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आइना सच नही बोलता - 15

आइना सच नही बोलता

कड़ी १५

लेखिका रश्मि तारिका

सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया

अपने नए जन्म की बात सोच नंदिनी के चेहरे पर एक मुस्कुराहट सी तैर गई । सोचने लगी " सच ही तो है । बच्चे के जन्म के साथ माँ का भी तो पुनर्जन्म होता है । अभी तो उसे अपनी ज़िंदगी के इन ख़ुशगवार पलों को जीना है ।माँ भी तो बार बार यही कहती हैं ।"सोचते हुए नंदिनी का हाथ आहिस्ता से अपने पेट के उस उभार चला गया जहाँ उसका अंश साँसे ले रहा था । नंदिनी अपने गीले बालों को तौलिए से सुखाने लगी ।आइने के सामने खड़ी हो आज एक नए सिरे से ख़ुद को निहारने लगी । चेहरे पर एक अनोखी कांति थी । तौलिया हाथ में लिए पलंग पर बैठी दीपक के ख़याल में खो गई । "

" क्या कर रह होंगे दीपक इस वक़्त ? क्या मेरी याद आई होगी उन्हें ?" मन ही मन ख़ुद से बतियाती हुई नंदिनी की आँखें नींद से बोझिल होने लगी ।

अगली सुबह का सूरज उगा तो नंदिनी का चेहरा एक आत्मविश्वास के आलौकिक सौंदर्य के साथ दमक रहा था।माँ कमरे में आई तो उसके चेहरे को दो पल के लिए निहारती रही।बेटी की बलैयां ले ,उसके सर पर हाथ फेरने लगी और कहा ," आज तो मेरी लाडो की तबियत और मूड़ दोनो ही सही लग रहे हैं। शुक्र है ईश्वर का ! अच्छा नंदू बिटिया वो मैंने क्रोशिये और कढ़ाई के सब नमूने निकाल कर रख दिए हैं।पर तुम्हें क्या करना है उनका और वैसे मैंने तुम्हारी शादी में भी तो कितनी चीज़े बना कर दी थीं न । भूल गईं क्या तुम ?"माँ असमंजस सी पूछने लगी।

"भूली नहीं माँ ।अच्छे से याद है।बस आपकी सुघड़ता और हुनर को एक बार फिर देखने का मन था ।लेकिन माँ , पहले नाश्ता तो करवाओ।बहुत भूख लगी है।"

"ठीक है तुम नहा कर आओ ,मैं नाश्ता लगाती हूँ।"माँ मुस्कुराते हुए नंदिनी के कमरे से बाहर जाने लगी कि नंदिनी ने फिर से पुकारा।

"माँ ..तुमने जब से बताया है ,सुनीता के पति के ना रहने का , तबसे मन बेचैन है।मैं आज उससे मिल आऊँ थोड़ी देर के लिए?"

"नहीं..तुम नहीं जाओगी।इस हालत में नहीं...। वो एक विधवा है ,उसकी छाया भी तुम पर नहीं पड़नी चाहिए।"माँ ने कड़े स्वर में कहा।

" माँ...कैसी दकियानूसी बातें करती हो।इस में सुनीता का भला क्या दोष।वो बेचारी दुखों की मारी, न जाने कितनी टूट गई होगी।मैं उसकी सहेली हूँ , मिलूंगी तो ...!"

"कहा न नहीं...।मैं तो क्या तुम अपनी सास से भी पूछ कर देखना वो भी मना ही करेंगी।तुम इन सब बातों को अभी नहीं समझतीं।"माँ कहती हुई रसोई की ओर बढ़ गई।

नंदिनी का चेहरा जो कुछ समय पहले खिला हुआ था , मुरझा सा गया।सोचने लगी लोग कब तक इन कुंएं के मेंढक बने रहेंगे।कब तक इन खोखले अंधविश्वासों की जंजीरों में जकड़े रहेंगे?" विचारों का प्रवाह दीपक की चाची पर जाकर ठहर गया ।हाँ ,उसकी सास भी तो शगुन के कार्यों में विधवाओं का होना अपशकुन मानती थी।सुनीता से मिलने की आस धूमिल पड़ने लगी।किसे कहे ,किसे मनाए।

"ह्म्म्म.. चलो कोई बात नहीँ।फ़ोन पर बात कर लेगी उससे।"नाश्ता कर ,भाभी के कमरे में पहुँची तो भैया ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहे थे।

"अरे आओ आओ नंदू , कैसी हो।"भैया ने टाई की नॉट बाँधते हुए पूछा।

"मैं अच्छी हूँ भैया ..!" मुस्कुराते हुए नंदिनी ने कहा।

"अच्छा अब तुम ननद भाभी गप्पे लड़ाओ ,मैं शाम को मिलता हूँ।"कहकर भैया नंदिनी के सर पर नेह भरा हाथ फेरते हुए चले गए।

"भाभी , पहले तो यह बताओ सारा दिन आप घर पर रहकर उकता नही जातीं ? " नंदिनी ने भैया के जाते ही भाभी से पूछा ।

"तुम पहले यह बताओ कि तुम्हारे दिमाग में चल क्या रहा है ननद रानी ?"

" भाभी बात मत बदलो ।बताओ ना प्लीज़ ।"

" करना क्या है नंदू , घर गृहस्थी के कामों से फ़ुरसत ही कहाँ मिलती है जो उकताऊँगी ।" कमरे में बिखेर सामान को समेट्ते हुए साक्षी ने कहा।

" आप को तो पेंटिंग का कितना शौक़ था ना भाभी ! इतना भी क्या काम कि आप उसके लिए थोड़ा सा वक़्त भी नही निकाल सकतीं ?"

"ये वक़्त ही तो मेरा नहीं है नंदिनी ।ख़ैर छोड़ो तुम भी क्या बातें लेकर बैठ गई हो ।" बात बदलते हुए साक्षी ने कहा।

"भाभी ,भैया ने जो सामने वाली दीवार पर आपकी बनाई पेंटिंग लगाई थी वो कहाँ है ?"

"वो पुरानी और बेरंग हो गई थी नंदू । इसलिए तुम्हारे भैया ने उतार कर ऊपर वाले स्टोर में रखवा दी ।"

"तो आप नई बना लेती । दीवार तो भर जाती न ।" नंदिनी ने हैरान से हुए कहा।

"दीवारें भरने से क्या होगा नन्दू जब मन ख़ाली हों !"

"भाभी...! आपने कोशिश तो की होती ।"

"जब आपका साथी सात फेरों के बंधन की डोर का अपनी ओर का एक सिरा छोड़ दे ना तब आप दूसरे सिरे को कब तक थामे रहेंगे ? एक न एक दिन दोनो तरफ़ की ढील उस डोर को उलझा ही देगी न ! अभी तुम्हारे विवाह को एक साल भी नही हुआ इसलिए तुम नहीं समझ पाओगी नंदू ।ख़ैर मैं तो प्रार्थना करूँगी कि तुम्हारा और दीपक जी का बंधन अटूट रहे । कोई भी सिरा न छूटे कहीं से भी।" पलकों में समाए आँसुओं को छुपाते हुए साक्षी ने नंदिनी को गले लगाते हुए कहा। एक दूजे के अनकहे दर्द को समझने की क़वायद में दोनो ननंद भाभी कुछ देर यूँ ही खड़ी रहीं।फिर ख़ुद से अलग करते हुए साक्षी ने पूछा ।

" नंदू ,तुम कल कुछ कम्प्यूटर की बात कर रही थी न ? क्यूँ?"

"अरे कुछ नहीं भाभी ।वो आजकल कम्प्यूटर के बारे में बहुत सुन रही हूँ ।इसलिए आपसे पूछा। कुछ ख़ास नही।"नंदिनी ने बात टालते हुए कहा।

"कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम मुझसे कुछ छुपा रही हो ? सब ठीक तो है न ? "साक्षी ने नंदिनी के चेहरे को ग़ौर से देखते हुए पूछा।

"ऐसा कुछ नहीं भाभी । लेकिन आप एक बात बताओ।आप अपनी ख्वाइशों को अपने भीतर ही टूटते देख दुखी नहीं होती ? झूठ मत बोलियेगा भाभी ।मैं आपकी वही नंदू हूँ जिसने आपको कई बार चुपचाप आँसू बहाते हुए देखा है।"

"पगली कहीं की।ये सब तो गृहस्थी में चलता ही रहता है। तुम्हारे भैया कितना तो ख्याल रखते हैं।खूब खाती पीती हूँ मन का।मज़े करती हूँ हर बरस जडाऊ गहने बनवा देते तुम्हारेभाई ।"अपनी आवाज़ को संयत करते हुए साक्षी ने कहा।कहीं कुछ दरकने की आवाज़ थी जिसे नंदिनी ने सुन ही लिया था।

"हाँ...इच्छाओं के टूटने से बहते आँसुओं को चाट पकौड़ियों में छुपाने की कोशिश करती हो और तेज़ मिर्ची का बहाना बनाती हो।"नंदिनी ने अपनी भाभी के दुःख का राज़ खोलते हुए कहा।

"शादी के बाद बहुत बड़ी बड़ी और गहरी बातें करने लगी हो , ननंद रानी ।"

दोनों खिलखिला कर हँस पड़ी ।बातों का सिलसिला इससे पहले कि आगे बढ़ता , माँ ने पुकारा ।

"नंदिनी , ओ नंदिनी ।लाडो ,दामाद जी का फ़ोन आया है ।आकर बात कर लो बेटा ।"सुनते ही नंदिनी के चेहरे पर एक शर्मीली सी मुस्कुराहट आ गई और वो बैठक में पड़े फ़ोन के पास पहुँची ।

" हेलो...।" नंदिनी ने आहिस्ता से कहा तो उधर से हाल चाल पूछने की औपचारिकताओं के बाद दीपक ने पूछा ," सारा दिन क्या करती रहती हो ? ख़ैर करोगी भी क्या ! छोटे शहरों में ज़िंदगी एक मकान में एक कमरे से दूसरे कमरे में आने जाने में ही गुज़र जाती है ।अब यहाँ जैसी ज़िंदगी और ऐशो आराम वहाँ कहाँ । तुम भी बेवक़ूफ़ ठहरी जो वहाँ चली गईं।माँ ने ना कहा होता तो मैं तुम्हें कभी न भेजता ।ख़ैर अब तुम्हें परेशानी हो वहाँ के माहौल में तो जल्दी लौट आना मुझे भी दिक्कत होती हैं खाना कपडा खुद लेने में ।" दीपक ने अपनी बात पूरी की तो नंदिनी बस जी कहकर रह गई । मन और आँखें दोनो भर आए । लेकिन ख़ुद को संयत किया इस उम्मीद में कि शायद वो अब अपने होने वाले बच्चे के लिए कुछ पूछे ।फ़िल्मों में कई बार देखा था कि होने वाला पिता अपनी गर्भवती पत्नी के पेट पर कान लगाकर उससे बतियाता है ,उसकी धड़कनों को सुनने की कोशिश करता है ।क्या दीपक को कभी ऐसा महसूस नहीं होता कि वो अपने बच्चे की धड़कनो को सुने ? मुझसे न सही ,कम से कम बच्चे के साथ तो उसके एहसास के साथ जुड़ें ! लेकिन अगले ही पल उसे लगता दीपक तो शायद अभी बच्चा चाहता ही नहीं था शायद इसीलिए उसका अपने ख़ून ,अपने अंश के साथ उसका जुड़ाव बन नहीं पाया ।नंदिनी ख़ुद से ही सवाल जवाब करती ख़ुद से उलझती जा रही थी । कभी लगता नहीं शायद वो शरमा रहे होंगे वरना आने से पहले उनका व्यवहार इतना बदला हुआ ना होता । उम्मीद की किरणों का दामन पकड़ कर नंदिनी दीपक की कभी मन ही मन तरफ़दारी करती तो कभी उसकी उपेक्षा को लेकर खिन्न हो जाती । लेकिन दीपक ने ना कुछ कहा न ही नंदिनी ने कुछ सुना जिसके इंतज़ार में कब से खड़ी फ़ोन के रिसीवर को पकड़े खड़ी थी । एक दीर्घ निःश्वास के साथ उठी और चेहरे पर मुस्कुराहट लाते हुए माँ के पास आकर बैठ गई ।

"देख लाडो ,अपने नाती के लिए ये मौजे बना रही हूँ । माँ ख़ुशी से अधूरे मौजे को ही दिखाते हुए बोली ।

"माँ ,तुम्हें बचपन से ही देखती आ रही हूँ ।तुम कुछ ना कुछ बनाती ही रहती हो ।कितना हुनर है तुम्हारे हाथों में ! "ऊन का गोला हाथों में लेते हुए नंदिनी ने कहा ।

" हुनर काहे का ।बस हमारे टाइम यही सिलाई कढ़ाई ही आती थी और यही माएँ सिखाती थी। फिर लाडो मैं तो ख़ाली न बैठ सकती । कुछ भी ना करूँगी तो हाथों में ,शरीर में जंग न लग जाएगा । इंसान काम करता ही अच्छा लगे।" माँ ने मानो आत्मविश्वास के साथ कहा ।

"ये सिलाई , कढ़ाई और क्रोइशिये में इतनी निपुण हो तो माँ कभी चार पैसे कमाने का नही सोचा तुमने ।मतलब दूसरों को बनाकर देती तो कुछ पैसे मिलते न माँ ?" नंदिनी ने अपने मन में चलते आर्थिक स्वावलम्बन की भावना के तहत और अपनी भाभी की परेशानी की जड़ को समझते हुए पूछ तो लिया लेकिन माँ के हाथों की गति के रुकने और अपनी तरफ़ घूरते हुए नंदिनी अचानक घबरा गई ।ऐसा क्या पूछ लिया उसने माँ से जो उसे एकटक देख रहीं हैं ?"

"पागल तो नहीं हो गई तुम ? घर में आदमियों के रहते औरतें काम करेंगी क्या ? कभी औरतों की कमाई से भी बरकत हुई क्या ? तुम आजकल की लड़कियाँ चार अक्षर पढ़कर ,दो चीज़ें सीख कर बस आदमियों की बराबरी करने लगती हो ।बड़े बुज़ुर्ग ऐसे ही ना कहते कि जिसका काम उसी को साजे और करे तो ठेंगा बाजे ।"माँ ने नंदिनी की तरफ़ अँगूठा घुमाते हुए कहा जैसे उसी को सुना रही हो ।

"माँ , आजकल ज़माना बदल गया है ।अब लड़कियों की पढ़ाई लिखाई के साथ सोच भी तो बदलेगी । फिर हमारे पास हुनर है तो उसे घर में ही क्यूँ दबा कर रखना ।जानती हो माँ बड़े बड़े शहरों में तो आपके हुनर की ,कला की बहुत पहुँच है ।आप जो ये क्रोशिये की लेस बनाती हो न वो बाज़ार में दुगने तिगने दामों में लोग ख़रीदते हैं ।आपके हाथों से बनी पेंटिंग , कढ़ाई की हुई चद्दर , साड़ियाँ लोग हंस कर लेते हैं मुँह माँगी क़ीमतों पर । "नंदिनी ने आवाज़ में थोड़ा जोश और विश्वास लाते हुए कहा ।

"अच्छा , अब समझी । इसलिए तू कल मुझसे कढ़ाई और क्रोशिये के नमूने माँग रही थी । देख नंदू , ये सब बातें जो तू बता रही है ना वो सब भले घर की लड़कियों को शोभा नहीं देती । अपने दिमाग़ के घोड़ों को यहीं लगाम दे दे और सिर्फ़ अपने बच्चे के बारे में सोच ।अच्छा सोच ,अच्छा होगा । उलटे सीधे ख़याल मत ला ।दामाद सा का इत्ता बड़ा ख़ानदान ,घर ,नौकरी फिर तुझे क्या कमी है लाडो बता ,जो तू इन दो रूपल्ली की बातें कर रही है ।झूठ न बोलना मुझसे ,माँ हूँ तेरी । तेरी बातों में मुझे शहरीपने की बू आ रही है। न मेरी बच्ची , शहर की चकाचौंध में अपनी गृहस्थी को दाँव पर न लगा देना । " माँ ने सलाइयों को परे रखते हुए नंदिनी को समझाया,और उसके सर पर हाथ फेरने लगी ।

"माँ , ज़माने के साथ चलने में बुराई क्या है ।आप समझ क्यूँ नहीं रहीं । हमारी पढ़ाई ,हमारे हुनर या कला सिर्फ़ शौक़ के लिए या टाइमपास के लिए नहीं ,आड़े वक़्त किसी मुश्किल में हमारा सहारा भी तो बन सकती हैं जब हम अपने परिवार का पेट पाल सकें ।समय बदला है लोगों की सोच भी बदली है ...!"

" हमारी सोच बदलने से क्या होगा बच्ची ? तुम्हारी भाभी ने भी हाथों में ये ब्रश और रंग थामे थे बेटा पर उसके हाथों में भी बेलन और चिमटा थमा दिया तुम्हारे भैया ने । इसीलिए कह रही हूँ कि हम औरतें हैं ।हमें अपनी इच्छाओं ,सपनों को पल पल टूटते हुए देख कर जो दुःख और दर्द मिलते हैं न बेटा वो भी हम किसी को जता नहीं सकती तो पूरा करना तो दूर की बात है ।" भीगे स्वर में माँ ने नंदिनी को मानो अपने जीवन का अनुभव बताते हुए कहा ।

"माँ ,तुम चाहती तो भाभी को ख़ुशियों के रंग दे सकती थीं ।अपने बच्चों के लिए माँ क्या कुछ नहीं करती ।या साक्षी भाभी तुम्हारी बहू है इसलिए तुमने लड़ने की हिम्मत न दिखाई ? क़दम पीछे हटा लिए ?"नंदिनी की आवाज़ तल्ख़ हो गई।

" एक मर्द पति के रूप में औरत के पाँव में अपने अहं की बेड़ियाँ पहनाता है ना तो बेटे उन बेड़ियों को खोलने की बजाए उन्हें अपनी परम्पराओं के तालों से बंद कर उसकी सुरक्षा के लिए खड़े हो जाते हैं । मैं भी आज उसी सुरक्षा में घिरी हूँ बच्ची जहाँ से बाहर जाने का कोई रास्ता मुझे तो ना दिखलाई देता हैं ना ही कोई ऐसी इच्छा । "अपने आसूँ पौंछते हुए माँ ने अपनी ऊन समेट कर एक तरफ रख दी।

"बातों बातों में समय का पता ही नहीं चला। देख न ,साँझ हो चली है ।" कहकर माँ शाम की दिया बत्ती करने मंदिर की ओर बढ़ गईं।

नंदिनी माँ की बातों के अर्थ खोजने में कुछ पल तक जड़ सी बैठी रह गई ।माँ की आरती और घंटी बजने का स्वर आने लगा तो नंदिनी भी उठ खड़ी हुई ।ख़ुद से एक वादा करते हुए .. ना तो दीपक को ऐसी बेड़ियाँ पहनाने देगी न ही अपने बच्चे को इस परंपरा को बढ़ाने देगी कभी । लेकिन सोच हैं न ,क्या मालूम पूरी होगी भी या नही . भाविष्य के गर्भ में क्या छुपा हैं कोई नही जानता . हवाई किले तो हर कोई बना सकता हैं पूरा करने के लिय जिगरा चाहिए होता हैं . सपने तो उसने भी देखे थे ना आगे पढने के , क्या दिखा पायी हिम्मत कि मुझे अभी विवाह नही करना ......... लडकियां कब अपने लिय जीती हैं उनके हिस्से आती है दो घरो की इज्ज़त , तू तो समझदार हैं कहकर मायके और ससुराल दोनों में रस्मो रिवाजों की बेदी बाँध दी जाती हैं और लड़की उसे ही किस्मत मान कर जीने लगती हैं अपनी जिन्दगी ......................

सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया

परिचय रश्मि तारिका

एक गृहिणी होना अपने आप में एक सम्पूर्ण प्रोफेशन है । लेकिन जबसे मैंने कलम हाथ में थामी है ,लफ़्ज़ों से दोस्ती की है तब से मन के भाव समेट कर अपनी कहानियों कविताओं को पत्र पत्रिकाओं में भेजते हुए... "मैं मैथिलीप्रवाहिका, आगमन ,खबरयार , लेखनी ,राजस्थान पत्रिका ,सन्मार्ग,प्रवासी दुनिया, कैच माय पोस्ट आदि कई पत्रिकाओं से जुड़ी।" "रश्मि प्रभा जी द्वारा संकलित " नारी विमर्श के अर्थ" लेख संग्रह का हिस्सा"बनी। "आगमन द्वारा आयोजित " सिर्फ तुम "प्रतियोगिता में तीसरे स्थान पर रही और कहानी संग्रह का भी हिस्सा बनी । "प्रतिलिपि .कॉम में काफी महीनों तक टॉप टेन राइटर्स में बनी रही और प्रतिलिपि द्वारा ही प्रायोजित कहानी प्रतियोगिता में टॉप 20 विजेताओं में मेरी कहानी"तुम पगली हो" को आठवां स्थान मिला । "नया लेखन नया दस्तखत लघुकथा द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में मेरी 3 लघुकथाएँ विजेता रहीं । "गागर में सागर द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में भी विजेता रही।" लफ्ज़ अपना रास्ता खोज लेते हैं "अभी मातृभारती द्वारा आयोजित पत्र लेखन में भी जीतना ख़ुशी का सबब बन गया। लेखन कार्य का आगाज़ तो हो चूका है ,सफर काफी है।बस चलते जाना है ...चलते जाना है ।बहुत कुछ सीखना भी बाकी है।