटना थोडे ही है। राम नाम से क्या नहीं हो सकता है।
बाबा चराचर में आत्मदर्शन करते थे। वे अद्वैत वेदान्ती भक्त थे।
एक समय की बात है, काशी नरेश का हाथी पागल होकर उत्पात करने लगा। उसने गंगा पार कर, रामनगर में बडा उपद्रव किया। लोग प्राण बचाकर इधर-उधर भागने लगे। हाथी उन्मत्त अवस्था में बाबा के सामने आया । सन्त हरिहर उस समय शान्तिपूर्वक राम नाम का चिन्तन कर रहे थे। हाथी पर उन्होने कृपा-दृष्टि की। वह स्वस्थ हो गया। उसने बाबा का आदरपूर्वक अभिवादन किया और शान्त होकर चला गया। ऐसी अनेक घटनायें बाबा के जीवन में घटती रहती थी।
सन्त हरिहर बाबा परम सन्त थे। राम-नाम सकीर्तन-ध्वनि ही उनके श्वासो की अधिष्ठात्री शक्ति थी। तपस्या के तो वे साकार विग्रह ही थे। काशी में इधर सौ सालो मे इतने बड़े तपस्वी सन्त हरिहर बाबा ही थे। निस्सन्देह वे अरुणाचल के रमण महर्षि के उत्तरी दिव्य संस्करण थे। रमण महर्षि आत्मयोगी थे तो हरिहर बाबा परमात्मा के सयोगी थे। दोनो-के-दोनो वेदान्ती सन्त और भक्त के मौलिक समन्वय थे। सन्त हरिहर कहा कहते थे कि राम का नाम ही परमामृत तत्व है। संन्यासी को साधारण जीवन बिताना चाहिये और कथनी-करनी में समान रहना चाहिये। धन, ऐश्वर्य, मद और मान को वे आध्यात्मिक साधना के पथ में बड़ा बाधक मानते थे। वे काशीवास, गंगाजल सेवन, सत्संग और भगवान विश्वनाथ की आराधना की ही सदा सीख देते थे। वे शैव और वैष्णव के समन्वय थे। बाबा का दृढ विश्वास था कि मुक्ति की मूलभूमि संन्यास है।
सन्त हरिहर की साधना की प्राणभूमि शान्ति थी । वे सदा गूढ़ चिंतन में निमग्न होकर आत्मगत शाश्वत शान्ति की खोज करते रहते थे। वे उपासना और साधना से परे उपास्य और सिद्ध थे। वे गोस्वामी तुलसीदास के तपरूप थे। उन्होने दिगम्बर वेष में गंगा में खड़े होकर सूर्य से नेत्र मिलाकर लम्बे समय तक तपस्या की। राम और शिव के अभिन्न स्वरूप में उनकी बुद्धि परम स्वस्थ और स्थिर थी।
जीवन के अन्तिम दिनो मे वे केवल गंगाजल का ही पान करते थे। हरिहर आश्रम—नाव की छत पर अद्भुत शान्ति में वे रामनाम का रसास्वादन करते रहते थे। उनके दर्शन से दिव्य शान्ति मिलती थी। सम्वत् २००९ विक्रम में आषाढ शुक्ल पंचमी शुक्रवार को साढ़े ग्यारह बजे रात में उन्होंने नश्वर शरीर का परित्याग कर परम धाम की यात्रा की। वे निष्काम भक्त और आत्मज्ञानी सन्त थे।

रचना
समय-समय पर उनके मुख से निकले वचन ही उनकी कृति हैं।

वाणी
★.. यदि काशी और गंगा जी के बदले स्वर्ग भी मिले तो वह त्याज्य हैं।
★.. सन्यासी को कथनी के अनुरूप आचरण करना चाहिए।
★.. अध्यात्म-पथ के पथिको को विघ्न-बाधाओ से नही घबराना चाहिये।
★.. प्राणीमात्र को काशी वास, गंगाजल-सेवन, सत्संग और भगवान शिव-परमात्मा का भजन करना चाहिये।