Antar Nihit 19 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | अन्तर्निहित - 19

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अन्तर्निहित - 19

[19]

संध्या हो गई। शैल, सारा, वत्सर और येला एक कक्ष में जमा हो गए। शैल ने सारा का स्वागत स्मित के साथ किया। उसे देखकर सारा को अच्छा लगा। 

‘क्या शैल ने मुखे क्षमा कर दिया? अथवा?’ स्मित को देखकर सारा ने विचार किया। 

सारा आगे विचार न कर सकी। समय की प्रतीक्षा करने लगी। 

“येला, चलो उस शिल्प को दिखाओ।” शैल ने कहा।

“आओ मेरे साथ।” येला सभी को लेकर उस शिल्प के पास आ गई।

शिल्प को देखकर शैल तथा सारा एक साथ बोल पड़े, “अद्भुत।” दोनों उसे देखते ही रह गए। 

“यह देखकर विश्वास ही नहीं हो रहा है।” सारा ने कहा। 

“किन्तु यह सत्य है।” शैल ने कहा।

“कौन है यह कलाकार? मुझे उससे मिलना है।”

“क्यों मिलना है?” 

“उससे मिलकर उस देह के विषय में सब कुछ जान सकेंगे।” 

“आप तो केवल इस शिल्प को देखकर ही उस देह का रहस्य खोज लेना चाहती थी। लो वह शिल्प आपके सम्मुख है। कहो, क्या रहस्य खोजा है उस घटना का?”

“केवल शिल्प को देखकर कोई रहस्य कैसे खुलेगा?”

“क्यों नहीं खुलेगा? इसी लिए तो आप यहाँ आई हो।”

“मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं मेरे कार्य के लिए लज्जित हूँ। अब और कितना लज्जित करोगे?” 

शैल ने कोई उत्तर नहीं दिया। 

“जब आपने स्मित दिया तो मुझे लगा कि आपने मुझे क्षमा कर दिया है। वह मेरा भ्रम था।”

“किसी को क्षमा करने के लिए मनुष्य को कडा कष्ट सहन पड़ता है। मैंने उसे सहा है।”

“आपके उस कष्ट का कारण मैं हूँ। मुझे क्षमा कर दो, शैल सर।” सारा ने हाथ जोड़ दिए। 

“आप हमारे अतिथि हो। हाथ जोड़ते हुए अतिथि अच्छे नहीं लगते।” शैल ने स्मित दिया। 

“सारा जी। सर ने तुम्हें क्षमा कर दिया है।” येला ने सारा को आश्वस्त करते हुए कहा, “चलिए हम आपको इस शिल्प के रचयिता से मिलवाते हैं।”  

शैल तथा येला ने सारा की आँखों में उत्साह देखा। 

“इस शिल्प के रचनाकार है वत्सर। इनसे मिलिये सारा जी।” येला ने वत्सर की तरफ संकेत किया। 

“आप हैं?”

“जी।” वत्सर ने कहा। 

“आप तो सुबह से हमारे साथ हो किन्तु आपने एक भी शब्द नहीं कहा।”

“उसकी आवश्यकता नहीं हुई।”

“अब तो बोलोगे ना?”

“आवश्यकता होगी तो अवश्य।”

“सर्वप्रथम तो इस अद्भुत शिल्प के लिए अभिनंदन।”

“धन्यवाद।”

“क्या आप जानते हैं कि आपका इस शिल्प और दोनों देशों की सीमा पर मिले देह में समानता है।”

“हाँ।”

“केवल समानता ही नहीं है, बल्कि वही हुआ है।”

“जी।”

“तो आपने किसकी हत्या की है? कहाँ की है? कैसे की है? क्यों की है?”

“मैंने कुछ नहीं किया है?”

“तो यह शिल्प का क्या अर्थ है?”

“यह शिल्प आठ वर्ष पूर्व बनाया गया है।”

“तो आठ वर्ष पूर्व इसकी हत्या की योजना बनाई थी और अब उस पर काम भी कर डाला?”

“मैं कह चुका हूँ कि मैंने कोई हत्या नहीं की है।”

“तो यह शिल्प क्यों बनाया?”

“हाँ, सारा जी। मैंने भी यही प्रश्न पूछा था। किन्तु उसका उत्तर लेना मैं भूल गया।” शैल ने कहा।

“आपने केवल दो संभावनाओं की बात की थी। आपने कभी इस शिल्प की रचना का कारण नहीं पूछा था।”

“चलो अब पुछ लिया। सारा जी ने भी यही पूछा है। अब कहो कि इस शिल्प की रचना का रहस्य क्या है?”

“यदि आप दोनों मुझे किसी की हत्या का दोषी मानते हो तो मेरे पास कोई उत्तर नहीं है।”

“नहीं नहीं। मैं आपको दोषी नहीं मानती।”

“और शैल सर, आप?”

“अभी तो नहीं मान रहा। किन्तु संदेह से मुक्त भी नहीं हो तुम वत्सर।” वत्सर के मुख के भाव बदल गए। 

“वत्सर, संदेह करना पुलिस का काम है। तुम उससे विचलित हुए बिना जो भी कहना हो कहो। मैं जानती हूँ कि  तुम निर्दोष हो।” येला ने वत्सर को शांत करते हुए कहा।  

“हाँ वत्सर। निर्भीक होकर कहो।” सारा ने भी कहा।  

वत्सर स्वस्थ हुआ। 

“किसी सर्जन की तीसरी संभावना भी होती है। कभी कभी चौथी भी हो सकती है।” वत्सर ने शैल की तरफ देखा।  

शैल उस दृष्टि का मर्म समझ गया। उसने स्मित दिया, मौन रहा। 

“नियति जब किसी को कोई कार्य हेतु चुनती है तो उसे किसी न किसी रूप में संकेत देती है। वह संकेत कभी स्पष्ट होता है तो कभी अस्पष्ट।

मुझे अस्पष्ट रूप से नियति संकेत देती रही किन्तु मैं उसे समझ नहीं सका। 

एक दिन मैं शिल्प करते करते थक गया तो मुझे वहीं नींद आ गई। नींद के साथ स्वप्न भी आ गया। 

स्वप्न में मैंने एक दृश्य देखा कि किसी नदी के ऊपर तीव्र बहाव में भी एक शव उलटा पड़ा है। उसे देखकर मैं भयभीत हो गया। मेरी नींद खुल गई। तब रात्री का तीसरा प्रहर बीत चुका था। स्वप्न के कारण मैं बाकी की रात सो नहीं सका। मैंने शिल्प बनाने में मन लगाया किन्तु मैं उस पर ध्यान नहीं दे सका। बड़ी कठिनाई से रात्री व्यतीत की मैंने। जब प्रभात हुआ, प्रकाश हुआ तो मन शांत हुआ। स्वप्न के प्रभाव से मुक्त हुआ। 

शिल्प बनाता रहा। दो चार दिन बीत गए। वह स्वप्न नहीं आया। 

किन्तु प्राय: सात आठ दिन के बाद वही स्वप्न पुन: आया। मैंने उसकी अवगणना की। किन्तु उस स्वप्न ने मेरी अवगणना नहीं की। वह अविरत रूप से प्रत्येक रात्री आता रहा। अब मैं उस स्वप्न से भयभीत नहीं था।

एक रात्री वही स्वप्न में एक बात हुई।” अविरत बोलते हुए वत्सर कुछ समय के लिए रुका। शैल, सारा तथा येला बिना कुछ कहे वत्सर को सुन रहे थे। वत्सर के आगे बोलने की प्रतीक्षा करने लगे। 

वत्सर ने गगन की तरफ देखा। जैसे वहाँ कुछ हो और वह उसे देखता हो, देखते देखते बोला, “उस रात्री स्वप्न में किसी ने मुझे कहा कि वह देह जिस नदी पर है वह सतलज नदी है।”

“किसने कहा था?”

“कोई था। किन्तु कौन था वह नहीं जान सका। उसने अपने आप को किसी आवरण से आवृत किया हुआ था।”

“क्या वह स्वर किसी पुरुष का था? किसी स्त्री का था?”

“उस समय नदी के बहाव की ध्वनि में मैं स्पष्ट रूप से उस स्वर को पहचान नहीं सका।”

“न मुख देखा, न स्वर पहचाना। मुझे तो लगता है कि वत्सर कोई कथा सुना रहा है।” सारा ने धैर्य खोते हुए कहा। 

“नहीं सारा जी। हम कलाकारों के साथ ऐसा होता है। आप वत्सर का विश्वास करें। वह सत्य कह रहा है।”

“आप भी, येला जी?”

“सारा जी। हम कलाकारों का यह दुर्भाग्य है कि जब हम सत्य कह रहे होते हैं तब भी लोगों को लगता है कि हम कथा कह रहे हैं।”

“किन्तु यह बात तो कथा जैसी ही लग रही है।”

“कभी कभी सत्य कथा से भी अधिक रोचक, अधिक नग्न होता है।”

“यह आप कैसे जानती हैं?”

“क्यों कि मैं भी कलाकार हूँ। और मैं पिछले आठ वर्षों से वत्सर को जानती हूँ।”

“सारा जी। अभी आप पुलिस बनकर नहीं, कला के एक भावक के रूप में बात सुनो। पुलिस बनने के अनेक अवसर हमें मिलेंगे।” शैल ने कहा। सारा ने सम्मति दी।