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आँच - 1- अथ जिज्ञासा !

आँच

अठारह सौ सत्तावन के संघर्ष की पृष्ठभूमि को उकेरता

उपन्यास

यह उपन्यास ?

इक्कीसवीं सदीं का दूसरा दशक। उदारीकरण के बढ़ते क़दम। भारतीय ही नहीं सम्पूर्ण एशियाई बाज़ारों को आच्छादित करने की पूरी कोशिश। खुदरा बाज़ार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खोलने का दबाव। भारत की केन्द्रीय सरकार असमंजस में। अमीरी और गरीबी की बढ़ती खाई। आर्थिक विकास दर का बढ़ाव रुका। विकास के पाश्चात्य माडल पर प्रश्न उठे। गठबन्धन सरकारें अपने को बचाने में ही व्यस्त, कड़े फैसले लेने में असमर्थ। ‘माल’ उच्च और मध्यमवर्ग को अपने कब्जे़ में करते हुए। अलग अलग वर्गों के लिए अलग अलग बाज़ारें। सरकारों पर विकसित देशों और अन्तरराष्ट्रीय संगठनों का दबाव। भारत के भविष्य की दिशा क्या होगी? क्या कोई विकल्प बन पाएगा ? क्या हम इतिहास से भी कुछ सीख सकते हैं? इतिहास को पंचम वेद और तीसरी आँख भी कहा गया है पर ऐतिहासिक उपन्यासों को इतिहास का शत्रु तक कह दिया गया। सचाई तो यह है कि ऐतिहासिक उपन्यासों ने आत्म पहचान के संघर्ष को आगे बढ़ाया, उसे गति दी। मैंने अपने उपन्यासों में ऐतिहासिक तथ्यों को नकारने की कोशिश नहीं की। हमेशा यह प्रयास रहा कि तथ्यों से बिना छेड़छाड किए एक जीवन्त कथा निर्मित की जाए। इसीलिए मेरे उपन्यासों में इतिहास विरोघ का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इतिहास में प्राण डालने की ही कोशिश की गई है।

अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में जो कुछ किया उसके विरोध में ही अठारह सौ सत्तावन का विद्रोह उभरा। कम्पनी ने भारतीय बिखराव का लाभ उठाया। अपनी रणनीति से विभिन्न सरकारों को परास्त करने की योजनाएँ बनाईं। आज भी कम्पनियाँ राजनीतिक कमज़ोरियों को भुनाती हैं। क्या अठारह सौ सत्तावन के कथा विमर्श से हम कुछ ग्रहण कर सकते हैं? इस संघर्ष की भी बहुविध व्याख्याएँ विभिन्न कोणों से हुई हैं।

पर अठारह सौ सत्तावन में जो आग जली उसकी आँच से ब्रिटिश सत्ता उन्नीस सौ सैंतालीस तक आक्रान्त रही। उस आँच ने ही अनेक प्रशासकीय निर्णयों को बदला। ब्रिटिश सत्ता जब पूरी उफ़ान पर थी तब भी उसको इस विद्रोह की आँच लगती रही। क्या इस आँच को हम भी महसूस करते हैं? इस विद्रोह में चेतना के विकास, आम जन के उभार एवं आज़ादी के तड़प की आँच साफ दिखती है। इस आँच को आप भी अनुभव करें इसी आकांक्षा के साथ यह कथा आपको सौंप रहा हूँ।

14 सितम्बर, 2012

डॉ. सूर्यपाल सिंह

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अध्याय एक

अथ जिज्ञासा !

‘नहीं माँ, मैं नीबू का शर्बत नहीं पिऊँगा?’‘क्यों बेटा, नीबू का शर्बत पेप्सी वगै़रह से बहुत अच्छा है।’ अनु समझाती रही। ‘मैं नहीं मानता माँ। तुम यही कहती हो पर टी वी में तो यह कभी नहीं आता। उसमें तो बड़े लोगों को पेप्सी पीते ही दिखाया जाता है।...... कोई नीबू के शर्बत का नाम नहीं लेता।.... मैं पेप्सी ही पिऊँगा माँ।....... तुम न लाना चाहो तो मैं ले आऊँगा। हमारे सभी साथियों के घर पेप्सी आती है।.... वे सब खूब पीते हैं।.... उनकी माँएँ तो उन्हें नीबू का शर्बत नहीं देतीं।.... हर गली मुहल्ले में पेप्सी की दूकानें हैं।.... आखिर क्यों बेचते हैं लोग?....... आज तो मैं शर्बत पी ले रहा हूँ, आगे नहीं पिऊँगा।’ कहते हुए अक्षर खेलने निकल गया।

अनु कुछ परेशान सी हुई। बच्चे को कैसे समझाए? वह रोज ही नीबू का शर्बत नहीं देती। सौंफ, बेदाना, लीची, सन्तरा, बेल का शर्बत भी बना कर देती है। पर बच्चे की एक ही रट,‘ हमें पेप्सी चाहिए।’

वह सोचने लगी। बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बाध्य कर रही हैं कि हम उनका उत्पाद खरीदें। इन कम्पनियों के पास अथाह पैसा है। जनता की जेब से पैसे निकालने में माहिर हैं। मानक उत्पाद का बहाना लेकर ये हमारी रुचियों को प्रभावित करती हैं। हमारे देशी उत्पाद से इनका उत्पाद किस अर्थ में बेहतर है, यह भी तो पता नहीं। कौन सा रसायन ये अपने उत्पाद में मिलाते हैं? वह मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए कितना लाभकर है, यह भी तो कोई नहीं बताता। विज्ञापन के सहारे हर घर की रुचियाँ बदली जा रही हैं।

समझाया यही जाता है कि मानक उत्पाद का ही प्रयोग करना चाहिए। फिर ये कम्पनियाँ मानक उत्पाद के रूप में अपने उत्पाद को परोसती हैं। कैसे बचेगा कोई घर? जो चीज़ें आसानी से घरों में बन सकती हैं, उनके लिए भी कम्पनियों का उत्पाद। मानक उत्पाद लोगों को आकर्षित करता है। विज्ञापन में कितना सच है इसे कौन बताए? सरकारें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पीछे पीछे भागने लगी हैं। विज्ञापनों पर इन्हीं का कब्ज़ा है। लोगों को बहकाती हैं ये। पर इनके सामने खड़ा होना भी आसान नहीं। झूठ को सच बनाने में कितनी देर लगती है? बच्चे को कैसे समझाऊँ मैं?.........कम्पनियों में भी आपसी होड़ चलती है। राष्ट्रीयता भी इन से प्रभावित हो रही है। एक कम्पनी सैकड़ों देशों में अपना काम फैलाती है। क्या इनका उद्देश्य आम जन का कल्याण है? इनका उद्देश्य तो पैसा कमाना है। इस कमाई में कुछ थोड़े लोगों को काम देना ज़रूरी हो जाता है। ये कोई जनसेवी संस्थाएँ नहीं हैं। अब तो जनसेवी संस्थाएँ भी पैसा कमाने का माध्यम बनती जा रही हैं। समाज का रुख़ कैसे बदलेगा? कल अक्षर फिर पेप्सी की माँग करेगा। उसको समझाने में मुझे कितनी दिक्क़त हो रही है। अभी कल ही अमेरिका के राष्ट्रपति ने कहा था कि भारत को खुदरा बाज़ार भी कम्पनियों के लिए खोल देना चाहिए। उदारीकरण के इस परिवेश में ‘माल’ खुल ही गए हैं। हमारा विकास का माडल क्या सही दिशा पकड़ रहा है? जो सम्पन्न हैं वे तो दुनिया में कहीं भी रोटी पा सकते हैं। पर जो अधिक समर्थ नहीं हैं, उनका क्या होगा? वे अपने देश में भी क्या रोज़गार पा सकेंगे ?

सुनने में आया है कि कम्पनियाँ खेती करना चाहती हैं। वे बताती हैं कि हिन्दुस्तान के किसान स्मार्ट खेती-अच्छी खेती नहीं कर पा रहे हैं। वे चाहते हैं कि यहाँ के किसान अपने खेत उन्हें एक लम्बी अवधि के ठेके पर दे दें। वे अच्छी खेती करेंगी। दुनिया में अन्न का संकट नहीं रहेगा। पर किसान के बेटे क्या करेंगे? कम्पनियाँ मशीनों से काम करेंगी। कम से कम मानवशक्ति का उपयोग करेंगी। किसानों के बेटे भी निठल्ले घूमेंगे, बेरोज़गार होकर। सरकारें कहने भी लगी हैं रोज़गार देना हमारा काम नहीं है। रोज़गार सृजन के लिए भी अवस्थापना सुविधाओं की ज़रूरत होती है। युवओं को सही प्रशिक्षण देना होता है। बच्चे शून्य में रोज़़गार की तलाश नहीं कर सकते। सरकार तो अब प्रशासन और न्याय तक ही अपने को सीमित रखना चाहती है। देश का सारा काम इन्हीं कम्पनियों को देकर लोग निश्चिंत हो जाएँगें तभी तो देश के राजनेता एवं प्रशासक कम्पनियों के पीछे-पीछे भागते हैं। राष्ट्रीयता का क्षरण हो ही रहा है। नई पीढ़ी वैश्विक होगी। उसे किसी देश से बहुत कुछ लेना देना नहीं होगा। आज यहाँ, कल वहाँ ! कभी दिल्ली, कभी मास्को, कभी टोकियो, कभी लंदन, कभी वाशिंगटन ! आखि़र विश्व एक गाँव हो गया है!

प्रचारित किया जा रहा है कि जो वैश्विक या विश्वस्तर का नहीं है वह पिछड़ा है। लोग विश्वस्तर का उत्पाद उपयोग में लाते हैं, देशी उत्पादों को घटिया बताते हैं। छिः छिः ये पिछड़े लोग.... इनकी भाषा, संस्कृति, रहन-सहन सब कुछ स्तरहीन है। इनके साथ रहना भी मुश्किल है। यह तो कहो कम्पनियाँ इन पर दया करती हैं। इनके लिए दो रुपये का बिस्कुट उपलब्ध कराती हैं जिससे ये इतने कम पैसे में जलपान कर सकें। इतनी दया क्या कम है? अनु ने देशी उत्पादों पर नज़र दौड़ाई। पचास पैसे में पच्चीस ग्राम गुड़ मिल सकता है पर गुड़ कौन बेचे? चींटा बटोरे ! कौन खाए उसे और पिछड़ जाए। कोई भी पिछड़ना नहीं चाहता।

किसानों से दस रूपये किलो मक्का खरीदकर तीन सौ रुपये किलो कार्न फ्लेक्स बेचती हैं कम्पनियाँ। जिनके पास कुछ पैसा हो गया है वे मक्के का चावल या आटा नहीं खरीदते, कार्न फ्लेक्स खरीदते हैं। मक्के का चावल दूध में पकाकर स्वास्थ्यप्रद जलपान बनता है पर कौन इसे खाकर पिछड़ जाने का जोखिम उठाए। पिछड़ना अपराध है.....आगे बढ़ना ही लक्ष्य है......आगे बढ़ो। बिना कार्न फ्लेक्स खाए कैसे कोई आगे बढ़ सकता है? दूसरे दिन वही रट, ‘मुझे पेप्सी चाहिए।’ अनु ने आम का रस डालकर शर्बत बनाया है- स्वादिष्ट, मीठा। अक्षर ने कहा भी, ‘बहुत अच्छा है।’ पर उसे अपने सहपाठियों की बराबरी करना है। साथी उसे चिढ़ाते हैं- इसके घर पेप्सी नहीं आती। कितने पिछड़े हैं ये लोग। बच्चे के मन में बैठा दिया गया है कि जिनके घर में पेप्सी नहीं आती, वे पिछड़े लोग हैं।

‘माँ वे सब मुझे फिर चिढ़ाएँगे।’

‘क्यों? तुम उन्हें बताओ कि मैं अधिक स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्यप्रद शर्बत पीता हूँ। कोई पेप्सी पीने से ही आगे नहीं हो जाता।’

‘लेकिन मैं अकेला पड़ जाता हूँ माँ। उन सब के घर पेप्सी आती है। वे कहते हैं कि पेप्सी दुनिया भर में लोगों की पसन्द का पेय है।’

‘मैं तुम्हारे लिए पेप्सी लाऊँगी सिर्फ इसलिए कि तुम उसे भी चख कर देखो।’

‘मेरी अच्छी माँ !’ कहकर अक्षर माँ से लिपट गया।

‘पर बेटा, तुम्हें यह जानना चाहिए कि तुम्हारे लिए फ़ायदेमंद क्या है? और लोग पीते हैं इसलिए मुझे भी पीना चाहिए, इस तरह मत सोचो। बहुत लोग तो गाँजा, भाँग, शराब सब कुछ पीते हैं। क्या इसीलिए हम पीना शुरू कर दें? तुम्हें अपने विवेक से काम लेना चाहिए बेटा।’

‘मेरी अच्छी माँ।’ कहकर अक्षर फिर खेलने निकल गया।

‘कल मैं पेप्सी बच्चे को चखाऊँगी। मैं कोशिश करूँगी कि वह विवेकसम्मत निर्णय ले।’ सोचते-विचारते अनु अपना काम करती रही। अक्षर खेलकर लौटा। गर्मी का मौसम। नहाया और बनियान नेकर पहनकर पढ़ने बैठ गया। बीजगणित के प्रश्नों को हल किया। अँग्रेजी और विज्ञान का गृहकार्य पूरा किया। अनु ने रोटी और सब्ज़ी तैयार की। दोनों बैठकर खाने लगे। टी वी खोल दिया। समाचार के पहले पेप्सी का विज्ञापन देखकर अक्षर ने कहा, ‘देख रही हो माँ, पेप्सी का विज्ञापन?’

‘देख रही हूँ बेटे। विज्ञापन में अधिकतर आधा सच कहा जाता है।’

‘क्यों माँ? ऐसा क्यों?’

‘उन्हें अपना उत्पाद बेचना है।’

टी वी पर समाचार वाचक की आवाज़ गूँजी।

मुख्य समाचार-खुदरा बाज़ार के सम्बन्ध में वाणिज्य मन्त्री का बयान…………।

थोड़ी ही देर में वाणिज्य मंत्री यह कहते हुए दिखे कि भारत एक सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र है। खुदरा बाज़ार के सम्बन्ध में वह अपना हित देखकर निर्णय करेगा। कौन सा निवेश कहाँ ज़रूरी है, यह भारत का मसला है। माँ और बेटे दोनों ने समझा कि वाणिज्य मंत्री का यह बयान अमेरिकी राष्ट्रपति के बयान के सन्दर्भ में आया है। माँ सोचने लगी कि क्या भारत अमेरिकी दबाव से उबर पाएगा। बड़ी अमेरिकी कम्पनियाँ भारत के खुदरा बाज़ार पर भी कब्ज़ा करना चाहती हैं। करोड़ों लोग जो खुदरा व्यापार में लगे हुए हैं, उनका क्या होगा? उन्हें रोटी कैसे मिल सकेगी? खुले समाज के पक्षधर उदारीकरण के सम्बन्ध में भारत को धीमा बता रहे हैं। तभी तो प्रधानमंत्री को कम उपलब्धि देने वाला कहा जा रहा है। बहुत सी कम्पनियाँ अपना पैसा समेटने लगी हैं। निर्यात की अपेक्षा आयात बढ़ता जा रहा है। सब कुछ कम्पनियों के लिए खोल दो तभी वे पैसा लगाएँगी अन्यथा अपना लाभ लेकर रातो-रात चम्पत हो जाएँगी। लोग कहते हैं कि यही कम्पनियाँ देश को बना रही हैं। ये वे कम्पनियाँ हैं जिनकी कोई राष्ट्रीय प्रतिबद्धता नहीं। क्या होगा इस देश का? इसी देश का ही क्यों, सभी देशों का? ये महान बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ किसके हित के लिए काम करती हैं?

अनु सोचती जा रही है। दिमाग़ और भी उलझता जा रहा है। सुनती हूँ ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत आई थी। मुग़ल बादशाह जहाँगीर से सिर्फ़ व्यापार की अनुमति माँगी थी। टामस रो ने जहाँगीर की बेटी का इलाज़ किया था। वे खुश हो गए थे और सूरत में कम्पनी को व्यापार करने के लिए गोदाम बनाने की अनुमति दी थी। क्या हुआ उसके बाद?

बच्चे को नींद आने लगी थी। उसे बिस्तर पर लिटा दिया। टीवी बन्द किया। पर अनु का दिमाग़ सोचता रहा। वह भी लेट गई। नींद थोड़ी देर से आई। पर आई तो देखा कि घना जंगल है। उसमें एक बच्चा अपनी प्राण रक्षा के लिए भाग कर घास में छिप जाता है। एक बाघ उसे देख रहा है। उसे दबोचने की नीयत से वह आगे बढ़ता है। इसी बीच हाँके की आवाज़ लगाती, तलवार चमकाती एक महिला झपट कर बच्चे को उठा लेती है। तलवार की चमक और हाँके की आवाज़ से बाघ संभ्रम की स्थिति में आ गया। महिला पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं पड़ी। आवाज़ सुनकर जंगलवासी मशाल, भाला, बल्लम, तीर-धनुष लेकर दौड़ पड़े। एक जंगलवासी ने बाघ पर तीर साधा पर महिला ने रोक दिया। ‘तीर मत चलाओ सिर्फ हाँका लगाओ’, उसने कहा। जंगलवासियों के हाँके से बाघ अपने मांद की ओर निकल गया। जंगलवासी खुशी से नाच उठे। बच्चे को उन्हें देते हुए महिला ने कहा, ‘कितना सुन्दर है यह?’ जंगलवासी उसे लेकर चले गए।

महिला के साहस और उसकी संवेदना से अनु प्रभावित हुई। पूछ बैठी,‘ कौन हैं आप?’ ‘मैं...मैं, दुनिया मुझे हज़रत महल के नाम से जानती है। वैसे मेरे नामों की एक फेहरिस्त है। शुरू में अनाम थी मैं।’

‘अठारह सौ सत्तावन की लड़ाई में आपके बहादुरी की चर्चा सुनी है।’

‘सुना होगा। वह लड़ाई अवाम की लड़ाई थी। मैं तो एक माध्यम थी। हर बच्चा, नौजवान जो भी लड़ा, बहादुर था।’

‘पर उस लड़ाई पर अनेक सवाल भी उठ रहे हैं।’

हज़रत महल हँस पड़ी। ‘यही कहा जा रहा होगा कि बाग़ी जीत जाते तो.? यह ‘तो’ खुद सवालों की पिटारी है। पर अनु जी, पाकिस्तान हमने तो नहीं बनाया। सवाल बहुत थे पर हम उनका जवाब भी ढूँढ़ रहे थे। अँग्रेजियत ही आधुनिकता है यह सोच तब भी सही नहीं थी, आज भी नहीं है। इस लड़ाई को अवाम ने लड़ा था। क्या उसकी साझेदारी के बिना हुकूमत बन सकती थी? हम एक आज़ाद वतन, नया वतन बनाने का सपना देख रहे थे। अनु जी! हारे हुए लोग भी सपना देखते हैं। इस लड़ाई ने अवाम को हिम्मत बँधाई। वह आज़ादी का सपना देखने लगी। इसी लड़ाई से सपनों के पंख उगे। भले ही सपनों को पूरा होने में नब्बे वर्ष लग गए। इस लड़ाई की आँच हमेशा ब्रिटिश हुकूमत का पीछा करती रही।

आप एक बार उन दृश्यों से गुज़र तो जाइए। सुनी सुनाई बातों पर राय कायम करना ठीक नहीं होता। किताबों में सचाई बयां करने के लिए कोई कहानी का सहारा लिया जाता है। ‘आँच’ से शायद कुछ जिज्ञासाओं का जवाब मिल ही जाए। समय नए नए सवाल खड़ा करता रहता है। हम सभी जवाब ढूँढ़ते हैं। अगर जिज्ञासाएँ रह जाती हैं तो हम मिलकर जवाब ढूँढ़ेंगे। अच्छा, अब मैं चलती हूँ। ख़ुदा हाफ़िज़…….।’

अनु की आँख खुली और अन्तिम दृश्य एक बार पुनः कौंध गया।