Beete samay ki REKHA - 11 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बीते समय की रेखा - 11

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बीते समय की रेखा - 11

11.
फ़िल्मों को यूं तो मनोरंजन का साधन कहा जाता है और लोग दिल बहलाने के लिए ही फ़िल्म देखने जाते भी हैं लेकिन रेखा के जीवन को एक फ़िल्म ने ही अलग दिशा में मोड़ दिया।
रेखा ने यह फ़िल्म अपने उसी मित्र के साथ देखी थी जिसके साथ बाद में उसका विवाह भी हुआ। ज़ाहिर है कि तब रेखा विश्वविद्यालय में पढ़ रही थी।
फ़िल्म गुलज़ार की थी, नाम था "आंधी"। फ़िल्म की कहानी संक्षेप में कुछ इस तरह थी - नायिका सुचित्रा सेन अपने करियर को लेकर बेहद गंभीर और संजीदा है। उसका प्रेमी संजीव कुमार एक सीधा - सादा युवक है जो हर कदम पर उसका साथ समर्पण के साथ देना चाहता है। लेकिन नायिका की लगातार बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा उन दोनों के बीच की दूरी भी निरंतर बढ़ाती चली जाती है और नायिका को यह अहसास तक नहीं हो पाता कि वो स्वप्न की तितली पकड़ने की ख्वाहिश लिए जीवन से दूर निकल आई है।
रेखा ने इसी फ़िल्म को देखते हुए, सिनेमा घर में ही तत्काल यह फैसला किया कि वह किसी भी करियर के लिए अपने घर- परिवार से कभी दूर नहीं जाएगी और यह फ़ैसला उसने जीवन पर्यंत निभाया भी।
मज़ेदार तथ्य यह है कि विवाह के बाद रेखा और उसके पति फ़िल्में देखते तो खूब थे लेकिन फिल्मों को लेकर उन दोनों की पसंद में ज़मीन- आसमान का अंतर था। रेखा जहां चितचोर, रजनीगंधा, मिली, अंकुर, निशांत जैसी फ़िल्मों के माध्यम से ज़रीना वहाब, विद्या सिन्हा, अमोल पालेकर, शबाना आज़मी, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकारों को पसंद करती थी वहीं उसके पति को रेखा, अमिताभ, हेमा मालिनी, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, मुमताज़, देवानंद और ज़ीनत अमान की फ़िल्मों में आनंद आता था।
ऐसे में वो दोनों साथ में फ़िल्म देखने जाते तो ज़रूर थे पर या तो फ़िल्म में रेखा का समय सिर को सहलाते, उबासियां लेते, आसपास वालों की गतिविधियों पर नज़र रखते हुए बीतता था या फिर उसके पति को कभी टॉयलेट, कभी कोल्डड्रिंक - कॉफी या पॉपकॉर्न लेने बार- बार जाते देखा जाता था।
रेखा के संदर्भ में एक बहुत अहम बात यह थी कि आख़िर खूब पढ़ी- लिखी, अच्छा कमाने वाली, रौब- रुतबे, ओहदे में शानदार नौकरी करने वाली लड़कियों के जीवनसाथी कैसे हों, कौन हों?
यह सवाल हमारे पूरे समाज के लिए भी एक महत्वपूर्ण विचार विमर्श का बिंदु है।
सदियों से यह सिलसिला चलता आ रहा था कि पुरुष पर कमाने और घर के फ़ैसलों में नेतृत्व करने की ज़िम्मेदारी हो और औरत पर घर संभालने की। ऐसे में औरत के ज़्यादा पढ़े - लिखे होने, नौकरी करने के योग्य होने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी। 
लेकिन अब नए ज़माने में औरत ने पुरुष के लिए सुरक्षित समझे जाने वाले काम दक्षता से करने शुरू कर दिए। तो क्या अब भी यह ज़रूरी है कि अच्छी पढ़ी - लिखी लड़की का पति उससे भी ज़्यादा पढ़ा- लिखा हो, उससे भी ज़्यादा कमाने वाला हो?
यदि ऐसा हुआ तो फ़िर क्या फ़ायदा? घर- परिवार में पुरुष नंबर एक और औरत दोयम दर्जे पर ही बनी रहेगी।
अतः ज़रूरी है कि अब जहां औरत नेतृत्व करने, कमाने की भूमिका में आए उसे पुरुष को सहारा देने में सक्षम भी बनना चाहिए। कुछ महिलाएं अब भी ऐसा ही समझती हैं कि घर और संतान की परवरिश की तमाम आर्थिक ज़िम्मेदारी पुरुष की ही है, उनकी कमाई तो उनके जेबखर्च, श्रृंगार खर्च, आज़ादी और गुलछर्रे उड़ाने भर के लिए ही है। यदि ऐसा ही हुआ तो स्त्री शिक्षा या स्त्री सशक्तिकरण का तनिक भी लाभ समाज को नहीं होने वाला। वर्तमान पारिवारिक अराजकता और सामाजिक बिखराव का कारण भी यही है।
रेखा कहती थी कि औरत को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि समाज में बदलाव की यह आकांक्षा औरत की ओर से उठी थी, पुरुष की ओर से नहीं। इसलिए परिवर्तन के परिणामों की ज़िम्मेदारी भी पुरुष की कम और स्त्री की अधिक है। 
हां, इतना ज़रूर है कि यदि स्त्री अपने आप को पढ़ने, कमाने में अधिक सक्षम बनाती है तो पुरुष से उसके अवांछित, अनैतिक अधिकारों को छीन लेने का उसे पूरा हक है। पुरुष को भी उसे प्रॉपर स्पेस देनी होगी और उसकी सत्ता का सम्मान करना होगा। यही वस्तुतः महिला सशक्तिकरण है। यह सामाजिक स्वीकार्यता के लिए अपेक्षित भी है।
रेखा ने तमाम जीवन इस तथ्य को मन से न केवल स्वीकार किया बल्कि अपने विद्यार्थियों के विशाल समुदाय में इसके प्रसार के लिए भी अनवरत काम किया। 
प्रायः लोगों को शिकायत होती है कि जिस तरह सौंदर्य प्रतियोगिता में शामिल होने वाली युवतियां यह दावा करती हैं कि वो जीतने के बाद समाज के हित में काम करेंगी किंतु जीतने के बाद वो मॉडलिंग या फ़िल्मों में चली जाती हैं ठीक उसी तरह शिक्षा के शिखर पर पहुंची स्त्री से भी समाज यह अपेक्षा करता है कि अब वह आने वाली पीढ़ियों के लिए सुगम राह बनाने के कार्य में अपनी क्षमता का उपयोग करें। यदि वो अपनी बेहतरी से केवल अपने जीवन को ही ऐश्वर्यशाली बनाने की कोशिश करें तो शिक्षा का भी कोई लाभ नहीं होगा।
रेखा ने इस तथ्य को हमेशा समक्ष रखा।
आपको याद होगा, पिछली शताब्दी में एक समय ऐसा भी था जब लड़के और लड़की का अस्तित्व एक दूसरे के लिए हानिकारक समझ कर बरता जाता था।
यदि लड़का और लड़की कहीं भूल से भी एक साथ दिखाई दे जाएं तो माना जाता था कि पाप यही है। किसी भी तरह उन्हें एक दूसरे से दूर करना या मिलने से रोकना पुण्य समझा जाता था। उनके परिजन ही नहीं, बल्कि अजनबी ऐरे - ग़ैरे भी ऐसी कोशिश करते थे कि किसी भी तरह उन्हें मिलने न दें। कोई भी जाकर उनके माता - पिता से उनकी शिकायत कर सकता था और ऐसे में उसे बच्चों का शुभचिंतक तथा ख़ुद बच्चों को अपराधी माना जाता था और उनकी एक नहीं सुनी जाती थी।
लड़के और लड़की के लिए अलग - अलग स्कूल, कॉलेज, बस- ट्रेन में बैठने की सुविधा आदि सब सुरक्षित मान कर अलग- अलग ही होते थे।
केवल विवाह ही किसी लड़के को लड़की से मिलाता था यद्यपि वो चौदह- पंद्रह साल की उम्र में ही हो जाता था। कभी - कभी इससे भी जल्दी। और विवाह भी कई बार लड़का- लड़की को एक दूसरे को दिखाए बिना तय कर दिया जाता था। कन्या का विवाह कर के माता - पिता अपने मन में समझा करते थे कि उन्होंने अब तक मोम को ज्वाला से बचाए रखा। अब कन्यादान करके ही वो गंगा नहाए अर्थात उनका जीवन सार्थक हुआ।
लेकिन शिक्षा के साथ लोगों को धीरे - धीरे समझ में आया कि लड़का और लड़की केवल संतान उत्पन्न करने वाली ज्वलनशील मशीनें ही नहीं हैं बल्कि लड़के और लड़की के सहअस्तित्व से जीवन को और भी कुछ लाभ होते हैं। मसलन बल और धैर्य, आक्रामकता और सहनशीलता, उन्माद और समर्पण यदि एक साथ एक छत के नीचे रहें तो जीवन अन्यथा भी सुगम हो जाता है। और तब इस सोच के साथ आज का आधुनिक जीवन आया।
वैज्ञानिकों और विचारकों ने उन अपघातों -हादसों का तोड़ भी निकाला जो उन दोनों के साथ रहने से संभावित थे। यदि उनका आपस में विवाह नहीं हुआ है तो वो गर्भाधान को कैसे रोकें और अवांछित मातृत्व को कैसे टालें, आदि - आदि।
रेखा और उसकी जैसी सोच वाली अन्य युवतियों ने आउट ऑफ द वे जाकर लड़कियों के लिए निरापद - सुरक्षित रास्ते बनाए। 
रेखा का मानना था कि लड़का और लड़की को एक दूसरे के लिए खतरा मान कर एक दूसरे से बचाए रखने की जगह ज़रूरी यह है कि उन्हें एक दूसरे का पूरक बना कर मित्रों की तरह साथ रहना सिखाया जाए। 
रेखा की यह सोच भी उसके विभाग में दिखाई देती थी जहां पुरुष महिला अनुपात लगभग बराबर होता। जबकि बनस्थली विद्यापीठ केवल महिलाओं की संस्था होने के कारण वहां यह प्रयास रहता था कि विभिन्न पदों पर होने वाले पदों पर महिलाओं की नियुक्ति को प्राथमिकता मिले।
बड़े पदों पर होने के कारण रेखा को विभिन्न चयन समितियों में कर्मचारियों के सिलेक्शन के लिए बैठना पड़ता था। केवल अपनी संस्था ही नहीं बल्कि वह अन्य कई संस्थानों में भी चयन के विशेषज्ञ के रूप में जाती रहती थी। वो अन्य सभी स्थानों पर भी अपनी सोच का आधार व अवधारणा लोगों को समझाने का प्रयास करती और अधिकतर सफ़ल ही रहती थी।
वह कई बार परिहास में कहा भी करती थी कि हम चुन चुन कर केवल अपने लिए उपयोगी लोगों को ही लेते रहेंगे तो अन्य लोग बेचारे कहां जाएंगे? चुनौती तो यह है कि हम योग्य होने पर किसी को चुन लें और फ़िर उन्हें अपने अनुसार कार्य करने वाला बनाएं।
यही दृष्टिकोण वह संस्थान में प्रवेश के लिए आने वाले विद्यार्थियों के लिए भी रखती थी। वह कहती थी कि कुछ बड़े कॉलेज या विश्वविद्यालय बहुत अधिक अंक लाने वाले विद्यार्थियों को ही ऊंची कट ऑफ रख कर प्रवेश देते हैं, फ़िर प्रचार करते हैं कि हमारा रिज़ल्ट बहुत अच्छा रहा। वह तो रहेगा ही, उसमें आपकी क्या तारीफ़? तारीफ़ तो तब है जब आप पहले आओ पहले पाओ के आधार पर सभी विद्यार्थियों को प्रवेश दें और फ़िर बेहतरीन ग्रूमिंग से अपना अच्छा परिणाम निकाल कर दिखाएं।
रेखा की यही सोच उसे दूर - दूर तक विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय बनाती थी। विद्यार्थी और उनके अभिभावक इस सिद्धांत से कृतज्ञ भी होते थे।
रेखा केवल अकादमिक ही नहीं, बल्कि अन्य विशिष्ट, प्रशासनिक परीक्षाओं में भी परीक्षक बनाई जाती थी और वह वहां भी पूरी प्रतिबद्धता, निष्पक्षता और नैतिकता से अपने कार्य को अंजाम देती थी।
कितने ही बड़े- बड़े पदों पर कार्य कर रहे उसके विद्यार्थी आज भी कहते हैं कि रेखा जी ने हमें परीक्षाएं पास करना नहीं, बल्कि पढ़- लिख कर एक नेतृत्वकारी भूमिका के लिए तैयार किया है।
"पढ़ाई कैसे करें" का जवाब तो दुनिया भर के शिक्षक आसानी से देते हैं लेकिन कतिपय गिने चुने शिक्षक ही ऐसे होते हैं जो आपको "पढ़ाई क्यों करें" का उत्तर भी सिखाते हैं।
ऐसी ही शिक्षक बनना रेखा को पसंद रहा।
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