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स्त्री का सृजन

ईश्वर ने स्त्री का सृजन किया,
देवी स्वरूप में पूजे जाने के लिए?
ममता का अमृत बरसाने के लिए?
नहीं!
औरत अस्तित्व में आई
उसके पीछे भी ईश्वर रूपी पुरुष
का अपना स्वांग था।

पुरुष का पौरुष
किस काम का
अगर स्त्री ना होती उनसे प्रभावित होने के लिए।
पुरुष अपनी उपलब्धियों के
ढिंढोरे किसके सामने पीटते
अगर स्त्री ना होती उनसे विस्मित होने के लिए।
पुरुष का अहम
इतना विशाल न होता
अगर स्त्री ना होती रसूख जताने के लिए।

रामायण में राम राजा कहलाए
लेकिन सीता मां ही रह गईं।
देवी स्वरूप होते हुए भी
पुरुष प्रधान समाज के
हर लांछन मुंह बंद कर सह गईं।

क्यों राम पर लांछन नहीं लगा
शूर्पनखा के समक्ष आने का
शिला रूपी अहिल्या
को अपने चरणों से तारने का?
क्यों अग्निपरीक्षा का ताप था
केवल मां सीता को सहना पड़ा?
एक नहीं कई बार माता सीता को था
अपमानित होना पड़ा।

तब क्यों ईश्वर स्वरूप राम ने
सीता का साथ न दिया?
पत्नी की पवित्रता के मान
का मान ना किया?

क्यों सती को सती होना पड़ा?
महादेव को क्यों
तांडव था करना पड़ा?
वो तो हैं ना सर्वज्ञ
क्यों उन्होंने नहीं रोका
सती को राम की परीक्षा
लेने जाने से?

क्योंकि अगर परीक्षा ना होती
तो कैसे देवों के देव
अपने प्रेम का त्याग दर्शा पाते!
कैसे सती के वियोग में
अपने तप को
इंगित कर पाते।

राक्षसों को छलनें के लिए
अनेकों अनेक बार
स्त्री रूप धरा ईश्वर रूपी पुरुष ने!
मन मोहने में स्वयं पारंगित होते हुए भी
मोहिनी का सृजन क्यों किया ईश्वर रूपी पुरुष ने?
हर कलाओं से विभूषित होते हुए भी
स्वांग रचने का गौरव ही क्यों दिया स्त्री को
ईश्वर रूपी पुरुष ने?

ऐसे कई प्रश्नों पर मन
अटक कर रह जाता है।
औरत की दशा सदैव ही ऐसी ही क्यों बनी रही
इसके आगे कुछ सोच नहीं पाता है ।

त्याग,सहिष्णुता की मूर्ति
के रूप में औरत को
ईश्वर रूपी पुरुष ने समाज में स्थापित किया ।
किंतु,
कूटनीति का ज्ञान देते देते
ईश्वर रूपी पुरुष को भी
बोध हो चला था कि अब
शक्तियों को हस्तांतरित करना होगा
जो स्वयं की प्रभुता बनाए रखनी है तो
समीकरण का आवरण भी बनाए रखना होगा।

तथैव
शक्ति के कई रूपों का
उस ईश्वर रूपी पुरुष ने निर्माण किया।
कहीं शक्ति की महिमा
समानार्थ ना हो जाए
अतैव
शक्ति रूपी हर स्त्री अस्तित्व में क्यों आई
इसके पीछे भी युक्ति का निर्माण किया।

कथाएं ऐसी ना जाने कितनी हैं हर काल की
जो स्त्री की व्यथा सुनाती हैं।
रामायण हो या महाभारत,
इसके घटने का कलंक आज भी
स्त्री अपने मस्तक पर सजाती हैं।
ईश्वर रूपी पुरुष की लीलाएं अपरंपार हैं,
ऐसा कहकर उनके चरणों में हम शीश नवाते हैं।
क्यों शक्ति स्वरूपा को ऐसा भाग्य दिया,
ऐसे प्रश्न क्यों अपने ईष्ट से हम नहीं कर पाते हैं?

भाग्य की रेखाओं का है खेल सारा कहकर ,
वो ईश्वर रूपी पुरुष अपना पल्ला झाड़ लेता है।
हाथों में लकीर भी तो उसी ने बनाई है,
इसका अंकुश फिर क्यों वो खुद पर नहीं लगने देता है?