Khatte Mithe Vyang : 4 books and stories free download online pdf in Hindi

Khatte Mithe Vyang : Chapter 4

खट्टे मीठे व्यंग

(4)

व्यंग संकलन

अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

  • 16. किसकी सुने किसकी न सुनें
  • 17. बाबा ब्लैक शीप
  • 18. कोलाहल और सिक्कों की झंकार
  • 19. भाग खुल गए बड़ा पाँव के
  • 20. बोया पेड़ बबूल का तो ----
  • किस की सुनूं , किस की न सुनूं?

    कई वर्षों से अमरीका में रहने वाले एक मित्र दिल्ली आये तो मैं बड़े गर्व के साथ उन्हें दिल्ली की मेट्रो रेल दिखाने ले गया. लेकिन स्टेशन पर ज़बरदस्त हंगामे का माहौल दिखा. पता चला कि सार्वजनिक चुम्बन पर परम्परावादी लगाम ढीली करवाने का जज्बा लेकर दिल्ली की तेज़ तर्रार युवा पीढ़ी स्टेशन पर खुले आम चुम्बन समारोह मनाने आई थी. उधर भारतीय संस्कृति की रक्षा को प्रतिबद्ध बहुत से खुदाई खिदमतगार इन प्रदर्शनकारियों को पीटकर और उनके कपडे फाड़कर देश की लज्जा ढंकने के उतने ही ज़बरदस्त जज्बे का प्रदर्शन करने आये हुए थे. उनके बीच ‘आपके लिए सदा आपके साथ’ रहने का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस अजीब पसोपेश में लग रही थी. प्रदर्शनकारियों के कपडे फाड़ने में विरोधियों का साथ देती तो आरोप लगता कि जो पहले ही से निर्लज्ज हैं उन्हें और निर्लज्ज बनाने में मदद कर रही है. विरोधियों को रोकती तो प्रदर्शनकारी इसे अपनी मदद समझ कर अपना आभार प्रकट करने के लिए शायद पुलिसवालों को ही चूमने लगते. आखीर नयी पीढी आभार प्रदर्शन और खुशी दोनों ही तो जादू की जफ्फी लेकर और चुम्बन देकर करती है.

    मेरे मित्र थोड़ी देर तक तमाशा देखते रहे. फिर बोले ‘जब बोलीवुडिया फिल्मो में भी चुम्बन को खुली छूट है जिसे लोग आराम से बैठकर देखते हैं तो स्टेशन की आपाधापी में उसे देखने की किसे फुर्सत होगी. फिर इस विशाल गणतंत्र में कुछ लोग अपने विचार और संस्कार दूसरों पर कैसे लाद सकते हैं. यदि भारत इसी राह पर चला तो अगले किसी मोड़ पर जल्द ही उसकी तालिबान से भी मुलाक़ात हो जायेगी.’ मुझे उनकी बातें सही भी लग रही थीं और अपने संस्कारों के कारण थोड़ी अटपटी भी. कल को मेरे बच्चे ऐसे ही प्यार का सार्वजनिक इज़हार कर रहे हों और संयोग से मैं सामने आ पडा तो हम दोनों को कैसा लगेगा.

    मेरे मित्र ने मेरी दुविधा भांप ली. बोले ‘देश भर में स्वच्छता का आन्दोलन छिड़ा हुआ है. लोग खुलेआम शौच न करें इसलिए हर जगह शौचालय बनाये जा रहे हैं. अब यदि परम्परावादी सोच को पिसिंग और किसिंग दोनों में बराबर गन्दगी दिखती है तो सार्वजनिक शौचालयों की तर्ज़ पर सार्वजनिक चुम्बनालय क्यूँ नहीं?.मेट्रो स्टेशन पर समस्या उछाली गयी है उन्ही के परिसरों में समाधान भी दिया जाए. जब शहरों में माचिस की डिब्बियों जैसे घरों में बुजुर्गों के साथ रहने वाले युवाओं को अपने प्रेम का इज़हार करने के लिए कहीं जगह ही न मिले तो खुले मैदान में किस किस को किस से रोका जा सकता है.’ मुझे लगा तर्क दोनों तरफ भारी हैं. किस की सुनूं और किस की न सुनूं.

    बाबा ब्लैकशीप

    बचपन की मासूमियत की एक निशानी ये भी थी कि उधार की भाषा अंग्रेज़ी में नर्सरी राइम्स रट कर सुनाने पर मिलने वाली शाबाशी बेहद प्यारी लगती थी. ये और बात थी कि उन बाल कविताओं का सर पैर कुछ भी समझ में नहीं आता था. उनका अर्थ कभी किसी ने समझाने की कोशिश की ऐसा ध्यान नहीं आता है. बिना अटके पूरी कविता सुना देने पर शाबाशी देना ही काफी था. ऐसी पहली कविता जो मैंने सीखी थी वह थी ‘बाबा ब्लैकशीप हैव यू एनी वूल’. मटक मटक कर इस कविता के शब्द ‘येससर, येससर, थ्री बैग्स फुल’ कह कर सुनाने पर पिताजी की आँखों में गर्व का भाव और माँ के चेहरे पर फ़ैली हुई मुस्कान अभी भी याद है.

    उस कविता के शब्दों में से ‘ब्लैक’, ‘थ्री’ और ‘बैग्स’ शब्द मेरी बोलचाल की भाषा में शामिल हो चुके थे. पर ‘बा’ ‘बा’ क्या है किसी ने न बताया. भेंड के मिमियाने की ध्वनि तो कभी याद ही नहीं आई. मेरा ख्याल था कि वह कविता किसी बाबा जी के विषय में थी. बड़ा हुआ तो पता चला कि ‘ब्लैक शीप’ उस इंसान को भी कहते हैं जिसे समाज एक कलंक के रूप में देखे. ‘बाबा’ और ‘ब्लैक शीप’ में भी कोई आपसी सम्बन्ध हो सकता है तब नहीं पता था. पिछले दिनों लगातार ऐसे बाबा लोग चर्चा में रहे जिनकी सोचता हूँ तो ‘बाबा ब्लैक शीप’ वाली बाल कविता याद आ जाती है.

    एक बाबा हैं जिनके ऊपर बलात्कार का आरोप लगाने वाली महिला ने बाद में जाने किस दबाव में आकर लगाया हुआ आरोप वापस लेने की कोशिश की थी. अदालत ने जब बयान बदलने नहीं दिया तो न जाने किस चमत्कार से वह सपरिवार गायब हो गयी है, वह भी चार चार पुलिसवालों की सुरक्षा से भागकर. एक और बाबा जी को उच्चन्यायालय के आदेशानुसार अदालत में पेश करने में राज्य सरकार को साक्षात कुरुक्षेत्र के युद्ध का दृश्य सजीव करना पड़ा. एक तीसरे बाबा जी हैं जिनके आध्यात्मिक प्रवचनों से प्रभावित होकर उनका शिष्य बनने वालों में से कुछ ने उनके ऊपर ज़बरदस्ती वन्ध्याकरण का अजीबोग़रीब आरोप लगाया है.

    ऐसे बाबाओं के कारनामे सुन कर लगता है कि इनमे सबसे सीधेसादे बाबा वे हैं जिन्हें स्वयं इस भीषण सर्द मौसम में बर्फ के अन्दर जमा दिया गया है. जिन लोगों को मठ की समृद्धि का आगे भी ध्यान रखना है वे बाबाजी को चिरसमाधि में लीन बताते हैं. जीवन और शरीर का अंत तो आम लोगों के लिए है. जैसे ‘बाबा ब्लैक शीप’ वाली बाल कविता सदाजवान है वैसे ही ब्लैक शीप बाबा लोग भी क्यूँ न अमर अविनाशी रहें.

    कोलाहल और सिक्कों की झंकार

    कई बार नए आविष्कार पूंजी की तलाश में दम तोड़ देते हैं. आविष्कारक में अक्सर उद्योगपति की प्रतिभा नहीं होती. पर अपने आविष्कार को बाज़ार में उतरने से रोकने के लिए मोटी रकम पा जाने वाले मेरे एक मित्र बहुत सौभाग्यशाली निकले. उन्हें आविष्कार की प्रेरणा मिली थी एक अनूठी टीवी समाचार चैनेल से जिसे दर्शकों के सर में माइग्रेन का दर्द पैदा करने में महारत हासिल है. जिस तरह दांत में दर्द हो रहा हो तो इंसान की जीभ जाने अनजाने उसे ठेल ठेल कर टीस और बढाने से बाज़ नहीं आती वैसे ही उस सफल चैनेल के दर्शक उस पर बहस के नाम से होने वाली झांव-झांव से झकियाते हुए भी प्राइमटाइम की इंतज़ार में ‘आ बैल मुझे मार’ जपते हैं. उस चिल्ल पों, मारा-मारी, तू-तू मैं-मैं में कौन क्या कह रहा है ये किसी के पल्ले नहीं पड़ता. इस चैनल पर सब एक साथ गरजते हैं, एक साथ बरसते हैं. बोलते सब हैं, सुनता कोई नहीं. सारे बहसी वहशी मालूम होते हैं.

    कभी भूल चूक से किसी की बात बाकियों को सुनाई पड़ने लगे तो एंकर महोदय खुद मैदान में कूद पड़ते हैं. दांत पीसकर, उचक-उचक कर एक दूसरे को धमकाते बहसी उनके सामने भीगी बिल्ली बन जाते हैं. एक पड़ोसी देश के मेहमान वक्ताओं को तो इस चैनेल पर इतनी डांट पिलाई जाती है कि यदि वे टेलीकांफ्रेंसिंग की बजाय सशरीर उपस्थित होते तो शायद उन्हें कान पकड़ कर मुर्गा बन जाने के लिए कहा जाता.

    इसी सब से निबटने के लिए मेरे मित्र ने कानफोडू बहसों के उलझे धागे सुलझानेवाला यंत्र का आविष्कार किया. माइक्रोचिप से बने इस छोटे से यंत्र को हियरिंग एड की तरह कान में घुसाकर सारी चीखती चिल्लाती आवाजें अलग-अलग शान्ति से सुनी जा सकती हैं.

    इस यंत्र के कोमर्शियल प्रोडक्शन के लिए वे बड़े उद्योगियों से पूंजी मिलने की तलाश में थे कि एक दिन उन्हें उसी चैनेल से उस आविष्कार को खरीदने का प्रस्ताव मिला. इस प्रस्ताव में निहित योजना को स्पष्ट करते हुए उनके चहेते एंकर ने समझाया ‘हम ये आविष्कार इस यंत्र का कमर्शियल प्रोडक्शन शुरू करने के लिए नहीं बल्कि उसे रोकने के लिए खरीदना चाहते हैं. जिस झांव झांव, तू-तू, मैं-मैं को आप सुलझा कर पेश करना चाहते हैं वही तो हमारी यू एस पी अर्थात बाज़ार में हमारी अनूठी पहचान है. हमारी चैनेल उस सतत हाहाकार के लिए ही तो देखी जाती है. शान्ति से किसी मुद्दे के पक्ष-विपक्ष को पेश करने के दिन गए. अपने आविष्कार का मुंहमांगा दाम लेकर हमें उसकी अंत्येष्टि करने दीजिये. हमारे दर्शक हमारी हाहाकार का आपके शान्तिप्रिय आविष्कार से ज्यादा मोल लगाते हैं.

    भाग खुल गए बड़ा पाव के

    पौराणिक कहानियों में कई व्यंजनों को बड़े बड़े देवताओं के नाम के साथ नत्थी होने का सौभाग्य मिला. लड्डू गणेश जी को इतना प्रिय था कि उनका नाम ही मोदकप्रिय पड़ गया. उधर बालकृष्ण को दधि माखन इतना पसंद था कि चुरा कर खाने से भी बाज़ नहीं आये यद्यपि पकडे जाने पर कन्नी काट जाते थे और बैरी ग्वालबालों पर झूठी चुगलखोरी की तोहमत लगा देते थे. मर्यादा पुरुषोत्तम शायद ऐसा न करते. असल में श्रीराम को शैशव में भी किसी विशेष व्यंजन में रूचि थी ही नहीं. माखनचोर कृष्ण की तरह उन्हें भी दधिमाखन प्रिय होता तो तुलसी दास कौशल्या के आँगन में ठुमक ठुमक चलने और पैंजनियां बजाने का वर्णन करते समय कृष्ण की तरह उनके ‘मुख बहियाँ’ में दधिमाखन लिपटे होने का उल्लेख ज़रूर करते. बाद में उनके खाने का वर्णन आया भी तो शबरी के बेर तक ही पहुंचा. सौभाग्यशाली था बेर. भगवान् राम रीझे तो शबरी की निश्छल भक्ति पर लेकिन मौकये वारदात पर हाज़िर रहने से जूठा बेर भी प्रसिद्ध हो गया.

    बेचारी रोटी का ज़िक्र तो आया था इस पद में “काग के भाग कहा कहिये, हरि हाथ से ले गयो माखन रोटी”.पर हुआ यह कि रोटी और माखन ताकते ही रह गए, कौवा अकेले सारी इम्पोर्टेंस ले गया. अरे हरि ने हाथ तो लगाया था माखनरोटी को. कम से कम उतना सम्मान तो मिलता जितना शबरी का बेर पा गया. माखन का तो कुछ नहीं बिगड़ा. कृष्ण जी को प्रिय था दुनिया जानती थी. रह गयी बेचारी रोटी जिसे कौवा क्या ले उड़ा कि लोग उसे भूलकर कौवे का भाग सराहते रह गए.

    रोटी की किस्मत तो आज तक नहीं सुधरी पर किसी व्यंजन का भाग्य पलटा है तो वह है वड़ा पाव. कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि महाराष्ट्र के सिनेमाघरों में पॉपकॉर्न को हटा दिया जाए, उसकी जगह बड़ा पाव उपलब्ध हो. सुनते ही मिनीस्कर्ट से लेकर शोर्ट निकरधारी युवतियों ने और कानों में कुंडल धारे, बालों को साही के काँटों की तरह खडा रखने वाले नवयुवकों ने इसे अपनी आधुनिक संस्कृति पर पुरानी मानसिकता का प्रहार करार दिया है उधर उनकी आपत्ति सुनकर संस्कृति के संरक्षक तिलमिला उठे हैं. वड़ापाव की तौहीन महाराष्ट्र की तौहीन मानी गयी है. अब बंगाल में रसगुल्ले का, पंजाब में लस्सी का, गुजरात में ढोकले आदि के अपमान का अंदेशा हुआ तो वहाँ भी मोर्चे बनेंगे, आन्दोलन छिड़ेंगे. बड़ा पाव इस क्रांति का सरगना होगा.

    बोया पेड़ बबूल का तो -----

    सुबह की सैर में हम चार पांच हमउम्र और एक जैसे दृष्टिकोण वाले मित्रों को अखबार की सुर्ख़ियों में छाये ह्त्या, बलात्कार, डकैती के समाचारों की चर्चा करके सुहानी सुबह को बदरंग बनाना पसंद नहीं था. देश में चल रही हास्यास्पद राजनीतिक उठापटक से लेकर अपने शहर और कोलोनी की ख़बरों, क्रिकेट और फूटबाल के बड़े बड़े मैचों आदि की चर्चा के बीच परस्पर हास परिहास हमारे घंटे भर की सैर में बहुत खूबसूरत रंग भर देता था. पर पिछले दो दिनों से सिडनी और पेशावर में हुई नृशंस आतंकी घटनाओं से हमारी गपशप पर उदासी छाई हुई थी.

    उस दिन आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुई आतंकी घटना से हम क्षुब्ध थे. पिछली संध्या टीवी चैनलों पर देखे उन दृश्यों की बातें होती रहीं जिनमे एक कैफे में एक ईरानी आतंकी द्वारा निरीह लोगों को बंधक बनाने के बाद आस्ट्रेलियाई पुलिस के जवाबी हमले में उस आतंकी को मार गिराने और बंधकों को छुडा लेने के उपक्रम को हमने देखा था. आस्ट्रेलियाई पुलिस की सूझबूझ, साहस और कर्तव्यपरायणता तथा वहाँ की सरकार के कड़े रुख की प्रशंसा के बीच ‘छब्बीस ग्यारह’ वाले मुम्बई के ताजमहल होटल और लियोपोल्ड कैफे में पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा खूनखराबे का ज़िक्र भी उठा. सिडनी के आतंकी हारून के नाम के साथ हमारे ‘अपने’ आतंकी अजमल कसाब का नाम भी याद आया. पर आतंक की इन घटनाओं की चर्चा से तनावग्रस्त माहौल को हमने अजमल कसाब की खाने में बिरयानी और मुर्गे की मांग पर हंसकर फिर से सामान्य कर लिया.

    बातों बातों में हमारी कोलोनी के उन सज्जन का भी ज़िक्र उठा जो मानव अधिकारों के महानतम स्वघोषित संरक्षक थे. वे उस समय मौजूद होते तो अजमल कसाब की बिरयानी और पुलाव की मांग पर हमारे हंसने से उत्तेजित हो जाते. भारत में माओवादियों द्वारा अर्धसैन्य बलों और निहत्थे ग्रामीणों की क्रूर ह्त्या हो या अमेरिका द्वारा तालिबान और आई एस आई एस के ठिकानों को नेस्तनाबूद करने का ज़िक्र, उनकी सहानुभूति हमेशा उसी तरफ रहती थी जिसके क्रिया कलाप हमारे लिए घृणास्पद होते थे. उनके लिए भारत में माओवादी आतंक एक चरमराती आर्थिक व्यवस्था को सुधारने की दिशा में क्रियात्मक कदम था और हाफीज़ सईद जैसे लोग कश्मीरियों की स्वराज की आकांक्षा के प्रतिपालक थे. उनके हिसाब से इन्डियन मुजाहिदीन एक कपोलकल्पित संस्था है और बटाला हाउस में आतंकियों से मुठभेड़ एक कहानी. हम समझ चुके थे कि केवल भगवान उन्हें सद्बुद्धि दे सकता है. उन्हें भी हमारे संग-साथ की कोई परवाह नहीं थी. देश के स्वनामधन्य मानवाधिकार संरक्षकों की वाहवाह उन्हें प्रफुल्लित रखती थी. रहते भी थे वे ठाठ बाट से. विदेशी पत्र पत्रिकाओं में लेखों से उन्हें काफी धनप्राप्ति हो जाती थी. कई गैरसरकारी संस्थाओं के भी वे सर्वेसर्वा थे जिन्हें विदेशी आर्थिक सहायता की कमी न थी. उनके अधिकाँश मित्र भी विदेशों में ही थे. यहाँ तो वे अपनी कोठी में अपने प्रिय रोटवीलर कुत्तों की संगत में ही मगन रहते थे. रोटवीलर कुत्ते बेहद खूंखार होते हैं. अपने मालिक के प्रति बेहद वफादार पर दूसरों के लिए बहुत खतरनाक. किसी ने टिप्पणी की कि उनके कुत्ते भी आतंकी हैं. हम हंसने लगे.

    पर सोचा न था कि वह दिन और कितना मनहूस निकलेगा. सुबह दस बजे से ही न्यूज़ चैनलों पर पेशावर के उस दिन आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुई आतंकी घटना से हम क्षुब्ध थे. पिछली संध्या टीवी चैनलों पर देखे उन दृश्यों की बातें होती रहीं जिनमे एक कैफे में एक ईरानी आतंकी द्वारा निरीह लोगों को बंधक बनाने के बाद आस्ट्रेलियाई पुलिस के जवाबी हमले में उस आतंकी को मार गिराने और बंधकों को छुडा लेने के उपक्रम को हमने देखा था. आस्ट्रेलियाई पुलिस की सूझबूझ, साहस और कर्तव्यपरायणता तथा वहाँ की सरकार के कड़े रुख की प्रशंसा के बीच ‘छब्बीस ग्यारह’ वाले मुम्बई के ताजमहल होटल और लियोपोल्ड कैफे में पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा खूनखराबे का ज़िक्र भी उठा. सिडनी के आतंकी हारून के नाम के साथ हमारे ‘अपने’ आतंकी अजमल कसाब का नाम भी याद आया. पर आतंक की इन घटनाओं की चर्चा से तनावग्रस्त माहौल को हमने अजमल कसाब की खाने में बिरयानी और मुर्गे की मांग पर हंसकर फिर से सामान्य कर लिया.

    अगली सुबह सैर के लिए हम इकट्ठे हुए तो सब मौन थे. इतनी क्रूरता, इतनी नृशंसता, इंसान की ऐसी दरिन्दगी अकल्पनीय थी. उस दिन हमने सोचा अधिक, बातें कम कीं. सैर के अंत में किसी ने सुझाव दिया कि देखें मानवाधिकार के वे ठेकेदार महोदय आज क्या कहते हैं. हम उनकी कोठी पर पहुँच गए. गेट पर कुत्तों से सावधान करने वाली सूचना पट्टी नहीं दिखी. घंटी बजाने पर उनका बेटा बाहर आया. उसी ने नौकर की अनुपस्थिति और कुत्तों वाली नोटिस के हटाने का राज़ खोला. बताया पापा को उनके बेहद प्यारे रोटवीलर ‘ब्रूटस’ ने पिछली शाम बुरी तरह से काट खाया था. उनके नौकर ने शाम को रोज़ की तरह घुमाते वक्त उसकी मर्जी के खिलाफ चेन को जोर से खींचा तो ब्रूटस उसके ऊपर चढ़ बैठा था. उसे बचाने के चक्कर में पापा आये तो उन्हें भी घायल कर दिया ब्रूटस ने. फिर दोनों को अस्पताल ले जाया गया , ब्रूटस को एस पी सी ए (पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने वाली संस्था) को सौंप दिया गया था. हमने उसकी मम्मीजी से मिल कर संवेदना प्रकट करना चाहा तो पता चला कि वे भी घर पर नहीं थीं. उन्होंने भी घर में एक सांप पाल रखा था जिसे वो रोज़ दूध पिलाती थीं. पर कल की खबर सुनकर वे भी बहुत डर गयी थीं अतः अपने पालतू सांप को घर से दूर कहीं जंगल में छोड़ने गयी हैं .