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फादर्स डे - 9

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण 9

सोमवार २९/११/१९९९

सोमवार, तारीख २९ नवेंबर की देर रात और मंगलवार ता-३० मी के आरंभिक घंटों मेन बजी हुई मोबाइल की रिंग से सूर्यकांत पाटिल का दिल एक पल तो धड़कना चूक गया ।

‘बोलिए रफीकभाई ....’

‘भाऊ, इति रात्रिला कोणाला घेऊन येयायचा योग्य आहे का ?’ [भाई इतनी रात को किसी को लेकर आना ठीक हे क्या ?]

‘कुछ गलत नहीं है उसमें । हमारा इरादा नेक है । सवाल मेरे बेटे की लाइफ का है । ‘हम मांफ़ी मांग लेंगे आप फिकर मत करो । कहाँ हो आप ?’

‘वो देगांव मेन नहीं मिला । हम लोग मुकादमपुरा जा रहें है । यहाँ अपनी बहन के घर रहता है ऐसा जानने मिला है । अभी रखता हूँ फोन । ‘

पुणे जिल्ले के भोर तालुके मे आया हुआ गाँव देगाँव,मुंबई-पुणे रोड पर शिरवल से ३० किलोमीटर दूर । मुसकिल से एक हजार जितनी बस्ती गाँव में २१५-२२० खोली । मुंबई-पुणे रोड पर शिरवल की एक तरफ ३० किलोमीटर पर देगाँव और उसकी विरुद्ध दिशा में ३० किलोमीटर पर आया हुआ गाँव वो लोणद । यह दोनों गाँव तक सूर्यकांत की दोस्त सेना पहूँचने को थी ।

शिरवल पुलिस चोकी में एक के बाद एक लोग भरते जा रहे थे । सभी कॉन्स्टेबल खड़े पैर थे । मौका मिले चाय की चुस्की, तमाकू की फाँकी, और बीड़ी के दम मार लेंगे पी एस आई सतीश माने दो-तीन मिनिट की दूरी पर आए हुए रेस्ट हाउस में कुछ वक्त जा कर आए, पर टेंशन वाला केस था संकेत मिसींग का और अब तक एक भी बातमी हाथ नहीं लगी थी । यह रेस्ट या हाउस नहीं जमा इसलिए माने तुरंत ही पुलिस चौकी वापस आए । कॉन्स्टेबल ने चाय की प्याली मेज पर रख दी ।

सूर्यकांत के सामने पड़ी हुई चाय ठंडी हो रहीं थी । उनके खयाल में आया की खुद के कारण किसी ने चाय की प्याली को हाथ तक नहीं लगाया । चाय की प्याली उठाकर उन्होने सबको विनती की : ‘प्लीझ, चाय आवश्यक आहे । [चाय जरूरी है ] मन-दिमाग शांत स्वस्थ होगा, तब कुछ भूल गए हे वो याद आ जाएगा । सघले घेऊन टाका रे बाबा ‘ [सबै लेलों रे बाबा] ‘सभी ने प्याली मुंह पे लगाई, नवेंबर की शरदी की रात और दिनभर की दौड़ धूप और त्रस्त के बाद कुछ अच्छा लगा ।

अच्छा नहीं लगता था सौरभ को । संकेत का गुम होना, पापा का गले तक डूबकर काम में डूब जाना और मम्मी की पीड़ा के बीच बेचारा सौरभ जेसे भूल जैसे गए थे । एकदम गुमसुम बेठा रहा था । कुछ न कुछ पल के बाद रोना आ जाता था। पता नहीं था उसे या समाज में कुछ नहीं आता था । कब होगा पहेले जेसा ...संकेत को उठाकर उसके साथ खेलना है ... अब उसपर कभी भी चिड़ना नहीं है ...वो आ जाए तब वापस सब ठीक हो जाएगा पहले जेसा अच्छा । अच्छा नहीं लगता था प्रतिभा को । कुछ भी अच्छा नहीं लगता था होंठ ईश्वर के नांव –स्मरण में फड़फड़ाते थे। आँखें प्रभु पर से हटटी नहीं थी पर एक ही नाम,एक ही विचार : संकेत,संकेत मेरा संकेत । पूरी शरदी में ठंडे पानी के कटोरे में बिराजमान गणेशजी, सामने बेठी हुई माता की भक्ति, श्रद्धा और आशा के सामने सतत मुस्कराते थे हसना बांध कर, कॉन्स्टेबल ने चिढ़ से एक आदमी को डांटा । वो सिरवल का अचानक डर कर खड़ा हो गया हाथ जोड़कर बोला :’काय करूँ साहब ?[क्या करूँ साहब ?] आप एक ही सवाल गोलगोल घूमांकर पूछते हो पर मेंने संकेत को कलसे देखा हीं नहीं था । पूरा दिन खेत में था, माझी बायको सांगणार तुम्हाला...’ [मेरी बीवी कहेगी आपको] कॉन्स्टेबल अंजलि वालिम्बे ने दिया हुआ विवरण की नोंध पर फिर से नजर डाली । गुस्सा कुछ नरम हुआ । ‘जा चल आता । [जा अभी चला जा ] हुशियारी करायची नहीं ‘[ चालाकी करनेकी नहीं ]

वास्तविक में पूर्ण शिरवल पुलिस चौकी में धमधमाट,रघवाट, उकलाट,बढ़ता था पूरे साल में नहीं आते थे उतने सारे लोग, एक रात में उमड़ रहे थे । जेसे पुलिस चौकी न हो, कोई मेला लगा हो । अंजलि के विवरण मुताबिक उमर, कद, काठी और रंग के साथ समानता रखनेवाले लोंगो को रुकाकर बाकी सबको जाने दे रहे थे ।

शिरवल गाँव में आज किसी घर में आदमी हाजर नहीं थे । कुछ संकेत या उसकी खबर की खोज में यहाँ वहाँ गाँव में और बाहर गाँव के निकाल गए थे, कुछ सूर्यकांत के साथ बैठे थे और कुछ थोड़े कहने को शकमंद के रूप में पुलिस चौकी में थे । इस तीनों विभाग से विपरीत बेठनेवाले पाँच-सात लोग अंबिका माता मंदिर के पास चौटे पर बेठकर बीड़ी उद्योग का टर्न ओवर बढ़ा रहें थे । बार बर्र खांसी खाकर पशु पंछी की नींद में दाखल पहुंचा रहे थे । एक कुत्ता भोंक ने लगा, तब पांडु ने गुस्से में उसकी तरफ कंकड़ फेंका : ‘गाँव वाले का खाना जरूर पर ध्यान रखना नहीं और उल्टा हमारी सामने ही भोंकना ?’ बाजू वालों की बीड़ी से अपनी बीड़ी सुलगा ते हुए बड़बड़ाया : ‘घोर कलियुग आ गया ...संकेत को लेकर जाने वाले को भोंका होता तब सारा गाँव अभी कैसे सुकून से सो रहा होता ।

नींद या सुकून का अर्थ गुम – भूल चूका था। ‘साई विहार के अंदर बाहर की रूम में सूर्यकांत को और अंदर प्रतिभा को समजाए : थोड़ी देर लेट जाओ अच्छा लगेगा तुमको ‘ पर वास्तव में दोनों को कहीं कुछ अच्छा लगता नहीं था । रिस्ता ही नहीं रहा था नींद के साथ ।

नींद के साथ के रिस्ते में रुकावट न आए इस रितसे देवांग में एक घर दरवाजे पर हाथ थप थपाता था । यह घर रामचन्द्र ढेंकने ने बनाया था । अभी रामचंद्रा की पत्नी सीता, बड़ा बेटा अंकुश, उनकी पत्नी और छोटा बेटा लहू रहते थे । राम, सीता, लव का अपभ्रंश लहू और कुश का हुआ अंकुश । आंखे मसलते हुए अंकुश ने दरवाजा खोला : ‘कोण हाय बाबा इति रात्रिला ?’ [कौन हे बाबा इतनी रात को]

सामने से थोड़ी कडकाई के साथ रफीक मुझावर का वापस सवाल आया : तू लहू हाय ? [तुम लहू हो क्या ?]

अब थोड़े स्वस्थ हो कर, हल्की आवाज से अंकुश ने जवाब दिया : ‘नाहीं, मी अंकुश आहे । माझा भाऊ लहू मुकदमपूरा आहे । ‘

‘का?’

कड्कड़ती शरदी में अंकुश के चेहरे पर पसीना जमने लगा : पन झाला काय भाऊ ?’

कोई उत्तर नहिं मिलने से अंकुश बोलने लगा की वो बहन के गया है ।

इतना सुनते ही रफीक मुकादम और प्रेमजिभाई पटेल तुरंत ही मुकादमपुरा चले गए । मुकादमपुर में लहू की बहन के पास से सुना की लहू मंदिर में सोया हे । महाराष्ट्र के कई गाँव में अपरिणित युवा को मंदिर में सोने का रिवाज होती है ।

तुरंत ही मंदिर में जाकर लहू को जगाया । यही पतला, ऊंचा, हल्का सा श्याम वर्ण और अंकुश से ज्यादा आत्मविश्वाषी लहू के कपड़े –हाथों में से अभी फर्नीचर के पोलिस की हल्की बास आती थी । वो प्रश्न भरी नजरे रफीक्भाई, प्रेमजिभाई आणि मंडली के सामने देख रहा था । रफीकभाई ने अच्छी तरह आदेश दिया : ‘चल जीप मधे बास । [चलो जीप में बेठो । अर्जण्ट काम हाय शिरवल का ‘ [अरजेंट काम हे शिरवल का ]

रात के ३.३० बजे शिरवल गाँव में एकदम धमधमाट था । इस गाँव ने वर्षो वरस देखा नहिं था उतने लोग और वाहनों की आवन जावन आज की रात देखि थी । सोमवार रात नौ बजे से शिरवल पुलिस चौकी में एक के बाद एक लोगो को पूछताछ, जानने और उलट तपास के लिए लाये गए थे ।

रात के ३.३० बजे के आसपास देवांग और लोनंद के वहाँ आ पहुंचे । लोनंद से फर्नीचर वाले कारीगर को लाए गए थे : कैलास, देवराम, और हस्ती । देवांग से कड़िया दुर्योधन और पॉलीस करनेवाला लहू ढेकने को लाया गया था ।

यह कारीगर –मजदूरों ने गुनाह किया हो, गुनाह में साथ दिया हो, क्राइम का प्रपंच योजित किया हो या फिर कुछ जरूरी बातें सुनी हो वो जान नें में पुलिश को ज्यादा दिलचस्पी थी । एक के बाद एक की पूछ -ताछ हो रही थी।

लहू रामचंद्र ढेंकने एकदम गरीब बनकर सब देख रहा था । चेहरे पर से लगता था की यहाँ क्या हो रहा हें वो और उसको क्यूँ यहाँ लाया गया था वो उसे समज नहिं पा रहा था उसमें पूरे ३० कि मी दूर आकर आधी रात नींद से जगाकर लानाथा ? बाकी सब कि पूछ ताछ सुनते वक्त नींद और अरुचिकर से उयास आ रहा था। बिचमे टेंसन से पुलिस चौकी का मेज, खुरची और कबाट पर कि चमक खतम हो जाने कि मन ही मन नोंध ली और अब पोलिस करने कि तुरंत जरूरी होने से लहू को लगा ही था कि फिर सोचा : पुलिश वाला मुजे थोड़ा काम दे ? और काम मिला तो भी पैसे मिले ।

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह