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फादर्स डे - 7

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण 7

सोमवार, त २९/११/१९९९

सूर्य अस्त के बाद शिरवल गाँव बिलकुल समझदार लड़के जैसा हो जाता है धमाल बन्ध, मस्ती बन्ध, अग्नांकित बच्चे के जैसे हाथ पैर धोकर, शाम का खाना खतम कर के अध्ययन, पढ़ाई या गप्पे लड़ाने बैठ जाना । कुछ बेकार गाँव के बहूत ज्ञात अंबेमाता मंदिर पासके चौराहे एकठ्ठा होते । बीड़ी फूँक ना या तंबखू मसलकर हाथों से चूना जटकना । उसके बाद गाँव के सरपंच से लेकर वडा प्रधान को क्या करना चाहिए उसकी फिलसूफ़ी सुरू हो जाती थी । भले ही घर मे एक रुपए की कमाई ना हो । के ठेले पर रेडियो आज सच ही कहता था । रोज शाम आती थी मगर ऐसी ना थी ...” आज शिरवल और उसकी शाम बिलकुल अलग थी ।

अभीतक शांति का प्रवेश हुआ नहीं था और दूर दूर कहीं उसकी आहट भी सुनाई नहीं दी थी । घर घर, बाहर और चोराहे पर एक ही चर्चा और एक नाम : संकेत, संकेत, संकेत ।

नाम एक पर जीतने मुँह उतनी बातें ।

एसे तो कोई बच्चे को बेपरवाही से छोड़ते हे क्या ?

‘सारे घर में किसिकों बच्चे की फिकर ही नहीं है लगता है । एसी कमाई भी किस काम की ?

ऐसा अंगूठे भर जैसा बच्चो की मस्ती से सबको कित कितना टेंशन ।

‘मी एकदम स्ट्रिक्ट [ मै बिलकुल स्ट्रिक्ट ] उसकी मम्मी ने कह दिया की लड़की को पढ़ाना हो तब तो तुम्हें लेने और छोड़ने जाना । झंझट ही नहीं ‘।

लिखकर रखना मेरी बात भाईसाहब किसी परिचित के घर पर जलसा कर रहा होगा

यह सब बातों के बीच शिरवल पोलीस चौकी के कॉन्स्टेबल बिलकुल दौड़ धूप कर रहेथे कुछ लोगो को पुलिस चौकी ले जाना था । एक कॉन्स्टेबल ने साइकल को जोरों से पेडल मरते हुए बड़बड़ाया: एसी दौड़ धूप आमदार के आगमन पर भी नहीं होती है । दूसरे कॉन्स्टेबल की तकलीफ और थी: तीन माह के बाद घरवाली मायके से आई पर आज उसका मुँह देखनेको मिले ऐसा लगता नहीं है ।

तीसरे कॉन्स्टेबल ने एक परिचित लड़के को रास्ते में ही रुकाकर मेसेज़ दे दिया

‘पोरा, जरा काकुला निरोप दे । माझा जेवण चौकी वरज पाठव [ बेटा चाची को कह देना की मेरा टिफिन पोलीस चौकी पर ही भेज दे ।

अंबिका माता मंदिर के पास वाले चौटे पर चापलूसी वालो के गाँव गपसप से दूर ‘ साई विहार ‘मे स्थिति एकदम पृथक, ज्यादा गंभीर थी । घंटे होने के बाद भी संकेत वापस नहीं आनेसे प्रतिभा बिलकुल डर गई थी । कम बोलनेकी आदत और उसमे भी आघात । अविरत खयाल आते : ‘कहाँ होगा मेरा संकेत ? कैसी हालात में होगा ? कुछ खाया पिया होगा क्या ? संकेत की खाने पीने की फिकर करनेवाली माँ की भूख और प्यास तो कब के मर चुके थे । ना जाने आखिर में कब पानी पिया होगा !

सूर्यकांत तो संकेत के गुम होनेकी शिकायत लिखवाने पुलिस चौकी गए । वहाँ दो - से ढाई घण्टे लगे । फिर दोस्तों के साथ बैठकर ‘ साईं विहार ‘ के अलग कमरे में भीतर के हिस्सेमें गए नहीं, आगे का प्लान सोचने लगे । इस वख्त दौरान भीतर प्रतिभा बिलकुल अकेली, अटूली और मन से टूट चुकेली, एकदम डरी हुई बैठी थी ।

भला होगा पास पड़ोस की महिलाओं का की उनके कारण प्रतिभा संमभाल पाई पास ही में रहते तारूआई के सफेद बालों में समाविष्ट अमूल्य अनुभव से प्रतिभा को संभाल लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । महाड़ीक काकु सतत ‘साईं विहार ‘ में ही रहे, प्रतिभा के साथ ही साथ में । सामने रहता एक वयोवृद्ध दंपति भी जैसे अपनी सगी बेटी को संभालते हो एसे इस पुत्र वियोगी माँ की देखभाल करते थे ।

एकदम हिबक खाई हुई प्रतिभा मुस्किल से कुछ बोल पातिथी । उसकी आंखे चारों और घूमती थी । दिमाग पूर्ण सुन्न हो चुकाथा अन्य दसक और कितने ही अच्छे बुरे प्रसंगो के गवाही बन चुके हुए वृद्ध महिलाए अलग अलग रीति से अलग अलग शब्दों में प्रतिभा को सहारा देती थीं चिंता छोड़ दें,संकेत मझें में होगा । तुम शांत रहो, सूर्याभाऊ बेटे को लेकर आते ही होंगे । अभी आता ही होगा संकेत जैसे भूलके ने किसी का क्या बिगाड़ा होगा की उसे कुछ होगा । वो बचपने में कहीं गया होगा, अभी आता ही होगा । यही सिर्फ शब्द या वचन नहीं थे । पुत्र के बिना तड़पती और अधमुई हो चुकी हुई माता के लिए ऑक्सीज़न था । आशा की किरण था । जीने का आशरा था । अंधेरेमें उजाला था ।

अंधेरे का साम्राज्य शिरवल गाँव में बढ्ने के साथ बाहर गए हुए कॉन्स्टेबल तरह तरह के लोगों को लेकर पुलिस चौकी वापस आ रहे थे । यह सब किसी न किसी कारण सूर्यकांत भांडे पाटिल परिवार के साथ जुड़े हुए थे । कोई सूर्यकांत के परिचित, रिस्तेदार या दोस्त थे, या कोई व्यापारी थे । खुद को पुलिस चौकी ले जा रहे हें और वो भी संकेत के गुम होनेके मामले में ? गुस्सा और नाराजगी साथ साथ चलते थे, पर प्रसंग और पुलिस के सन्मान के लिए किसिका मुंह नहीं खुलता था । साई विहार के अंदर सूर्यकांत और उनके दोस्त सोचते थे की पुलिस अपना कार्य कर रही है, पर हमे चुप रहकर नहीं बैठ सकते । वास्तव में छोटे गाँव में बड़ा गुनाह होता है तब सभी गाँव वाले एक हो जाते है । पुलिस क्यूँ न पुलिस का कार्य करे पर गाँव वाले हो सके उतना कर गुजरे ।

उसमें सूर्यकांत भांडेपाटिल का बड़ा नाँव । थोड़े बहुत पोलिटिकल कनेक्सन । सफल बिजनेसमेन । गाँव वाले के हिसाब से,मानवी के हिसाब से, और घरेलू होनेके कारण सभी हमेशा साथ ही थे, उनके दुख में सहभागी थे । सभी सामने आश लगाके बैठे थे । सूर्यकांत कुछ सोच में थे । आखिर मौन तौड़ा: पुलिस गाँव के मेरे, प्रतिभा का और संकेतका सभी चित –परिचित को पूछे बिना नहीं रहेगी । साईट पर और घर पर कार्य करने वाले मजदूरों का पता करना चाहिए । मजदूर, कड़िया,रंगारी,मिस्त्री, पोलिश करनेवाला, एलेक्ट्रिशियन … कोई रह न जाएँ । एक के बाद एक लोगों को याद करने लगें कुछ नाँव के सामने आश्चर्य प्रकट किया गया पर सूर्यकांत निश्चित: शंसय किसी पर नहीं, पर पता सबका करना पड़ेगा ।

ज़्यादातर यहीं थियरी पे शिरवल पुलिस चौकी में कार्य हो रहा था । सूर्यकांत, प्रतिभा,और संकेत के रिस्तेदार, परिचित, मिलनेवाले और दोस्तों को मिलाकर पच्चीस लोंगों को कॉन्स्टेबल ले आए थे या बुलाकर आए थे । ज़्यादातर को अपनी बेइज्जती लग रही थी, पर पुलिस मन में कुछ गठन बांध लेंगे तब उनके सामने किसका चलता है ? एक- एक के नाँव, उम्र, पता और व्यवसाय पुछ लिए गए । सभी के पास से पूरे दिन की दिनचर्या की सूची मँगवाई गई । खास तो वे दोपहर मे बारह के बाद कहाँ थे ? क्या किया ? तुमने जो किया उसकी गवाही देनेवाला कोई है ? कोई त्रस्त हो कर, कोई गुस्से में, कोई नाराजगी में, कोई मुंह में भरा हुआ पैन जोरोसे चबाकर उत्तर देता था । सबके मान में एक ही सोच घुमड़ रही थी: क्या में गुंडा हूँ ? किडनेपर हूँ ?

स्कूल टीचर अंजलि वालीम्बे का शकमंद का विवरण किया था । पच्चीसेक साल के उम्र का उवान और रंग काला, ग्रे कलर के स्कूटर पर आया था । स्कूटर तो ग्रे कलर का किसी के पास नहीं था । अंजलि के विवरण मुताबिक कुछ लोगों को अलग किया तब साढ़े नौ –दस बजा था । कॉन्स्टेबल सभी ऊब चुके थे, भूखे थे, पर संकेत का अतापता नाही मिला था या नाही खबर । सामान्य रूपसे सभी कॉन्स्टेबल की मर्जी घर पहुँच जानेकी थी उन्होने पी एस आई सतीश माने के सामने देखा । मानेने सिनीयर कॉन्स्टेबल को नजदीक बुलाकर कानों मे धीरेसे कहा: इतनी रात को उस टीचर को तो पुलिस चौकी बुला सकते नाही । उसके विवरण मुजब के लोंगों एक के बाद एक उन्हे घर ले जाइए अंजलि वालिन्बे किसी को पहचान लेगी तब हमारा कार्य आसान हो जाएगा । इतना सुनकर कॉन्स्टेबल जाने लगा तभी माने ने रोका: एकदम संभालकर कार्य करना । सभी गाँव के आदमी है, सज्जन है । किसी के सामने कभी पुलिस केस हुए नाही है, और वैसे गुनहगार साबित हो न जाए तब तक सभी बेगुनाह गिनेंगे ...लौकर जावा [जल्दी जाइए ]

कॉन्स्टेबल ने हामी भरके सिर जुकाकर गया । दूसरे कॉन्स्टेबल के साथ घुसपूस की। एक के बाद एक कॉन्स्टेबल अपने साथ एक आदमी को लेकर थोड़े थोड़े वक्त के नुसार जाने लग गए कॉन्स्टेबल के साथ जाने वाले खुश तो नहीं थे पर उनके मनमें भिन्न भिन्न सोच थी । दो-तीन लोंगों के बच्चे भी एम ई एस स्कूलमे पढ़ते थे एक दो के बच्चे तो अंजलि वालिम्बे के क्लास में ही थे । एक गरम दिमाग वाले का सर तो गुस्से से गरम हो चुका था । ‘ये क्या नाटक है ? डाके से इस शिरवल में रेहता हूँ पर किसीने नजर उठाई नाही है । और ...और...ये लोग मौजे किड्नेपिंग के लिए ...देख लूँगा एक एक को ।

रात दश बजेसे अंजलि वालिम्बे कॉन्स्टेबल के साथ आए एक एक को देखने के बाद समान प्रतिभाव देती थी । हर एक आदमी के साथ आए कॉन्स्टेबल को आशा थी की मेरा आना सफल हो जय तब तो मजा आ जाए । पुलिस चौकी और गाँव में नाँव हो जय, पर एक भी लोगो की हाथो में जश की लकीरें नहीं थी अंजलि के चेहरे पर विचित्र भाव थे । आठ लोंगों की अनौपचारिक पहचान विधि हो गई । अंजलि ने किसिकों देखकर पुलिस को पसंद आए वेसा प्रतिभाव नहीं दिया । अर्थ सीधा था की संकेत को ले जाने वाला उनमेनसे नहीं था । शिरवल के महोल में, घर-घर में एक एक आदमी के मन में टंचणी के जेसे सवा करोड़ रुपैया का प्रश्न चुभता था: ‘संकेत सूर्यकांत भांडे पाटिल हे कहाँ ?’

 

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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