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आइना सच नहीं बोलता

आइना सच नही बोलता 25

SHARDHHA

इस दुनिया में सिर्फ बदलाव ही शाश्वत है, दुनिया हर पल बदलती रहती है. रोज वही सूरज आता हैं लेकिन फिर भी वो रोज नया ही होता है, कभी सुर्ख नारंगी सूरज, तो कभी चाँद सा सफ़ेद सूरज. वह अपने साथ किसी दिन बेहद खुशनुमा साफ़ सुबह लेकर आता है तो कभी बादलों से भरी सीली सी. वह एक सुर्ख सूरज का दिन था लेकिन उसकी सुर्खी नंदिनी को जला रही थी, उसदिन नंदिनी कुछ अधिक ही बेचैनी महसूस कर रही थी. वह सुबह-सुबह दिवित को दूध पिलाते हुए शून्य में देख रही थी. दिवित दूध पीते हुए उसकी उंगली खेल रहा था. वह ऊँगली पकड़ता, फिर छोड़ता, फिर पकड़ता, फिर छोड़ता।

नंदिनी का दिल भी दीपक की कडुवाहट भरी यादों के साथ यही खेल रहा था। नंदिनी का आधा दिल कह रहा था कि छोड़ दे उसे, जिसने तुझे छोड़ दिया। जिसने तुम्हारे अहसासों की कोई कद्र नहीं की। उसके साथ की कामना भी तुम्हारे स्वाभिमान पर चोट है। यहाँ आकर उसका दूसरा दिल दबी आवाज में कहने लगा कि लेकिन है तो वो तुम्हारा पति ही। शादी तो जन्मों का बंधन होता है उसने रिश्ता तोड़ दिया लेकिन तुम कैसे तोड़ सकती हो, औरत तो रिश्ते जोड़ने का काम करती हैं तोड़ने का नहीं।

पापा भी दीपक के ऊपर बुजुर्गों के दबाव से इस रिश्ते को बनाये रखने पर मजबूर करना चाहते हैं,लेकिन वह क्या चाहती है?

क्या वह फिर से दीपक के साथ रहना चाहती है , नहीं वह जानती है कि दीपक की तरफ से यह संभव नहीं लेकिन यदि संभव हो तो भी वह अब दीपक का साथ नहीं चाहती। दीपक जिसने उसे एक इंसान की भी अहमियत नहीं दी, मौका मिलते ही उसके साथ खेला और फिर छोड़ दिया ऐसे इंसान को वह अपने जीवन में सबसे अहम स्थान पर रखे अब यह संभव नहीं। जो रिश्ता दीपक ने कभी जोड़ा ही नहीं उसे जोड़ने की कोशिश की जाए, यह अब नंदिनी नहीं चाहती।

वह जो चाहती थी उसे दोहरा कर उसे जैसे शांति मिली उसने दिवित को प्यार से सहलाया और मुस्कुरा उठी कि अब दिवित को वह माँ पापा दोनों का प्यार देगी। अब उसे अपना रास्ता खुद ही बनाना है पापा चाहे जो सोचे, जो करें, उसे दीपक से कोई आस नहीं रखनी है। अपनी धरती, अपना आसमान छिन जाने के बाद उसे खुद से अपनी धरती तैयार करना है, अपना आसमान तलाशना है.

अमिता और दिवित की जिम्मेदारी अब उस पर थी, भले ही अमिता अब तक सब कुछ सम्हालते आ रही थीं, लेकिन अहसास उन्हें था, कि वे अब रीतती रेत घड़ी हैं. वे जल्दी ही थक जातीं, पति की मृत्यु ने उनकी उम्र एक ही झटके में बीस साल बढ़ा दी थी. नंदिनी इस वृध्दावस्था में उन पर भार नहीं बनना चाहती थी. अमिता ने अपने बेटे को छोड़ अपनी बहू को चुना था, अब उनके आराम का ध्यान रखना नंदिनी का परम कर्तव्य था.

पुरानी कहावत है कि बैठे-बैठे तो धन्ना सेठ भी नहीं खा सकता. उनकी जमापूंजी भी पतझड़ में पत्तों की तरह तेजी से झड़े जा रही थी. जल्ल्दी से जल्दी धनार्जन जरुरी था लेकिन कैसे? नंदिनी को एक मात्र आस दिख रही थी अपने हुनर में... लेकिन शुरुवात कैसे हो. नंदिनी ने कभी बाहर की दुनिया तो देखी ही नहीं थी.

दिवित का पेट भर गया. अब वह दूध पीते-पीते खिलवाड़ करने लगा. नंदिनी की आँखों में उसकी आस किसी तूफ़ान में दीये सी टिमटिमाई. उसने जल्दी से दिवित को अपनी गोदी से उतारा और झटके से खड़ी हो गई. यूं झटके से रखे जाने से दिवित चकित हुआ लेकिन उसका पेट भरा हुआ था तो वह खेलने लगा.

इस वक्त नंदिनी किसी अलग ही दुनिया में थी. वह दौड़ती हुई सी संदूक के पास पहुंची, दो सेकंड उसे देखती रही. वह संदूक जिसमें उसकी हाथों की मेहनत सहेजी हुई थी सबसे नीचे था. उसके ऊपर तीन संदूक और रखे हुए थे. नंदिनी ने एक- एक कर दोनों भारी संदूक हटा दिए. वह हांफने लगी लेकिन रुकी नहीं, उसने तीसरा संदूक भी हटाया और फिर झटके से उस बड़े संदूक को खोल दिया. संदूक ऊपर तक भरा था करीने से जमा था. नंदिनी एक के बाद एक सामान निकालती गई. उसके हाथों से कढ़ी चादरें. कुशन कवर्स, साड़ियाँ, दुपट्टे, वाल हैंगिंग्स, उसकी पेंटिंग्स बाहर आने लगीं.

तभी बिजली गुल हो गई, बंद खिड़की, और रोशनदान से रोशनी के टुकड़े जमीन में कहीं-कहीं बिखरे हुए थे. नंदिनी किसी सम्मोहन में जकड़ी हुई सी सामान देखती रही, निकालती रही. उसे बिजली चले जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन दिवित को अँधेरा पसंद नहीं, उसने एक-दो बार घबरा कर कहा, माँ...माँ... फिर चीख कर रो पड़ा. अब नंदिनी जागी. उसने दिवित को कुछ यूँ देखा जैसे वह उसे अमृत घट के पास से वापस बुला रहा हो.

थके कदमों से जाकर उसने दिवित को गोद में उठा लिया. एक हाथ में दिवित को गोद लिए दूसरे हाथ में संदूक के कुछ सामान उठाये वह बाहर दालान में आ गई. अमिता भी दिवित के रोने की आवाज सुन इधर ही आ रही थी. उन्होंने नंदिनी के हाथों में ये सामान देखा तो कह उठी,

“आज इन्हें कैसे निकाल रही हो बेटी. वैसे मैं तुम्हें कहने ही वाली थी कि बहुत दिन से ये सब संदूक में बंद हैं इन्हें धूप दिखा दो. बंद पड़े-पड़े कहीं ख़राब न हो जाएँ.”

नंदिनी सूनी, असमंजस भरी आँखों से उन्हें देखती रही, कैसे कहें उन्हें ? वह अपनी मन की उलझन. जब वह कढ़ाई करने बैठती थी तो धागों में कैसी भी उलझन हो सुलझा ही लेती थी, कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि कभी किसी धागे में पड़ी गांठ वह सुलझा न पाई हो लेकिन आज मन में गांठे ही गाठें भरी हैं और उसे समझ ही नहीं आ रहा कि कैसे सुलझाये उन्हें? ठाकुर समरप्रताप सिंह की बहू; कैसे कहे कि वह अपने हुनर का इस्तमाल आजीविका के लिए करना चाहती है, फिर उसे पता भी तो नहीं कि वह कैसे हुनर को आजीविका बना सकती है.

अमित ने नंदिनी के हाथों से दिवित को ले लिया, बाई को आवाज दी,

“सुरसतिया...आँगन में तख़्त डाल दे, नंदिनी इन सब को तुम धूप दिखा दो.”

नंदिनी मशीनी अंदाज से उनका कहा करती चली गई, कुछ ही देर में आँगन में हस्तकला का गुलिस्तान बना हुआ था. रंगबिरंगे फूल सजे हुए थे. रमा एक के बाद एक चीज उठा-उठा कर देख रही थी. सराह रही थी, अमिता नंदिनी की डायरी के पन्ने पलट रही थीं और अपनी बहू के बनाए सुन्दर-सुन्दर परिधानों के स्केच में खो रही थीं. जो ठण्ड की धूप के साथ मिल उन्हें सहला रही थी. आँगन गुनगुनी धूप से सराबोर था. जीवन में भले कुछ पल के लिए ही धूप की गर्माहट भर गई थी. तभी सुरसतिया ने आकर अमिता से कहा,

“बाई सा! आमोद बाबू और उनके बेटे आये हैं.”

“दो कुर्सी ले आ और उन्हें यहीं बुला ले, कुछ चाय-नाश्ता ले आना.”

अमिता अरसे बाद मिली इस गुनगुनी धूप को छोड़ कर उठना नहीं चाह रही थीं.,

आमोद बाबू और चिराग दोनों अमिता को प्रणाम कहते हुए कुर्सी में बैठ गए,

“कहिये आमोद जी, कुछ काम बना?” आमोद बाबू ने अपनी नजरें नीचे झुका लीं,

“मैंने जब पहले बात कि थी और उन्हें बताया था कि दीपक ने सारी जमीनें, दुकाने बेच दीं हैं, आपके पास केवल हवेली बची है, तो वह मालिक के उन पर किये अहसानों को याद कर सड़क किनारे की वह जमीन हमें वापस लौटाने के लिए तैयार हो गए थे. लेकिन जब आज फायनल बात करने गए तो जाने उन्हें कहाँ से ये खबर मिल गई थी कि हम उस जमीन पर बहूरानी के नाम से पेट्रोल पम्प खोलना चाहते हैं. शायद पेट्रोल पम्प से निकलते रुपयों की धार की कल्पना ने उन्हें डिगा दिया. वे अपनी बात से मुकर गए. मालकिन वही इकलौती आस बचे थे. अब कुछ और सोचना होगा.”

अमिता ने गहरी साँस ली, परिस्थितियों की ठण्ड की सीलन बसी थी इस साँस में, जो दिल की सीलन से मिल और ठंडी हो बाहर निकल आई, उनकी आवाज में बर्फ सी ठंडक थी,

“कुछ समझ नहीं आ रहा आमोद बाबू, पैसे भी तेजी से ख़त्म होते जा रहे हैं. कब तक ऐसे चल पायेगा.”

इस गंभीर वार्तालाप के बीच चिराग की आँखें आँगन में बिखरे सामानों पर फिरते हुए फैलती रहीं. इतने सुन्दर-सुन्दर सामान, उसने दिल्ली हाट में घूमते हुए ऐसे कई हस्तकला के नमूनों को देखा था, लेकिन वे सब भी उसे इन सामानों के आगे पानी भरते हुए लगे, उससे रहा न गया. वह अपने पापा को बात करता छोड़ उठ खड़ा हुआ, एक- दो चीजें अपने हाथ में ले देखने लगा, चिराग को ऐसे देखता पाकर नंदिनी कुछ हिचक सी गई, जैसे किसी ने उसके अधिकार क्षेत्र में अनाधिकार अतिक्रमण कर लिया हो. दिवित दौड़ता हुआ, आँगन के कोने में खिले हरसिंगार के नीचे पहुँच गया था, नीचे बिखरे फूलों से खेल रहा था. वह वहीँ सामानों से दूर आँगन के एक कोने में खड़ी थी. लेकिन फिर भी शायद उसकी असहजता हवा में हरसिंगार कि खुशबू के साथ फैलती हुई चिराग तक पहुँच गई. कुछ देर में चिराग को भी जैसे, अपनी इस उत्सुकता के प्रति एक गिल्ट महसूस हुई. वह वापस अपनी जगह में बैठ गया लेकिन उसकी नजरें संध्या के आकाश में शुक्र तारे सी चमकती रहीं.

अमिता और आमोद बाबू के बीच फैली असहाय स्थिति की बर्फीली जकड़न को नजर अंदाज करते हुए चिराग ने बसंत की खुनक भरी आवाज में अमिता से कहा,

“आंटी जी! ये सब सामान किसका है.”

अमित की आँखों में आये गर्व की धूप ने एक क्षण को बर्फीली जकड़न से राहत दी, “ये सब नंदिनी का अपने हाथों से बनाया सामान है, आज धूप दिखाने बाहर निकाले हैं.”

“आंटी जी! यदि आप बुरा न माने तो एक बात कहूँ? ये सारे सामान बहुत सुन्दर हैं, मैं जिस एन.जी.ओ. से जुड़ा हूँ, वहां एक छोटा सा स्वयं सहायता समूह है, जो हस्तकलाओं के सामान बनाता है, और उनको बेचने से मिले पैसों से अपना घर चलाता है. मैं इनमें से कुछ सामान उनको दिखाने ले जाना चाहता हूँ, ताकि उन्हें नए आइडियाज मिल सकें.”

“हां... हां... इस नेक काम के लिए कैसे मना कर सकते हैं फिर भी नंदिनी से एक बार पूछ लेना ठीक रहेगा. क्यों नंदिनी ?”

अमिता की आवाज सुन नंदिनी दिवित को गोद लिए पास चली आई. जैसे सूरज खुद ही चल कर उसके अंतर्मन के अँधेरे को रोशन करने चला आया, सारी बातें जानकर उसने कहा,

“अच्छा ही है माँ जी, ये सब यूँ ही रखे हुए हैं, किसी के काम आ जाये, इससे अच्छा क्या होगा.”

“फिर आप इसमें से दस पंन्द्रह अलग-अलग चीजें मुझे अभी दे दीजिये.”

सागर की कितनी सतहें होती हैं, किस सतह पर कैसी लहर बह रही है किसे पता. उथली लहरें तो दिख जाती हैं लेकिन अथाह गहराई में बहने वाली लहरें किसे दिखाई पड़ती हैं. अभी आमोद बाबू के चेहरे को असमंजस की लहरें झंझोड़ रही थीं.

नंदिनी ने दस-पंद्रह सामान अलग कर दिए. रमा एक बैग निकाल लाईं, जिसमें नंदिनी ने सारी चीजें करीने से जमा दीं.

हवेली से निकलते ही आमोद बाबू पूछ बैठे,

“इन सब का तुम क्या करोगे? किस स्वयं सहायता समूह की बात कर रहे हो तुम.?”

“बहुत से ऐसे समूह हैं पिताजी जो पंजीकृत तो हैं लेकिन ख़ास कुछ करते नहीं हैं. उन्हें पूँजी और राह दिखाने वाले की जरुरत है. अच्छा आपको पता है न कि अगले हफ्ते जगार महोत्सव होने वाला है. हम उसमें एक स्टाल लेंगे जिसमें इन सामानों को प्रदर्शित करेंगे.”

“वहां तो लोग सामान बेचने के स्टाल लगते हैं. कोई खरीदने आएगा तो तुम इसे बेच तो नहीं सकते?”

“कह तो रहा हूँ हम सिर्फ प्रदर्शित करेंगे. कोई खरीदना चाहेगा तो कहेंगे कि आपको आर्डर देना होगा तो यह मिलेगा. यदि हमें अच्छी प्रतिक्रिया मिलती है काफी सारे आर्डर मिलते हैं तो हम आंटी जी और नंदिनी भाभी को बता कर यही काम शुरू कर सकते हैं. उनकी सारी समस्या भी दूर हो जाएगी.”

बातों के साथ चिराग की बाइक अपनी स्पीड से चले जा रही थी, आमोद बाबू पीछे बैठे हुए थे, यह बात सुनते ही वह उचक कर चिराग की ओर झुक आये,

“तूने ऐसा सोचा भी कैसे कि मालिक की बहू अब सीने-पिरोने का काम करेगी? वो भी हम कहेंगे उन्हें ऐसा करने के लिए? ऐसे दिन देखने से बेहतर तो मैं कहीं चला जाना पसंद करूँगा. तुम मुझे यहीं उतार दो, कुछ देर में मैं घर आ जाऊंगा. रोको...रोको...”

चिराग ने बाइक रोक दी, चेहरे पर हल्की सी मुस्कान के साथ कहा,

“पिताजी आपकी बहूरानी ये काम नहीं करेंगी, आप ये चिंता मत कीजिये.”

जाते हुए आमोद बाबू रुक गए. जैसे वे खुद पूरे के पूरे एक प्रश्नचिन्ह बन गए. जिसे पढ़ते हुए चिराग ने कहा,

“आप मेरी पूरी बात सुन तो लीजिये.”

दूसरे दिन आमोद बाबू जिलाधिकारी कार्यालय में जगार महोत्सव के प्रभारी अधिकारी के पास बैठ, आयोजन स्थल में एक स्टाल बुक करा रहे थे. आमोद बाबू और चिराग के अगले कुछ दिन बेहद गहमागहमी में गुजरे. चिराग ने एक सीने- पिरोने का काम करने वाला स्वयं सहायता समूह ढूंढ लिया, जो उसके कहे अनुसार काम करने को तैयार था. उन्हें महोत्सव के प्रवेश द्वार से लगा, सबसे पहला स्टाल मिल गया. स्टाल बड़ा था, उसे सजाने के लिए कुछ और भी सामानों की जरुरत लग रही थी। चिराग और सामान लेने घर आया।

उधर चिराग से एन जी ओ की बात सुनकर जैसे नंदिनी की मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई थी। तब से नंदिनी की सोच को एक दिशा मिल गई थी। अब वह दीपक की कोई भी बात दिमाग में आते ही झटक देती और अपनी योजनाओं में गुम हो जाती। एक दिन सुबह जब उसने समाचार पत्र में जगार महोत्सव का बड़ा सा विज्ञापन देखा तो उसके सामने सपनों के आसमान में प्रवेश का इंद्रधनुष से सतरंगे रंगों से सजा द्वार खुल आया। उसने हिम्मत बटोर कर अमिता से अपने सपने, अपनी योजनाएं सब कुछ कह दिया। अमिता के सामने पीढ़ियों की ठसक के बंधन थे लेकिन कोई और रास्ता भी तो नहीं दिख रहा था। उन्होंने आमोद बाबू से बात करने के लिए सहमति जता दी।

उसदिन जब चिराग सामान लेने आया तो अमिता कहीं बाहर गई हुई थी, चिराग ने नंदिनी से अपने हाथों के बने कुछ और सामान देने की बात की तो नंदिनी ने उससे हिचजते हुए कहा, "मेरा एक काम करा देंगे।आज पेपर में जगार महोत्सव का विज्ञापन आया है , यदि हो सके तो मुझे एक स्टाल दिला दीजिये, मैं अपने सामानों की प्रदर्शनी लगाना चाहती हूँ।"

यह सुन चिराग के मन में असीम शांति के कबूतर अपने पंख फड़फड़ाते उड़ने लगे। अमित और नंदिनी से बिना बताये स्टाल में नंदिनी के सामानों की प्रदर्शनी लगाने के असमंजस से उसे निजात मिल गई थी।

अब चिराग, नंदिनी और महिला समूह ने स्टाल सजाने की जिम्मेदारी उठा ली. अब तक संदूक में बंद चीजें खुली हवा में, खुल कर साँस ले रही थी, उनसे आशा थी कि वे ये खुली साँसे अपने सृजनकर्ता को भी लेने का मौका दें. कुछ ही देर में सफ़ेद स्टाल रंगबिरंगे सामानों से सज गया. पलंगपोश, मेजपोश, वाल हैंगिंग्स, पेंटिंग्स, मिनिएचर पेंटिंग, खूबसूरत गुलदान, खूबसूरत पोशाकें, पूरे स्टाल में आकर्षण का केंद्रबिंदु था- वह बीरबहूटी से मखमली लाल रंग में आसमान के झिलमिलाते सितारे. इस साड़ी में नंदिनी ने कई रातें देर तक जाग कर मकैश लगाये थे. इसकी चमक गोल सुनहरे-रुपहले सितारों की तेज नकली चमक नहीं थी, अपितु इसमें असली सितारों की तरह टिमटिमाती चमक थी.

जगार महोत्सव में कई स्टाल सजे हुए थे, कोई सिर्फ चादरों का था, तो कोई सिर्फ साड़ी का, किसी में लखनवी कढ़ाई की खूबसूरती बिखरी हुई थी, तो किसी में बाघ और दाबू प्रिंट सजे थे. सारे स्टाल खूबसूरत थे लेकिन नंदिनी के लिए बना स्टाल तारों के बीच चन्द्रमा सा सज रहा था. सारे स्टाल व्यापार के लिए बनाए सामानों से सजे थे जबकि नंदिनी के स्टाल के सारे सामानों को किसी ने अपने दिल की ख़ुशी के लिए, अपने सपनों को रंगने के लिए बनाया था. उसके सारे खुशनुमा अहसास यहाँ लहरा रहे थे। यहाँ आमोद बाबू और चिराग की अपने स्वर्गीय मालिक के लिए कुछ कर सकने, कुछ काम आने की इच्छा, स्टाल की सुन्दरता में प्रतिबिंबित हो रही थी. इस प्रतिबिम्ब में कुछ झलक चिराग की नंदिनी को उसका आसमान देने की कोशिश की भी थी. आईने के सामने जब हम खड़े होते हैं तो अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं पर क्या आईने में सिर्फ हम ही होते हैं; नहीं... हमारे पीछे की बहुत सी चीजें भी आईने में प्रतिबिंबित होती हैं, जिन्हें हम खुद को देखते हुए देख नहीं पाते. नहीं देख पाना का मतलब- नहीं होना, कभी भी नहीं होता. कोई अंकुर था जो अभी किसी को नहीं दिख रहा था।……

SHARDHHA

NEELIMA SHARMA NIVIA